अयोध्या नगरी में विजय राजा के पुत्र सुरेन्द्रमन्यु थे। सुरेन्द्रमन्यु की रानी का नाम कीर्तिसमा था। इनके वज्रबाहु और पुरंदर ये दो पुत्र हुए। हस्तिनापुर के राजा इभवाहन की रानी चूड़ामणि के मनोदया नाम की सुन्दर कन्या थी और उदयसुन्दर नाम का पुत्र था। कन्या के युवती होने पर राजा ने अयोध्या के राजपुत्र वज्रबाहु के साथ उसका विवाह कर दिया। कदाचित् भ्राता उदयसुन्दर बहन मनोदया को लेने के लिए अयोध्या पहुँचे। मनोदया के साथ वज्रबाहु भी चलने के लिए उद्यत हो गए। ये सभी लोग बड़े वैभव के साथ हस्तिनापुर की ओर आ रहे थे। मार्ग में अनेक पड़ाव डालते थे और वन की शोभा देखते हुए प्रसन्न हो रहे थे। चलते-चलते उनकी दृष्टि एक वसंत नाम के पर्वत पर पड़ी। वज्रबाहु आगे बढ़े, वहाँ पर्वत पर एक शिला पर महामुनि ध्यान कर रहे थे, वज्रबाहु एकटक उनकी ओर देखते हुए कुछ सोच रहे थे, तभी उदयसुन्दर ने मुस्कुराकर हँसी करते हुए कहा- ‘‘आप इन मुनिराज को बड़ी देर से देख रहे हैं सो क्या आप इस दीक्षा को लेना चाहते हैं ?’’ इतना सुनते ही वज्रबाहु ने अपने मनोभाव छिपाकर पूछा- ‘‘हे उदय! तुम्हारा क्या भाव है सो तो कहो।’’ उसे अन्तर से विरक्त न जानकर उदयसुन्दर ने व्यंग्यपूर्वक हँसते हुए कहा- ‘‘यदि आप इस दीक्षा को ग्रहण करते हैं तो मैं भी आपका सखा बन जाऊँगा। अहो कुमार! आप इस मुनिदीक्षा से बहुत अच्छे दीखोगे।’’ वज्रबाहु ने कहा- ‘‘तथास्तु-ऐसा ही हो।’’ इतना कहकर वे हाथी से उतरकर पर्वत पर चढ़ गए। तब मनोदया आदि स्त्रियाँ जोर-जोर से रोने लगीं। उसी समय उदयसुन्दर ने कहा- ‘‘हे देव! प्रसन्न होओ, यह क्या कर रहे हो ? मैंने तो हँसी की थी।’’ तब मधुर शब्दों में सान्त्वना देते हुए वज्रबाहु ने उदयसुन्दर से कहा- ‘‘हे महानुभाव! मैं संसार रूपी कुंए में गिर रहा था सो तुमने निकाला है। तीनों लोकों में तुम्हारे समान दूसरा कोई मेरा मित्र नहीं है। हे सुन्दर! संसार में जो उत्पन्न होता है उसका मरण अवश्य होता है….हे भद्र! तेरी हँसी भी मेरे लिए अमृत के समान हो गई। क्या हँसी में पी गई औषधि रोग को नहीं हरती ? लो अब मैं दीक्षा लेता हूँ। तुम अपने अभिप्राय के अनुसार कार्य करो ।’’ इतना कहकर वे गुणसागर मुनिराज के पास गये और इन्हें नमस्कार कर दीक्षा याचना की। मुनिराज ने भी उसके इस कार्य को सराहा। तत्क्षण ही वज्रबाहु विवाह सम्बन्धी वस्त्राभूषण त्याग कर पद्मासन से बैठ गया और गुरु की आज्ञा के अनुसार केशलोंच करने लगा। उसे दीक्षा लेते देख उदयसुन्दर का हृदय भी वैराग्य से भर गया। उसके साथ अन्य २५ राजकुमारों ने भी मुनिराज को नमस्कार कर जैनेश्वरी दीक्षा ले ली । यह दृश्य देखकर भाई के स्नेह से भीरु मनोदया१ ने भी बहुत भारी संवेग से युक्त हो आर्यिका दीक्षा ले ली। आगे चलकर इस मनोदया आर्यिका ने बहुत ही तपश्चरण किया है। अस्नान व्रत को पालन करने वाली इस आर्यिका का शरीर पसीने और धूलि से मलिन हो रहा था किन्तु धर्मध्यान के प्रभाव से इसका अन्तरंग निर्मल हो गया था। इस प्रकार अनेक आर्यिकाओं के साथ मनोदया ने अपनी स्त्री पर्याय को छेद करने वाला ऐसा संयम धारण कर अपना जीवन सफल बनाया था ।
गणिनी आर्यिका वरधर्मा
वैजयंतपुर के राजा पृथ्वीधर की सभा में एक दूत आया और उसने पत्र दिया। पत्र को पढ़कर राजा ने समझा कि नंद्यावर्त नगर का राजा अतिवीर्य अयोध्या पर चढ़ाई करने जा रहा है। उसने सहायता के लिए मुझे बुलाया है। दूत को एक तरफ भेजकर पृथ्वीधर ने राम-लक्ष्मण से परामर्श किया चूँकि ये लोग वनवास के प्रसंग में इस समय यहीं ठहरे हुए थे। इन राजा की पुत्री वनमाला से लक्ष्मण का विवाह किया गया था। राजा से गुप्त मंत्रणा कर रामचन्द्र स्वयं लक्ष्मण और सीता को साथ लेकर बहुत से जनों के साथ वहाँ से निकले और स्वयं गुप्त वेष में ही भरत का उपकार करना उचित समझा। रामचन्द्र ने रास्ते में चलते हुए एक जगह डेरा डाला और वहाँ रात्रि सुख से व्यतीत की, दूसरे दिन डेरे से निकलकर राम ने एक जिनमन्दिर देखा जिसमें आर्यिकाओं का संघ ठहरा हुआ था। भीतर प्रवेश कर जिनप्रतिमाओं के दर्शन करके आर्यिकाओं को नमस्कार किया। वहाँ आर्यिकाओं में प्रमुख ‘वरधर्मा’ नाम की गणिनी थीं। उनके पास में सीता को रखा तथा सीता के पास ही अपने सब शस्त्र छोड़े। तदनन्तर राम, लक्ष्मण ने गुप्तरूप से नर्तकियों का वेष बनाया और नंद्यावर्त महल में राजा अनन्तवीर्य की सभा में पहँुच गए। वहाँ सभा में नृत्य देखने के लिए नगर के बहुत ही स्त्री-पुरुषों की भीड़ इकट्ठी हो गई। नृत्य करते हुए इन दोनों नर्तकियों ने कुछ क्षण बाद राजा भरत की प्रशंसा करते हुए अनन्तवीर्य से कहा कि ‘‘तुम उससे युद्ध करके अपने प्राण मत गंवाओ।’’ अनन्तवीर्य ने कुपित होकर इनको मारने के लिए तलवार उठाई कि इन्होंने तलवार छीनकर अनंतवीर्य को जीवित ही बाँध लिया और बोले-‘‘यदि तुम लोगों को अपना जीवन प्रिय है तो राजा भरत की शरण लेवो और अनंतवीर्य का पक्ष छोड़ दो।’’ इतना कहकर ये नर्तकी वेषधारी महापुरुष अनंतवीर्य को साथ लेकर अपने हाथी पर सवार हो अपने परिजन के साथ वहाँ से चलकर जिनमंदिर में आ गए, जहाँ सीता को छोड़कर गए थे। जिनमंदिर में भगवान की पूजा करके राम ने सीता के साथ सर्व संघ के मध्य विराजमान गणिनी वरधर्मा आर्यिका की बड़ी भक्ति से पूजा की१। अनंतर श्रीराम ने अनंतवीर्य को लक्ष्मण के हाथों में सौंप दिया। लक्ष्मण उसका वध करना चाहते थे कि सीता ने मधुर शब्दों में समझाकर उसे छोड़ने को कहा। तब लक्ष्मण ने भावज की आज्ञा से अनंतवीर्य को बंधन मुक्त कर दिया । इस घटना से अनंतवीर्य को वैराग्य हो गया। उसने उन महापुरुषों की प्रशंसा कर मुकुट उतार दिया और वन में जाकर श्रुतधर मुनिराज के समीप जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली। जब भरत को यह समाचार मिला, तब उन्होंने मन में सोचा- ‘‘क्या कोई शासन देव ने ऐसा प्रच्छन्न कार्य किया है या किसने किया है ?’’ जो भी हो भरत महाराज अपने परिवार के साथ वहाँ आकर अनंतवीर्य को नमस्कार कर उनकी स्तुति करके प्रसन्न हुआ । उधर अनंतवीर्य के पुत्र विजयरथ ने भरत का अनुशासन स्वीकार कर अपनी बहन विजयसुन्दरी भरत को समर्पित करके भरत का बहुत ही सम्मान किया। इस कथानक से यह विदित होता है कि उस काल में आर्यिकाओं के संघ जिनमंदिर में ठहरते थे और बलभद्र रामचन्द्र जैसे महापुरुष भी उनकी पूजा किया करते थे अत: आर्यिकायें सभी के द्वारा पूजा के योग्य हैं।
गणिनी आर्यिका अनुद्धरा
एक समय पद्मिनी नगरी में मतिवर्धन नाम के महातपस्वी दिगम्बर आचार्य अपने चतुर्विध संघ सहित आये। वहाँ गाँव के बाहर वसंततिलक नाम के बगीचे में ठहर गए। इनके संघ में बहुत ज्ञानी, ध्यानी, स्वाध्याय प्रेमी और तपस्वी मुनिराज थे तथा आर्यिकायें भी अपने अनुकूल व्रत, संयम को पालते हुए ज्ञान, ध्यान के अभ्यास में तत्पर थीं। इन आर्यिकाओं की गणिनी अनुद्धरा२ नाम की आर्यिका थीं। वहाँ का राजा विजयपर्वत इस महान संघ के दर्शन करने के लिए आया। संघ के नायक आचार्य से अपनी अनेक शंकाओं का समाधान किया, पुन: विरक्त हो अपना राज्यपाट छोड़कर जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। इस कथानक से ज्ञात होता है कि चतुर्थकाल में आचार्यों के संघ में आर्यिकाओं का समूह भी रहा करता था। तभी तो चतुर्विध संघ की व्यवस्था चलती थी। मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका ये चतुर्विध संघ कहलाता है।
आर्यिका मन्दोदरी
रावण की मृत्यु के बाद इन्द्रजीत और मेघवाहन दोनों पुत्रों ने जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। तब रानी मन्दोदरी को शोक में विह्वल देख आर्यिका शशिकांता ने उसे उत्तम वचनों से समझाकर प्रतिबोधित किया। उस समय परम संवेग को प्राप्त हुई रानी मन्दोदरी ने तथा रावण की बहन चन्द्रनखा ने उन्हीं शशिकांता आर्यिका के पास एक श्वेत साड़ी धारण कर आर्यिका दीक्षा ले ली। उसी दिन वहीं लंका में उन्हीं आर्यिका के पास ४८ हजार स्त्रियों ने आर्यिका दीक्षा धारण की थी। कथा का सन्दर्भ यह है कि रावण की मृत्यु के अनंतर उसी दिन सायंकाल में वहीं पर ५६००० आकाशगामी१ मुनियों का संघ आ गया था। उस संघ के आचार्य श्री अनंतवीर्य महामुनि थे। इन्हें उसी रात्रि में केवलज्ञान उत्पन्न हो गया था तब देवों ने आकर गंधकुटी की रचना की थी। ये शशिकांता शायद उन्हीं के समवसरण में आर्यिकाओं की गणिनी हो सकती हैं। इनकी योग्यता विशेष से ही मंदोदरी आदि ४८००० महिलाओं ने इनके पास संयम धारण किया था। आर्यिका दीक्षा को संयम शब्द से कहा है। यथा ‘मन्दोदरी संयता, संयममाश्रितानि’ आदि। इससे स्पष्ट है कि आर्यिकायें संयमिनी मानी गई हैं।
आर्यिका केकयी
भगवान देशभूषण केवली के समवशरण (गंधकुटी) में श्री भरत ने जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली। तभी भरत के अनुराग से प्रेरित हो कुछ अधिक १००० (एक हजार) राजाओं ने क्रमागत राज्यलक्ष्मी का परित्याग कर मुनि दीक्षा ले ली। उस समय माता केकयी शोक से विह्वल हो रही थी। श्रीराम और लक्ष्मण ने उसे बहुत कुछ समझाया तब कुछ शांत होकर संवेग को प्राप्त हुई केकयी२ ने निर्मल सम्यक्त्व को धारण करती हुई तीन सौ स्त्रियों के साथ पृथ्वीमती आर्यिका के पास दीक्षा धारण कर ली। भगवान देशभूषण की सभा में एक तरफ तो महातेजस्वी मुनियों का समूह विद्यमान था और दूसरी ओर श्वेत साड़ियों से आवृत आर्यिकाओं का समूह विद्यमान था। इन चतुर्विध संघ से युक्त वह सभा बहुत ही सुन्दर दिख रही थी।
”आर्यिका बन्धुमती”
हनुमान ने धर्मरत्न नामक मुनिराज के पास दीक्षा ले ली। ये मुनिराज अनेक आकाशगामी मुनि एवं चारण ऋद्धियों से आवृत थे। उसी समय वैराग्य और स्वामिभक्ति से प्रेरित हो ७५० विद्याधर राजाओं ने अपने-अपने पुत्रों को राज्य देकर मुनिपद धारण कर लिया। तब हनुमान की रानियों ने तथा अन्य भी राजस्त्रियों ने गणिनी आर्यिका बन्धुमती जी के पास जाकर भक्तिपूर्वक उन्हें नमस्कार कर उनकी उत्तम विधि से पूजा की, तदनंतर उन्हीं के पास आर्यिका दीक्षा धारण कर ली।
आर्यिका सीता
सीता ने अग्निपरीक्षा के बाद पृथ्वीमती आर्यिका के पास दीक्षा ले ली। इनका वर्णन पहले सीताजी के परिचय में किया जा चुका है ।
”गणिनी आर्यिका श्रीमती”
जब श्रीराम ने आकाशगामी महामुनि सुव्रत आचार्य के समीप निग्र्रन्थ दीक्षा ले ली। यह मुनिसंघ बहुत विशाल था। इसमें हजारों निग्र्रन्थ मुनि विद्यमान थे। शत्रुघ्न, विभीषण, सुग्रीव, नील, चन्द्रनख, नल, क्रव्य और विराधित आदि राजाओं ने दीक्षा ले ली। उस समय कुछ अधिक सोलह हजार राजा साधु हुए थे और सत्ताईस हजार (२७०००) प्रमुख स्त्रियाँ श्रीमती नामक आर्यिका के पास आर्यिका हो गईं । यहाँ आर्यिकाओं को श्रमणी कहा है। इससे विदित होता है कि आर्यिकायें भी श्रमणचर्या को पालन करने से ‘महाव्रती श्रमणी’ कहलाती हैं।