यह भारत वसुन्धरा प्रारंभ से ही अनेकानेक ऋषि मुनियों की विहार स्थली रही है। जिस प्रकार समय-समय पर इस भूमि पर तीर्थंकरों तथा अन्य महापुरुषों ने जन्म लेकर तथा धर्म का प्रचार-प्रसार कर इस भारतभूमि को अलंकृत किया है, उसी प्रकार महिलाओं ने भी जन्म लेकर अपने सत्कार्यों द्वारा उच्च आदर्श उपस्थित किया है। परमपूज्य गणिनी १०५ आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी जिनके ज्ञान की सुरभि सम्पूर्ण भारतवर्ष में जगह-जगह व्याप्त है। उन्हीं की सुशिष्या परमपूज्य १०५ आर्यिकारत्न श्री आदिमती माताजी हैं। आपका जन्म सन् १९३७ में अजमेर नगर में धर्मनिष्ठ श्रेष्ठी श्री जीवनलाल जी के आँगन में मातुश्री भगवान देवी की पवित्र कुक्षि से एक कन्यारत्न के रूप में हुआ। माता-पिता ने प्यार से आपका नाम अंगूरी बाई रखा। जिस प्रकार अंगूर अंदर और बाहर से एक दम कोमल और मधुर रस से परिपूर्ण होता है। उसी प्रकार आप का हृदय भी कोमल और वात्सल्यरस से परिपूर्ण है। आप अपने माता-पिता की सबसे छोटी संतान हैं। धीरे-धीरे आप कुछ बड़ी हुईं, तो आपको अध्ययन के लिए श्री भाग्य मातेश्वरी कन्या पाठशाला में प्रवेश दिलाया। वहाँ पर आपने प्रवेशिका तक अध्ययन प्राप्त किया, उसके बाद करीब १४ वर्ष की अल्प वय में ही आपका शुभ विवाह हुआ। लेकिन विधाता से आपका ये सुख देखा न गया और करीब १९ वर्ष की अल्प आयु में ही आप वैधव्य अवस्था को प्राप्त हो गर्इं। आप की शुरू से ही धर्म के प्रति अधिक रुचि थी, फिर आपने संसार से विरक्त हो अपने को धर्ममार्ग में लगा दिया। सन् १९५७ में श्रेष्ठी श्री हीरालाल जी (निवाई वाले) परमपूज्य १०८ आचार्यश्री शिवसागर जी महाराज को श्री गिरनार जी की यात्रा के लिए ले जा रहे थे। उस समय समस्त संघ का अजमेर में आगमन हुआ, वहीं पर परमपूज्य १०५ आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी का आपको सानिध्य प्राप्त हुआ। तभी से आपने मन में ये धारण कर लिया कि अब माताजी के साथ ही रहकर धर्म का अध्ययन करूँगी। अत: आपने पूज्य माताजी की छत्रछाया में रहकर धार्मिक अध्ययन प्रारंभ किया तथा माताजी का सानिध्य प्राप्त कर आपका वैराग्य और भी वृद्धिंगत हुआ। सन् १९५८ में एक वर्ष तक आपने आरा बाल आश्रम में रहकर संस्कृत प्रथमा की परीक्षा उत्तीर्ण की।
सन् १९५९ में १०८ आचार्यश्री शिवसागर जी महाराज का चातुर्मास हुआ
चातुर्मास के अंतर्गत ही पूज्य माताजी के पास रहकर आपने न्याय, व्याकरण, सिद्धान्त शास्त्र आदि अनेक साहित्य ग्रंथों का अध्ययन किया। आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज से सुजानगढ़ चातुर्मास में पूज्य माताजी ने आपको दूसरी प्रतिमा के व्रत दिलवाये। आचार्यश्री ने वहाँ से विहार कर दिया। फिर सीकर के लिए प्रस्थान किया। सन् १९६१ में आचार्यश्री का ससंघ चातुर्मास सीकर में हुआ। चातुर्मास के अंतर्गत ही पूज्य माताजी ने आपको नारी जीवन की सर्वोत्कृष्ट आर्यिका दीक्षा दिलायी। आपकी दीक्षा कार्तिक शुक्ला चतुर्थी को हुई। दीक्षा के एक वर्ष पश्चात् ही पूज्य माताजी के साथ आप बंगाल, बिहार, उड़ीसा, कर्नाटक, महाराष्ट्र आदि प्रान्तों की यात्रा करते हुए वापस आचार्यश्री के सानिध्य में आ गईं। दिल्ली में २५००वाँ निर्वाण महोत्सव के पहले पूज्य माताजी की प्रेरणा से आपने गोम्मटसार कर्मकाण्ड की टीका प्रारंभ की, यद्यपि माताजी स्वयं इस कार्य को करने में सक्षम थीं, लेकिन उनकी भावना हर समय अपनी शिष्याओं को ज्ञान क्षेत्र में आगे बढ़ाने की रही, उसके बाद भी आपने समयसार कलश (अमृतचन्द्र स्वामी), पतन से बचिये, रत्नकरण्ड श्रावकाचार आदि ग्रंथों की टीका की और पूज्य माताजी की ही प्रेरणा एवं आशीर्वाद से जब माताजी से सलुम्बर में मिलन हुआ, तो आपने भगवती आराधना ग्रंथ की टीका की। पूज्य माताजी के आशीर्वाद से भगवती आराधना ग्रंथ छप कर भी आ चुका है, आपका स्वास्थ्य ठीक न होने पर भी आप निरन्तर ध्यान, अध्ययन, जप, तप आदि में संलग्न रहती हैं। ईश्वर से यही प्रार्थना है कि आपको स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होता रहे, जिससे जिनवाणी सेवा का कार्य निरन्तर चलता रहे।