धर्मध्यान के अंतर्गत जो चौथा संस्थानविचय भेद है, उसके भी चार भेद माने हैं-पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत। संक्षेप में इनका लक्षण यह है कि-
‘‘पदस्थं मंत्रवाक्यस्थं पिण्डस्थं स्वात्मचिंतनम्।
रूपस्थं सर्वचिद्रूपं रूपातीतं निरंजनम्।।’’
अनेक मंत्र वाक्यों का ध्यान करना पदस्थ ध्यान है, अपनी आत्मा का चिंतवन करना पिंडस्थ ध्यान है, जिसमें सर्व चिद्रूप का चिंतवन हो अथवा जिसमें अर्हंत भगवान के स्वरूप का चिंतवन हो वह रूपस्थ ध्यान है और निरंजन परमात्मा का अर्थात् सिद्ध परमात्मा का जो ध्यान है, वह रूपातीत ध्यान है।
ध्यान को रोकने वाले बाधक कारण ध्यान के प्रतिबंधक कहलाते हैं, वे मोह, राग और द्वेष इन तीन भागों में विभाजित हैं। शुद्ध आत्मा आदि तत्त्वों में विपरीत अभिप्राय को उत्पन्न करने वाला जो मोह है वह दर्शन मोह है जो कि मिथ्यात्व रूप है। इसे ही ‘‘मोह’’ शब्द से जानना चाहिए। यह मोह सतत पर में अपनेपन की बुद्धि को कराने वाला है अत: मूलरूप में यही अनंत संसार का कारण है। निर्विकार निज आत्मानुभव रूप वीतराग चारित्र है, उसको रोकने वाला जो चारित्रमोह है, वह राग और द्वेष इन दो रूप वाला है। यहाँ प्रश्न यह होता है कि चारित्र मोह राग, द्वेष रूप कैसे है ? उसका उत्तर यह है कि चारित्र मोह की कषायों में क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार भेद हैं। उनमें से क्रोध और मान ये दो कषाय द्वेष के अंग हैं और माया तथा लोभ ये दोनों कषाय राग के अंग हैं। नव नोकषायों में स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य और रति ये पाँच कषायें तो रागरूप हैं और अरति, शोक, भय, जुगुप्सा ये चार कषायें द्वेषरूप हैं। इस प्रकार ये पच्चीस कषायें राग और द्वेष इन दो रूप में विभाजित हो जाती हैं।
प्रश्न – रागादि भाव कर्मों से उत्पन्न हुए हैं या जीव से ?
उत्तर – जैसे पुत्र माता और पिता दोनों के संयोग से उत्पन्न होता है अथवा जैसे चूना और हल्दी इन दोनों के मूल से लाल रंग बन जाता है उसी प्रकार जीव और कर्म इन दोनों के संयोग से ही राग-द्वेष आदि भाव उत्पन्न होते हैं। जब नयों की विवक्षा लगाते हैं तब विवक्षित एकदेश शुद्ध निश्चयनय से यह विभाव भाव कर्म से उत्पन्न हुए कहलाते हैं और अशुद्ध निश्चयनय से ये जीव से उत्पन्न हुए कहलाते हैं क्योंकि इनका उपादान कारण जीव ही है। यह अशुद्ध निश्चयनय शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा व्यवहारनय ही है।
प्रश्न – साक्षात् शुद्ध निश्चयनय से ये राग द्वेष किसके हैं ?
उत्तर – शुद्ध निश्चयनय से ये रागद्वेष आदि विभाव भाव हैं ही नहीं, क्योंकि इस नय से तो जीव सदा काल शुद्ध ही है। जैसे-स्त्री-पुरुष के संयोग बिना पुत्र की उत्पत्ति नहीं होती है, वैसे ही जीव और कर्म इनके संयोग बिना राग-द्वेष आदि भाव नहीं होते हैं। शुद्ध निश्चयनय संयोगज अवस्था को देखता ही नहीं है इसीलिए ये रागद्वेष न केवल कर्मजनित हैं न जीवजनित प्रत्युत दोनों से उत्पन्न हुए हैं और इनको कहने वाला अशुद्धनय ही है न कि शुद्धनय। इस प्रकार से ध्याता, राग द्वेष आदि से मन को हटाकर धर्मध्यान का अवलंबन लेता है। यहाँ पर ध्यान के अनेक भेद बतलाये हैं, वे सब विचित्र ध्यान हैं।
इन पिण्डस्थ आदि ध्यानों में सबसे सरल पदस्थ ध्यान है उसी को यहाँ आचार्यदेव कहते हैं-
परमेष्ठी के वाचक पैंतिस, अक्षरयुत महामंत्र शाश्वत।
सोलह छह पाँच चार दो औ, एकाक्षर ॐ अकारादिक।।
गुरु के उपदेशों से बहुविध, के अन्य मंत्र को भी पाकर।
नित जाप करो तुम ध्यान करो, जैसे हो मन स्थिरता कर।।४९।।
परमेष्ठी के वाचक पैंतीस, सोलह, छह, पाँच, चार, दो और एक अक्षर वाले मंत्रों का तथा गुरु के उपदेश से अन्य भी मंत्रों का तुम जाप करो और ध्यान करो। यहाँ इन मंत्रों में से कुछ मंत्र दिये जाते हैं। वैसे तो इस णमोकार मंत्र से ८४ लाख मंत्र निकलते हैं अथवा सम्पूर्ण द्वादशांग इस मंत्र में भरा हुआ है।
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।।
इस महामंत्र में ३५ अक्षर हैं। इसकी एक जाप्य करने से एक उपवास का फल कहा है फिर जो इसका ध्यान करते हैं वे महाफल प्राप्त कर लेते हैं।
१६ अक्षरी मंत्र – अरिहंत सिद्ध आइरिय उवज्झाय साहू।
६ अक्षरी मंत्र – अरिहंत सिद्ध। ॐ नम: सिद्धेभ्य:।
५ अक्षरी मंत्र – अ सि आ उ सा।
२ अक्षरी मंत्र – सिद्ध, अर्हं।
१ अक्षरी मंत्र – ‘अ’ अथवा ॐ।
यह ‘ओम्’ शब्द पंचपरमेष्ठी का वाचक है। अरिहंत का ‘अ’, सिद्ध अशरीरी होते हैं अत: अशरीरी का ‘अ’ इस प्रकार अ±अ ‘समान: सवर्णे दीर्घी भवति परश्च लोपम्’ सूत्र के अनुसार अ±अ·आ बन गया। पुन: आचार्य का ‘आ’, आ ±आ इसी सूत्र से ‘आ’ हो गया। उपाध्याय का उ, आ ± उ मिलकर ‘उवर्णे ओ’ सूत्र से संधि होकर ‘ओ’ हो गया। पुन: साधु से मुनि लेने पर उसका आदि अक्षर म् लेने से ‘ओम्’ बन गया है। इन मंत्र पदों का जाप भी करना चाहिए और ध्यान भी करना चाहिए। ये मंत्रपद मंत्रशास्त्र के सभी पदों में सारभूत हैं। इस लोक तथा परलोक में इष्टफल को देने वाले हैं। इन पदों का अर्थ भी गुरुमुख से समझना चाहिए और उस अर्थ का स्मरण करते हुए इन पदों का जाप्य करना चाहिए। यदि स्थिरता रख सवें तो ध्यान में इन मंत्रों का ध्यान करते हुए ध्यानाभ्यास करना चाहए। ललाट में, हृदय में, नाभि में अथवा अन्य किन्हीं भी उत्तम स्थानों में इन ‘णमो अरिहंताणं’ आदि पदों को स्थापित कर बुद्धि से उन्हें देखने का प्रयत्न करना चाहिए। शुभोपयोग में जो मन-वचन-काय की अशुभ प्रवृत्ति रुक जाती है उस समय धर्मध्यान होता है अथवा तीन गुप्ति से सहित निर्विकल्प ध्यान में शुद्धोपयोग अवस्था में भी इन पाँचों परमेष्ठी का ध्यान होता है। इन मंत्रों के सिवाय अन्य मंत्र भी गुरु के उपदेश से समझकर जपने चाहिए। बारह हजार श्लोक प्रमाण ‘पंच नमस्कार माहात्म्य’ नाम का कोई ग्रंथ है। आज यह ग्रंथ उपलब्ध नहीं है फिर भी ‘णमोकार मंत्रकल्प’ आदि ग्रंथों के आधार से मंत्रों को देखना चाहिए। यद्यपि कई एक मंत्रशास्त्र प्रकाशित हो चुके हैं फिर भी गुरु से ही मंत्र लेकर जाप्य करना उचित है यही शास्त्र की आज्ञा है अन्यथा लाभ के बजाय हानि की संभावना रहती है। इसी प्रकार से लघुसिद्धक, वृहत् सिद्धचक्र इत्यादि पूजन के विधान को दिगम्बर गुरुओं से समझकर उनका भी ध्यान करना चाहिए। यह सब पदस्थ ध्यान का संक्षिप्त स्वरूप कहा है। इस तरह पाँचों इन्द्रिय और मन को वश में करने वाले मुनिगण या श्रावक ध्याता-ध्यान करने वाले हैं। यथावस्थित पदार्थ ध्येय-ध्यान के विषय हैं। एकाग्र होकर जो विचार करना है वह ध्यान है और कर्मों के संवर तथा निर्जरा का होना यह ध्यान का फल है।