दुनियाँ में परमात्मा पूजन से खुश नहीं होता है। लोग ये सोचते हैं कि हम परमात्मा की बहुत पूजन करेंगे, उसके गीत गायेंगे, उसके दर पे सर को झुकायेंगे, उसके लिए उपवास करेंगे, हवन करेंगे तो परमात्मा हमसे प्रसन्न हो जायेगा। लोग ये सोचते हैं कि हम परमात्मा का बैठने का स्थान बनवाएँगे, हम मंदिरों में दान देंगे, हम पंचकल्याणक कराएँगें, हम बड़े—बड़े विधान कराएँगे अनुष्ठान कराऐंगे परमात्मा तो हमसे प्रसन्न हो जायेगा। हम समझते हैं कि हम परमात्मा की प्रतिमा बनवाऐंगे तो वह हमसे प्रसन्न हो जायेगा। परमात्मा की प्रसन्ता इन बाहरी दिखावे की क्रियाओं में नहीं, परमात्मा की न मंदिर बनवाने में रूचि है, परमात्मा की न पूजन चिल्लाने में रूचि है। परमात्मा की न भोग लगाने में रूचि है न संगीत बजाने में रूचि है। ये सब प्रक्रियाएँ तो हृदय को पवित्र करने में साधन मात्र हैं। जब तक हृदय की पवित्रता नहीं होती तब तक हृदय और मन में विषय —वासना—विकार—कामना की योजना चलती ही रहती है लेकिन जैसे ही आत्मशुद्धि का भाव जागृत होता है वैसे ही हृदय पवित्र हो जाता है और एक परमात्मा के रिश्ते की नई नींव तैयार होती है। हृदय को पवित्र बनाने के लिए कुछ नहीं करना है। जो पराई चीजें हमने अपनी मानकर पकड़ रखी हैं उन्हें छोड़ना है। पराया यदि हृदय से हट जाये तो हृदय पवित्र होकर परमात्मा से मिल जाये। जो हृदय परमात्मा से एक बार भी मिल जाता है तो परमात्मा उसे एक दिन अपना जरूर बना लेता है। हमारे अंदर जितनी अधिक निर्मलता आती जाती है परमात्मा अपने कदम हमारी ओर बढ़ाता जाता है। हमारे अंदर जितनी मलिनता का कचरा बढ़ता जाता है, परमात्मा हमसे दूर हटता जाता है। परमात्मा की दुश्मनी है तो मलिनता से है मलिन हृदय वाले को परमात्मा दण्डनीय धारा के तहत सजा और दण्ड भी देता है। परमात्मा की अदालत में कभी अन्याय नहीं हो सकता । धोखाधड़ी का वहाँ रंचमात्र भी काम नहीं है।हृदय की पवित्रता तभी हो सकती है जब हम सभी लोगों के प्रति हार्दिक प्रेम भावनाएँ करते हुए हर प्राणी से प्रेम रखें। दूसरे के छोटे से छोटे दर्द को संत ज्ञानेश्वर की तरह अपना ही दर्द समझें। हृदय की पवित्रता तभी हो सकती है जब हम भगवान राम के, भगवान हनुमान के, भगवान महावीर के आचरण को अपने जीवन में उतारेंगे। परमात्मा शरीर को शुद्ध कर लेने पर खुश नहीं होता, परमात्मा अच्छे कपड़े पहिनने वालों से खुश नहीं होता , अच्छा खाने वालों से खुश नहीं होता। परमात्मा की खुशी अच्छी सोचने वालों में है, अच्छा व्यवहार करने वालों में हैं। इसलिए हमें अपना चिंतन उच्च कोटि का बनाते हुए सद्व्यवहार बनाना चाहिए। चाहे स्वर्ग हो चाहे बैकुण्ठ, चाहे जन्नत हो , चाहे मोक्ष ये सब उन्हीं सज्जन पुरूषों के लिए हैं जो परमात्मा के परम् भक्त हैं। मोक्ष और स्वर्ग बड़े ही स्वच्छ स्थान है। जहाँ मित्रता, एकता, नैतिकता हमेशा रहती है ऐसे स्थान पर परमात्मा ने अपवित्र लोगों को जाने के लिए मना कर दिया है। क्योंकि अपवित्र लोग वहाँ आकर अपनी गंदगी फैलायेंगे जिससे स्वर्ग, मोक्ष भी नरकों की तरह गंदे हो जायेंगे। बाहर शरीर, स्थान भोजन शुद्धि तो दूसरे नम्बर की है। प्रथम नम्बर की शुद्धि हृदय की पवित्रता है यदि हृदय पवित्र होगा तो हृदय से प्रकट होने वाली जितनी भी क्रियाएँ हैं वे सब पवित्र ही होंगी। जितने जितने अंश में हमारे अंदर लोभ नहीं उपजता उतने—उतने अंश में हमारे अंदर शुद्धता बनती है। कषायों के अभाव में हमारे अंदर निर्मलता बनती है। मेरी आत्मा तो परम् पवित्र है लेकिन गंदी दिखाई दे रही है। ये गंदी वस्तु के साथ लिपटने का परिणाम है। यदि कीचड़ में पैर रखा तो यह नामुमकिन है कि हमारा पैर गंदा न हो । आश ही , इच्छा ही वह कीचड़ है। हमें यह मानव जीवन पाकर तपस्या करना चाहिए। सोना जितना अग्नि में तपेगा उतना ही चमकेगा उसी प्रकार ये मानव जितना तपेगा उतना शुद्ध पवित्र होकर परमात्मा से मिलेगा ओर परमात्मा से मिलकर वह परमात्मा ही बन जायेगा।