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अरूपी आत्मा का त्रैकालिक अन्यवी मूल गुणधर्म, निवकल्प दर्शन (दर्शनोपयोग) है। मूलरूप से सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट (पतित) होते हैं, क्योंकि चक्षुदर्शन अचक्षुदर्शन रूप दर्शनोपयोग से ही चक्षु आदि इन्द्रियों एवं मन के निर्मित से पदार्थ ज्ञान होता है। पदार्थों को देखकर तथा पदार्थों के गुणों को जानकर पुरुष रागममत्व से (परद्रव्य चारित्री) मिथ्याचारित्री होते हैं। इस कारण दर्शनज्ञान चारित्र से भौतिक जड़ पदार्थों की ओर (पतित) भ्रष्ट हुये पुरुष भ्रष्टों में भी भ्रष्ट होने के कारण, अपने से सम्बन्धित होने वाले पुरुषों को भी पर पदार्थों के प्रति भ्रष्ट कर देते हैं। मिथ्याचारित्री कर देते हैं।