भारतीय ललित कलाओं में संगीत, वास्तु और चित्रकला प्रमुख है। संगीत कला का सूक्ष्म विवेचन और विश्लेषण जैन आचार्यों ने अपने ग्रंथों में प्रसंग अनुसार समावेशित किया है। संगीत कला पर जिस गम्भीरतम विषय का प्रस्तुतिकरण, पद्म पुराण में उपलब्ध होता है वह अपने आप में अनूठा है। आचार्य रविषेण की संगीत कला की प्रोैढ़ता की प्रस्तुत ग्रंथ में झलक दिखती है। पद्मपुराण ग्रंथ भगवान राम के चरित्र का संस्कृत भाषा में श्रेष्ठ ग्रंथ है। सातवीं शताब्दी के इस ग्रंथ की संस्कृत के सर्वोत्कृष्ट चारित्रधाम महाकाव्यों में गणना होती है। इस पुराण में काव्यकला, मनोविश्लेषण, चरित्र चित्रण आदि इतना अद्भुत है कि इसकी तुलना किसी अन्य पुराण काव्यों से नहीं की जा सकती है। पद्मपुराण के २४ वें पर्व में केक़ैई की कला निपुणता को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए आचार्य रविषेण ने श्लोक ६ से ३५ तक संगीत कला का गहन विषय प्रस्तुत किया है। यह भी कहा जा सकता है कि मात्र २९ श्लोकों में सगीत शास्त्र का सार ही परोसा गया है। संगीत के अन्तर्गत गाना, बजाना और नाचना तीन बातें विशेष तौर पर देखी जा सकती हैं अथवा यह भी कह सकते हैं कि संगीत शास्त्र की तीन शाखायें हैं — नृत्य शाखा, गायन शाखा, वादन शाखा। नृत्य शाखा के अन्तर्गत अंगहाराश्रय, अभिनयाश्रय और व्यायामिक मुख्य इन तीन भेदों को उल्लेख करते हुये अवान्तर अनेक भेदों का संकेत देते हुए यह कहा गया कि क़ैकेयी मुख्य अवान्तर सभी कलाओं को जानती थी। षडज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम , धैवत और निषाद इन सात स्वरों की उत्पत्ति के तीन स्थान वर्णित किये गये हैं। वे कंठ, सिर और उरस्थल इन स्थलों से अभिव्यक्त होते हैं। लय और ताल का विवेचन करते हुए कहा गया है कि लय तीन प्रकार की होती हैं , द्रुत लय, मध्यम लय और निलम्बित लय। लय ताल पर ही निर्भर करती है। विलम्बित लय वह है जिसमें बोलों के बीच लगभग दो सेकेण्ड का अन्तर पाया जाता है।मध्यम लय मध्यम गति से बजने वाली लय को कहते हैं । द्रुत लय का अर्थ होता है तेज लय । तपाल के बोलों के बीच जब आधे सेकेण्ड का अन्तर पाया जाता है तब उसे द्रुत लय कहा माना जाना चाहिए। ताल की जाति दो प्रकार की मानी गयी है— अस्र और चतुरस्र। जब वादक चार मात्राओं का आस्रय लेता है तो उसे चतुरस्रजाति कहते हैं। अस्र के अन्तर्गत ३,५,७,९ मात्राओं का आश्रय लेने वाले को अस्र जाति कहते हैं।
अलंकार और आचार्य रविषेण—आचार्य रविषेण ने संगीत के अलंकारों का वर्ण शब्द से संबोधित करते हुए उल्लेख किया है। इसी को आलाप भी कहते हैं। विशिष्ट वर्ण शब्द समुदाय अथवा नियमबद्ध स्वरसमुदायों को स्वर अलंकार कहते हैं । अलंकारों को पलटा भी कहते हैं। इनके चार विभाग होते हैं। स्थायी, आरोही, अवरोही और संचारी । प्रतिपादिक तिगङत उपसर्ग और निपातों में संस्कारों को प्राप्त संस्कृत , प्राकृत, शौरसेनी ये तीन भाषा होती हैं। इन भाषाओं का संगीत में बहुत महत्व होता है।
संगीत और जातियाँ
संगीत में दस अथवा आठ जातियों का उल्लेख प्राप्त होता है । इन्हें और आगे कहे जाने वाले अलंकारों से संगीत का भव्य प्रसार निर्मित होता है— धैवती, आर्षभी, षड्ज—षड्ज, उदीच्या, निषादिनी, गांधारी, षड्ज कैकशी, और षड्ज मध्यमा ये आठ जातियाँ हैं अथवा गान्धारोदीच्या, मध्यमपंचमी, गान्धार पंचमी, रक्त गंधारी, मध्यमा, आन्ध्री मध्यमोदीच्या, कर्मारवी, नन्दिनी और कौशिकी ये दश जातियाँ हैं।
स्थायी पद के प्रकार
जब गायक अपने स्वर से राग का आलाप शुरु करता है । एक—एक स्वर को बढ़ाते या घटाते हुए मन्द या मध्यम सप्तक में इसका चलन होता है इसे स्थायी पद कहते हैं । स्थायी अलंकार के चार प्रकार होते हैं— प्रसन्नादि, प्रसन्नान्त मध्यप्रसाद और प्रसन्नाद्यवसान।
आरोही अलंकार – ‘स’ से लेकर ‘नि’ तक आगे बढ़ने को आरोही अलंकार कहते हैं। इस अलंकार का एक ही प्रकार है इसका नाम प्रसन्नादि है।
अवरोहि अलंकार – ‘नी’ से लेकर ‘सा’ तक उतरते हुये क्रम से अलाप करने को अवरोही अलंकार कहते हैं। इसके दो प्रकार होते हैं एक प्रसन्नान्त दूसरा कुहर।
संचारी अलंकार – इस अलंकार के अन्तर्गत ऊपर दिये तीनों अलंकारों को मिलाने से संचारी अलंकार की उत्पत्ति होती है। इस अलंकार के छह प्रकार होते हैं । निवृत्त, प्रस्थित, बिन्दु, प्रखोलित, तार—मन्द्र और प्रसन्न इस तरह से संचारी अलंकार के प्रकार पद्मपुराण में वर्णित हैं आचार्य रविसेन जी ने सम्पूर्ण अलंकारों के तेरह भेद उल्लेखित किये हैं।
पद्मपुराण में वर्णित वाद्ययंत्र- पद्मपुराण में वाद्य यंत्रों का वर्णन लाक्षणिक रूप से वर्णित है। तंत्री अर्थात् वीणा से उत्पन्न होने वाला वाद्य तत् कहलाता है। मृदंग से उत्पन्न होने वाला वाद्य अवनद्ध कहलाता है। बांसुरी से उत्पन्न होने वाला शुषिर वाद्य कहा जाता है और ताल से उत्पन्न होने वाले वाद्य को घन कहते हैं। इस प्रकार चार प्रकार के मुख्य वाद्य और अनेक प्रकार के वाद्य यंत्रों को कैकेयी अच्छी तरीके से बजाना जानती थी। उसकी समानता करने वाला कोई दूसरा व्यक्ति नहीं था। इस प्रकार से चौबीसवें पर्व में वर्णन उपलब्ध है।
नाट्य लक्षण
गीत नृत्य और वादित्र इन तीनों का एक साथ होना नाट्य कहलाता है। शृ्रंगार, हास्य, करुणा, वीर, अद्भुत, भयानक, रौद्र, वीभक्त और शांत ये नौ रस कहे गये हैं । नाट्य के नौ रसों का अनेक आवन्तर भेदों के साथ नाट्य कला में वैकेयी निपुण थी। इस प्रकार आचार्य रविसेन द्वारा पद्म—पुराण में संगीत की विभिन्न लाक्षणिक विशेषताएं दृष्टिगोचर होती है। जिससे यह ज्ञात होता है कि आचार्य रविषेणजी संगीत कला के विशिष्ट — पारंगत विद्वान थे।