किसी बड़े किले के अंदर एक गरीब लाचार नेत्रहीन भिक्षुक फस गया था। वह बेचारा अंधा वहाँ से बाहर निकलना चाहता था, परन्तु बहिरद्वार को नहीं जानता था अत: बहुत दुखी था। वहाँ से गुजरने वाले हर व्यक्ति से बाहर अपने को ले जाने के लिए आग्रह कर रहा था लेकिन सब अपने-अपने कामों में व्यस्त होने से उसकी विनती को सुनकर भी अनसुनी कर रहे थे। उस अंधे की याचना जारी रही। अंतत: एक बालक को उस अंधे पर दया आई।
वह पास आया और कहा ‘बाबा! मैं आपकी मदद करना चाहता हूँ, मगर मेरे पास इतना समय नहीं कि मैं आपका हाथ पकड़कर आपको इस बड़े किले के बाहर छोड़ आऊँ। पर ये किला गोल होने के कारण मैं आपको इस किले की दीवार स्पर्श करा देता हूूँ। आप इसको स्पर्श करते-करते वहाँ तक पहुँच सकते हैं, जहाँ इस किले का बहिरद्वार है। बालक की मदद से वह नेत्रहीन व्यक्ति दीवार को स्पर्श करता हुआ उस दरवाजे तक पहुँचने वाला ही था, तब अचानक उसके हाथ में खुजली हुई।
वह एक हाथ से दूसरे हाथ को खुजलाते हुए आगे निकल गया। थोड़ी दूर दीवार के स्पर्श के बिना ही आगे निकल गया। फिर दीवार को स्पर्श करते हुए आगे बढ़ रहा था। ठीक उसी तरह हम भी इस संसाररूपी भंवर में फसे हुए हैं। यहाँ से निकलना चाहते हैं। कई आचार्य एवं शास्त्र ग्रंथ हमें इस संसार से निकालने का मार्ग बताते भी हैं लेकिन इस नेत्रहीन आदमी के जैसे हम भी उन तत्त्वों को समझकर सही ढंग से अमल में लाने में असफल रहे हैं। फलस्वरूप पुन: पुन: इस भवजलधि में गोते खाते रहते हैं। एक आचार्य कहते हैं-
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनं
धन्य है वह आत्मा, जिसने एक बार गुरुपदेश सुनकर अपनी आत्मा की उन्नति के लिए ‘आत्मार्थे पृथ्वीं त्यजेत’ रूपी ध्येय वाक्य को अमल में लाते हुए इस दु:खभरे संसार को त्यागकर वैराग्यपथ को अपनाया। इस शृँखला में हम सबके समक्ष अटूट रूप से निखरने वाला नाम है परमपूज्य विदुषी ज्ञानमती माताजी का दिव्य नाम।
संसार से विरक्त होकर अपनी अठारहवीं साल की यौवनावस्था में ही इन्होंने दीक्षा ग्रहण करके वैराग्य पथ में पदार्पण किया एवं अपने कठिन आचरण द्वारा ज्ञान एवं ध्यान दोनों में सफलता पाने हेतु सार्थक साधक के रूप में निखरती हुई आज अतुलनीय स्थान प्राप्त कर चुकी हैं। संस्कृत साहित्य के अलंकार शास्त्र में अनन्योपमालंकार नाम का एक अलंकार वर्णित है।
इसका मतलब है ‘‘एक प्रसिद्ध वस्तु, जिसकी उपमा देने के लिए कोई दूसरी वस्तु नहीं मिलती, उस वस्तु की वही उपमा होती है’ उसे अनन्योपमालंकार कहते हैं। उदाहरणार्थ-गगनं गगनाकारं, सागरं सागरोपम:। अर्थात् आकाश आकाश के समान है एवं सागर को सागर ही उपमा है। ठीक इसी तरह आज पूरे भारतवर्ष में परम विदुषी ज्ञानमती माताजी तुल्य अन्य कोई विदुषी का मिलना दुर्लभ है अत: ज्ञानमती माताजी स्वयं ही स्वयं की उपमा बन गर्इं है। हिन्दी साहित्य में एक कहावत है।
‘‘अगर योगी के पास रहकर योगी न बनो तो कोई बात नहीं, कम से कम उपयोगी अवश्य बनो’’ लेकिन यह कहावत पूज्य ज्ञानमती माताजी के विषय में गलत साबित होती हुई दिखाई देती है क्योंकि ये साध्वी जी तो योगियों के संगत में रहकर खुद भी योगी बन गर्इं। इतने में तृप्त न होते हुए समाज की उपयोगी भी बनीं। न केवल समाज की ही उपयोगी, अपितु साक्षात् योगियों की भी उपयोगी बन गर्इं। जी हाँ! आपके द्वारा लिखा हुआ ‘दिगम्बर मुनि’ नामक ग्रंथ जैन समाज एवं मुनियों, साधु-साध्वियों हेतु उपयोगी ग्रंथ माना गया है।
साधु-साध्वियों का आहारदान के लिए
विधान-नवधा भक्ति, आहार देते समय किन-किन बातों को ध्यान में रखना चाहिए, किन-किन प्रकार के विघ्न हो सकते हैं, आदि सारे विचार इसमें वर्णित हैं, जो समाज के लिए बहुत ही आवश्यक विचार हैं और मुनियों के लिए तो यह ग्रंथ भगवद्गीता के समान है क्योंकि इसमें मुनिदीक्षा विधान, मुनियों के २८ मूलगुण, उनकी दिनचर्या, आहार एवं विहार विधान, आवश्यक क्रियाएँ, नित्य एवं नैमित्तिक क्रियाकलाप आदि अत्यमूल्य विचारों का सविस्तार वर्णन है अत: यह ग्रंथ प्रत्येक मुनि को संग्रह योग्य एवं स्वाध्याय योग्य ग्रंथ माना जाता है।
गतसाल दिनाँक ८ फरवरी २००५ को मुझे मद्रास विश्वविद्यालय के जैनॉलाजी विभाग में ‘दिगम्बर मुनि आचार’ इस विषय पर दो विशेष उपन्यास देना पड़ा, उस समय शिवकोटि आचार्य के मूलाराधना, प्रवचनसार, अनगारधर्मामृत, बृहद्दीक्षाविधि, मूलाचार टीका आदि ग्रंथों के साथ-साथ यह ‘दिगम्बर मुनि’ ग्रंथ मेरा प्रधान अध्ययन ग्रंथ बना हुआ था
अत: मैं भी पूज्य ज्ञानमती माताजी से परोक्षरूप से उपकृत हूँ। इस ग्रंथ के अलावा उनकी कलम से अष्टसहस्री आदि कुछ टीका ग्रंथ, त्रिलोक भास्कर, कातंत्र रूपमाला आदि क्लिष्टग्रंथ एवं इन्द्रध्वज, तीस चौबीसी, कल्पद्रुमादि आराधना ग्रंथ तथा बालविकास, जैन बाल भारती आदि लघु कथा ग्रंथ ऐसे कुल मिलाकर लगभग दो सौ से अधिक ग्रंथ प्रकटित होकर माताजी के विराट साहित्य सृजन सामथ्र्य की साक्षी के रूप में उपस्थित हैं।
दिनाँक १३ फरवरी २००६, सोमवार श्री क्षेत्र श्रवणबेलगोला में बाहुबली भगवान के महामस्तकाभिषेक के उपलक्ष्य में ३३ दिगम्बर मुनियों का दीक्षा समारोह था। उस समय इस ‘दिगम्बर मुनि’ ग्रंथ में वर्णित दीक्षा विधान का प्रतिफलन होता हुआ मैंने देखा। अन्तत: अनेक जैन तीर्थों का जीर्णोद्धार करके उन्हें स्वर्णभूमि बनाने में भी सदा तत्पर-महान् उपकारी परम विदुषी, आर्यिकारत्न गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी युग-युग जियें, इससे जैन समाज एवं देश और भी उपकृत होवे, ऐसी शुभाकांक्षा करते हुए मैं अपना आलेख समाप्त करता हूँ।