श्लोकार्थ—अर्थपद, प्रमाणपद और मध्यमपद ये पद के तीन भेद माने गए हैं। इनमें से मध्यम पद के द्वारा अंग एवं पूर्वों का पदविभाग किया गया है। पद तीन प्रकार के होते हैं-अर्थपद, प्रमाणपद और मध्यमपद। इनमें से अनियत अक्षरों का समूह ‘‘अर्थपद’’ है। जैसे-ग्रंथ को लाओ, देवपूजा करो इत्यादि। आठ अक्षरों के समूह को ‘‘प्रमाणपद’’ कहते हैं। यथा—अनुष्टुप् छंद के एक-एक चरण में आठ-आठ अक्षर होते हैं इत्यादि। मध्यमपद के अक्षरों का प्रमाण सर्वकाल (हमेशा) निश्चित ही रहता है। कहा भी है-परमागम में अंग पूर्वों की पदसंख्या मध्यम पदों के द्वारा ही बतलाई गई है। उस एक मध्यमपद के अक्षरों का प्रमाण कहते हैं-
गाथार्थ-सोलह सौ चौंतीस करोड़ तिरासी लाख सात हजार आठ सौ अठासी अक्षरों का एक मध्यम पद होता है।।३३६।। अर्थात् एक मध्यमपद में सोलह सौ चौंतीस करोड़ तिरासी लाख सात हजार आठ सौ अठासी अक्षर होते हैं। इस प्रकार से द्वादशांग के समस्त पदों की संख्या कहते हैं-
गाथार्थ-द्वादशांग के सब मध्यम पदों का प्रमाण एक सौ बारह करोड़ तिरासी लाख अठावन हजार पाँच है। अर्थात् ११२८३५८००५ पद द्वादशांग में होते हैं ऐसा अभिप्राय है।।३५०।। अब अंगबाह्य के अक्षरों की संख्या कहते हैं-
गाथार्थ-प्रकीर्णक अर्थात् सामायिक आदि चौदह अंग बाह्यों के अक्षर आठ करोड़ एक लाख आठ हजार एक सौ पिचहत्तर प्रमाण होते हैं।।३५१।। अर्थात् ८०१०८१७५ अक्षर प्रकीर्णक-अंगबाह्य में होते हैं ऐसा अर्थ हुआ। इतने अक्षरों से मध्यमपद नहीं होते हैं अतएव इतने अक्षरों के द्वारा अंग पूर्व की पदसंख्या नहीं बनती है, इसी कारण इन अक्षरों के द्वारा ग्रथित—गूूँथे गये-वर्णित किए गए श्रुत की ‘अंगबाह्य’ संज्ञा मानी गई है। इस अंगबाह्य के चौदह भेद हैं- सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प, महाकल्प, पुण्डरीक, महापुण्डरीक और निषिद्धिका ये चौदह भेद अंगबाह्य के हैं।