चार्य श्री योगीन्द्रदेव (१३ वीं शताब्दी में हुए) द्वारा रचित परमात्मप्रकाश ग्रन्थ वास्तव में एक आध्यात्मिक ग्रन्थ होने के साथ ही ज्ञानपिपासुओं के लिए विशेष स्वाध्याय योग्य ग्रन्थ है। उस परमात्मप्रकाश के मंगलाचरण में आचार्यश्री कहते हैं—
जे जाया झाणग्गियएँ कम्मकलंक डहेवि।
मिच्च णिरंजण णाणमय ते परमप्प णवेवि।।१।।
अर्थात् जो भगवान ध्यानरूपी अग्नि से पहले कर्मरूपी कलंक—मैल को भस्म करके नित्य, निरंजन और ज्ञानमयी सिद्ध परमात्मा हुए हैं उन सिद्धों को नमस्कार करके मैं परमात्मप्रकाश ग्रन्थ कहता हूँ।
अपभ्रंश भाषा के इस दोहा छन्द में श्रीयोगीन्द्रदेव ने जिस ध्यानावस्था से समन्वित परमात्माओं को नमन किया है, श्री ब्रह्मदेव सूरि ने अपनी संस्कृत टीका में उस घटना का वर्णन करते हुए लिखा है कि—
‘‘ध्यानशब्देन आगमापेक्षया वीतरागनिर्विकल्प शुक्लध्यानं,
अध्यात्मापेक्षया वीतरागनिर्विकल्प रूपातीत ध्यानं।’’
तथा चोक्तं—
पदस्थं मंत्रवाक्यस्थं पिण्डस्थं स्वात्मचिन्तनम्।
रूपस्थं सर्वचिद्रूपं रूपातीतं निरञ्जनम्।।
अर्थात् ‘‘वह ध्यान वैâसा है’’ इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया कि आगम (सिद्धान्तग्रंथ) की अपेक्षा तो वीतराग निर्विकल्प शुक्लध्यान है और अध्यात्म की अपेक्षा वीतराग निर्विकल्प रूपातीत ध्यान है। दूसरी तरह भी कहा है कि—
णमोकार मंत्र आदि मंत्रपदों का जो ध्यान है वह ‘‘पदस्थ’’ कहलाता है। पिण्ड (शरीर) में ठहरा हुआ जो निज आत्मा है उसका चिंतवन ‘‘पिण्डस्थ’’ है, सर्वचिद्रूप (सकलपरमात्मा) जो अरिहंतदेव हैं उनका ध्यान ‘‘रूपस्थ’’ कहा जाता है और निरंजन (सिद्ध भगवान) का ध्यान ‘‘रूपातीत’’ है।
वस्तु के स्वभाव से देखा जावे तो शुद्ध आत्मा का सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यव्âचारित्ररूप अभेद रत्नत्रयमयी जो निर्विकल्पसमाधि है उससे उत्पन्न हुआ वीतराग परमानंद समरसीभाव सुखरस का आस्वाद ही जिसका स्वरूप है ऐसा ध्यान का लक्षण जानना चाहिए।
इस अध्यात्म ग्रन्थ में नमस्कार शब्द का खुलासा करते हुए भी टीका में बतलाया है कि ‘‘यह नमस्कार शब्दरूप वचन द्रव्यनमस्कार है और केवलज्ञानादि अनन्त गुणस्मरणरूप भावरूप नमस्कार कहा जाता है। यह द्रव्य और भावरूप नमस्कार व्यवहारनय से साधक दशा में कहा है तथा शुद्धनिश्चयनय से वंद्य-वंदक भाव नहीं पाया जाता है।’’
इससे यह ज्ञात होता है कि हमारे पूर्वाचार्यों ने परोपकार की भावना से जब ग्रन्थों की रचना की तब वे भी व्यवहारनय का आश्रय लेकर निश्चय स्वरूप आत्मा की भावना ही करते थे न कि वे मात्र निश्चय में लीन रहा करते थे। जैसा कि द्वितीय गाथा से भी श्रीयोगीन्द्रदेव की व्यवहार भक्ति का परिज्ञान होता है—
ते वंदऊ सिरि सिद्धगण होसिंह जे वि अणंत।
सिवमय-णिरुवम-णाणमय परम-समाहि भजंत।।२।।
अर्थात् मैं उन सिद्ध समूहों को नमस्कार करता हूँ जो आगामी काल में अनंत होंगे। वैâसे होंगे ? परमकल्याणमय, अनुपम और ज्ञानमय होंगे। क्या करते हुए ? रागादि विकल्परहित परमसमाधि का सेवन करते हुए भविष्य में अनंत सिद्ध परमेष्ठी होंगे।
इसका अर्थ यह हुआ कि शक्तिरूप में परमात्मतत्त्व की सत्ता को स्वीकार करते हुए आचार्यदेव ने भविष्यत्कालीन सिद्ध परमेष्ठियों को भी नमन करते हुए अपनी सहृदयता का परिचय प्रदान किया है। इसमें हम सभी की आत्माओं को भी नमन हो जाता है क्योंकि भव्यत्व की अपेक्षा हम लोगों की आत्मा भी भावी सिद्ध परमात्मा है। यही भाव एक कवि ने भी अपने भजन की एक पंक्ति में कहा है—
मेरा नम्र प्रणाम है,
जग के उन सब मुनिराजों को मेरा नम्र प्रणाम है।।
सिद्धों की श्रेणी में आने वाला जिनका नाम है।
जग के उन सब मुनिराजों को बारम्बार प्रणाम है।।
इसी प्रकार अगले तृतीय-चतुर्थ दोहे में वर्तमानकालीन एवं भूतकालीन सिद्धों को नमस्कार किया है। यहाँ तृतीय दोहे में एक बात विशेष दृष्टव्य है—
ते हउँ वंदउँ सिद्धगण अच्छिंह जे वि हवंत।
परम समाहि महग्गियएँ कम्मिंधणइँ हुणंत।।३।।
अर्थात् उन सिद्ध समूहों को नमस्कार करता हूँ जो वर्तमान समय में परमसमाधिरूप महाअग्नि में कर्मरूपी ईंधन को भस्म करते हुए आत्मतत्त्व में स्थित हैं।
इसकी टीका में स्पष्ट किया है कि पाँच महाविदेहों में आज भी जो वीतराग निर्विकल्प समाधि में लीन मुनिगण सिद्धपद को प्राप्त कर रहे हैं उन्हें वर्तमान सिद्ध परमेष्ठी के रूप में मेरा नमस्कार है। यहाँ निर्विकल्प समाधि को मूल गाथासूत्र में अग्नि की उपमा प्रदान करते हुए आचार्यश्री ने कर्मों के ईंधन का होम—हवन करना बताया है। इससे सिद्ध होता है कि हवन सदैव अग्नि में ही होता आया है इसीलिए निर्विकल्प समाधिरूप तपस्या को अग्नि तथा कर्मों के लिए ईंधन—लकड़ी की उपमा प्रसिद्ध हुई है अतः पूजा विधानों में पूर्णाहुति हवन करने की विधि पूर्णतया आगमसमस्त ही जानना चाहिए, उसमें सन्देह करके जो लोग बिना अग्नि जलाए थाली में ही चावलों से हवन करने लगते हैं उसे हवन संज्ञा कथमपि नहीं दे सकते हैं।
आदिपुराण भाग—२ में भगवान ऋषभदेव के निर्वाणगमन के पश्चात् चौकोन कुण्ड में हवन करने का विधान आया है। प्रतिष्ठापाठ आदि ग्रन्थों में भी अग्नि में हवन करने का वर्णन आता है।
चतुर्थ दोहे की टीका में सिद्धों की गुरुता का वर्णन करते हुए श्री ब्रह्मदेव सूरि ने लिखा है कि ‘‘जो भारी होता है वह गुरुतर होता है और जल में डूब जाता है किन्तु तीन लोक के गुरु होते हुए भी भगवान संसार में डूबते नहीं हैं अर्थात् वे मोक्ष जाने के बाद संसार में पुनः कभी वापस नहीं आते हैं तथा तीनों लोकों में सबसे बड़े गुरु कहलाते हैं।’’
जैनधर्म में ईश्वर की वीतरागी सत्ता को स्वीकार करते हुए उनका पुनरागमन नहीं माना गया है इसीलिए कुछ लोग इसके वास्तविक रहस्य को न समझकर जैनधर्म को नास्तिकधर्म भी मान लेते हैं किन्तु इन ग्रन्थों के स्वाध्याय से जिज्ञासुओं की शंका का समाधान अवश्य हो जाता है।
परमात्मप्रकाश ग्रन्थ की प्रस्तावना में इसी अभिप्राय को अंग्रेजी में भी स्पष्ट करते हुए लेखक ने लिखा है—
“Who have consumed the fuel of Karmas with the fire of great meditation, who dwell in Nirvana never falling back into the ocean of transmigration though supremely weighty with knowledge, and who being self established clearly visualize everything here both the physical and superphysical existence.
ये परमप्प णियंति मुणि परम समाहि धरेवि।
परमाणंदह कारणिण तिण्णि वि ते वि णवे वि।।७।।
अर्थात् जो मुनि परम समाधि को धारण करके सम्यग्ज्ञान के द्वारा परमात्मा को देखते हैं, रागादि विकल्प रहित परमसमाधि से उत्पन्न हुए परम सुख के रस का अनुभव करने के लिए उन आचार्य, उपाध्याय, साधुओं को नमस्कार करके मैं परमात्म प्रकाश का व्याख्यान करता हूँ।
ग्रन्थकर्ता आचार्यदेव के इस दोहे की टीका में श्री ब्रह्मदेवसूरि ने आचार्य परमेष्ठी के पंचाचारों को भी निश्चय—व्यवहार दोनों प्रकार से वर्णित करते हुए लिखा है—
अनुपचरितासद्भूतव्यवहारसम्बन्धः द्रव्यकर्मनोकर्मरहितं…………………
अर्थात् अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय से (जो उपचरित नहीं है किन्तु मिथ्या है उस नय से) द्रव्यकर्म, नोकर्म का सम्बन्ध होता है उससे रहित और अशुद्ध निश्चयनय से रागादिक का सम्बन्ध है। उससे तथा मतिज्ञानादि विभाव गुण के सम्बन्ध से रहित और नर,म नारकादि चतुर्गति रूप विभावपर्यायों से रहित जो चिदानन्द चिद्रूप एक अखंड स्वभाव शुद्धात्मतत्त्व है वही सत्य है, उसी को परमार्थरूप समयसार कहना चाहिए। वही सब प्रकार से आराध्य है, उससे भिन्न जो वस्तु है वह सब त्याज्य—त्याग करने योग्य है ऐसी दृढ़ प्रतीति चंचलता रहित निर्मल अवगाढ़ परम श्रद्धा है उसको सम्यक्त्व कहते हैं, उसका जो आचरण अर्थात् उस स्वरूप परिणमन ‘‘दर्शनाचार’’ कहा जाता है। उसी निजस्वरूप में संशय-विमोह-विभ्रम रहित जो स्वसंवेदन-ज्ञानरूप ग्राहक बुद्धि है वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है उस रूप आचरण को ‘‘ज्ञानाचार’’ कहा है। उसी शुद्ध स्वरूप में शुभ-अशुभ समस्त संकल्प-विकल्प रहित जो नित्यानन्दमय निजरस का आस्वाद, निश्चल अनुभव है वह सम्यव्âचारित्र है, उसका जो आचरण और उस रूप परिणमन है वह ‘‘चारित्राचार’’ है। उसी परमानंद स्वरूप में परद्रव्य की इच्छा का निरोध कर सहज आनंदरूप तपश्चरणस्वरूप परिणमन ‘‘तपश्चरणाचार’’ है तथा उसी शुद्धात्मस्वरूप में अपनी शक्ति को प्रगटकर आचरणरूप परिणमन है वह ‘‘वीर्याचार’’ कहलाता है। इस प्रकार निश्चय पंचाचार का लक्षण बताया गया है। अब व्यवहार का लक्षण भी कहते हैं—
निःशंकाद्यष्टगुणभेदो बाह्यदर्शनाचारः ………………….
अर्थात् निःशंकित को आदि लेकर अष्ट अंगरूप बाह्य दर्शनाचार, शब्दशुद्ध, अर्थशुद्ध आदि आठ प्रकार के बाह्य ज्ञानाचार, पंचमहाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्तिरूप व्यवहार चारित्राचार, अनशनादि बारह तपरूप तपाचार और अपनी शक्ति प्रगट कर मुनिव्रत का आचरण व्यवहार वीर्याचार है। यह व्यवहार पंचाचार परम्परा से मोक्ष का कारण है और निर्मल ज्ञान-दर्शन स्वभाव जो शुद्धात्मतत्त्व है उसका श्रद्धान, ज्ञान, आचरण तथा परद्रव्य की इच्छा का निरोध और निज शक्ति का प्रगट करना ऐसा यह निश्चय पंचाचार साक्षात् मुक्ति का कारण है। ऐसे निश्चय-व्यवहाररूप पंचाचारों का जो स्वयं पालन करते हैं और शिष्यों से उनका पालन करवाते हैं ऐसे आचार्य परमेष्ठियों की मैं वन्दना करता हूँ।
इसी प्रकार आगे इसी टीका में उपाध्याय एवं साधु परमेष्ठी की वन्दना करते हुए पंच परमेष्ठियों की भक्ति का उपदेश दिया है पुनः अपने शिष्य प्रभाकर भट्ट के निवेदन पर शुद्धात्मतत्त्व का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं—
अप्पा ति-विहु मुणेवि लहु मूढउ मेल्लहि भाउ।
मुणि सण्णाणें णाणमउ जो परमप्प सहाउ।।१२।।
अर्थ—हे प्रभाकर भट्ट ! तू आत्मा को तीन प्रकार का जानकर बहिरात्मस्वरूप भाव को शीघ्र ही छोड़ और जो परमात्मा का स्वभाव है उसे स्वसंवेदनज्ञान से अन्तरात्मा होता हुआ जान, वह स्वभाव केवलज्ञान से परिपूर्ण है।
यहाँ शिष्य ने प्रश्न किया था कि स्वसंवेदन अर्थात् अपने द्वारा अपनी आत्मा का अनुभव करने में वीतराग विशेषण लगाना आवश्यक क्यों है ? क्योंकि स्वसंवेदनज्ञान तो रागरहित ही होगा। इसका समाधान श्रीगुरु करते हैं कि—
विषयों के आस्वादन से भी उन वस्तुओं के स्वरूप का ज्ञान होता है परन्तु वह रागभाव से दूषित है इसलिए निजरस का आस्वाद नहीं है और वीतराग दशा में स्वरूप का यथार्थ ज्ञान होता है, आकुलतारहित होता है। वह स्वसंवेदनज्ञान प्रथम अवस्था में चौथे, पाँचवे गुणस्थान वाले गृहस्थ के भी होता है किन्तु चूँकि वहाँ पर सराग देखने में आता है इसलिए रागसहित अवस्था के निषेध करने हेतु वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान की संज्ञा से उसे संबोधित किया गया है। अनन्तानुबन्धी कषाय से युक्त मिथ्यादृष्टि जीव बहिरात्मा कहलाता है अतः उसके तो स्वसंवेदनज्ञान अर्थात् सम्यक््âज्ञान सर्वथा ही नहीं है। चतुर्थ गुणस्थान में सम्यग्दृष्टि के मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबन्धी कषाय का अभाव होने से सम्यग्ज्ञान तो हो गया परन्तु कषाय की तीन चौकड़ी (अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, संज्वलन के क्रोध-मान-माया-लोभ रूप चार-चार भेद) बाकी रहने से द्वितीया के चन्द्रमा के समान विशेष प्रकाश नहीं होता और श्रावक के पाँचवें गुणस्थान में दो चौकड़ी का अभाव है इसलिए रागभाव कुछ कम हुआ, वीतरागभाव बढ़ गया, इस कारण स्वसंवेदनज्ञान भी प्रबल हुआ परन्तु दो चौकड़ी के रहने से मुनि के समान प्रकाश नहीं हुआ। मुनि के तीन चौकड़ी का अभाव है इसलिए रागभाव तो निर्बल हो गया तथा वीतराग भाव प्रबल हुआ, वहाँ पर स्वसंवेदनज्ञान का अधिक प्रकाश हुआ परन्तु चौथी चौकड़ी बाकी है इसलिए छठे गुणस्थान वाले मुनि सरागसंयमी हैं उनमें वीतराग संयमी जैसा प्रकाश नहीं है। सातवें गुणस्थान में चौकड़ी मन्द हो जाती है, वहाँ पर आहार-विहार क्रिया नहीं होती है, वे ध्यान में आरुढ़ रहते हैं। वे मुनि जब सातवें से छठे गुणस्थान में आते हैं तब वहाँ पर आहारादि क्रिया है, इसी प्रकार छठा-सातवां गुणस्थान करते रहते हैं क्योंकि इन दोनों गुणस्थानों का काम अन्तर्मुहूर्त होता है।
इस गाथा के अंग्रेजी भावार्थ में भी लेखक ने सरल शब्दों में स्पष्ट किया है कि—
“The souls attain liberation through Right Faith (or vision) Knowledge and conduct which really speaking consist respectively in seeing, knowing and conduction one self by oneself. From the ordinary point of view Right Faith, Knowledge and Conduct constitute the means of Moksha, but really speaking the soul itself is all the three. The Atman sees, knows and realizes himself by himself, therefore the Atman himself is the cause of Moksha. Proper knowledge of the soul constitutes of Right Faith, knowledge and Conduct leads to spiritual purity.
उपर्युक्त गाथा के विशेषार्थ में पंडित श्री दौलतराम जी ने आगे के अष्टम से तेरहवें गुणस्थान तक की प्रकृतियों के नाश का क्रम बतलाकर अन्त में कहा हैै कि चौथे गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक तो जीव अंतरात्मा कहलाते हैं, उसमें प्रत्येक गुणस्थान में क्रमश: वृद्धिरूप भावों की शुद्धता पाई जाती है और पूर्ण शुद्धता परमात्मा (तेरहवें गुणस्थानवर्ती) के ही पाई जाती है, ऐसा सारांश समझना चाहिए।
यह ग्रंथ वास्तव में अपने नाम के अनुसार ही परमात्मा को प्रकाशित करने वाला है। इसमें पूज्य आचार्य श्री योगीन्द्रदेव ने विशेष रूप से यही बताया है कि जिस प्रकार दूध में घी बनने की तथा बीज में वृक्ष बनने की शक्ति मौजूद है ठीक उसी प्रकार हम सबकी आत्मा में भी परम आत्मा अर्थात् भगवान आत्मा बनने की शक्ति विद्यमान है।
मूढु वियक्खणु बंभु परु अप्पा ति विहु हवेइ।
देहु जि अप्पा जो मुणइ सो जणु मूढु हवेइ।।
अर्थात् आत्मा के तीन भेद हैं—बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। उनमें से प्रथम बहिरात्मा का लक्षण कहते हैं कि जो देह को ही आत्मा मानता है वह प्राणी बहिरात्मा है वह वीतराग निर्विकल्प समाधि से उत्पन्न हुए परमानन्द सुखामृत को नहीं पाता और अज्ञानी है इस प्रकार यह बहिरात्मा तो त्याज्य है अर्थात् आदर योग्य नहीं है।
आगे परमसमाधि में स्थित देह से भिन्न ज्ञानमयी आत्मा को जो जानता है वह अन्तरात्मा है अर्थात् जो पुरुष परमात्मा को शरीर से अलग एवं केवलज्ञान से पूर्ण जानता है वही परमसमाधि में तिष्ठता हुआ अंतरात्मा अर्थात् विवेकी है। कहने का तात्पर्य यही है कि अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से अर्थात् इस जीव के साथ परवस्तु का संबंध अनादिकालीन मिथ्यारूप होने से व्यवहारनय से देहमयी है तो भी निश्चयनय से सर्वदा देहादिक से भिन्न है और केवलज्ञानमयी है ऐसा निज शुद्धात्मा को वीतराग निर्विकल्प सहजानंद शुद्धात्मा की अनुभूतिरूप परमसमाधि में स्थित होता हुआ जानता है वही विवेकी अंतरात्मा कहलाता है, पुनः परमात्मा का स्वरूप बताते हुए कहते हैं कि सब परद्रव्यों को छोड़कर कर्मरहित होकर जिसने अपना स्वरूप केवलज्ञानमय पा लिया है वही परमात्मा है, जिसने ज्ञानावरणादि कर्मों को नाश करके और सब देहादिक परद्रव्यों को छोड़ करके केवलज्ञानमयी आत्मा को प्राप्त किया है उसको शुद्धमन से परमात्मा जानो अथवा इसे यों भी कह सकते हैं कि जिसने देहादिक समस्त परद्रव्य को छोड़कर ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, रागादिक भावकर्म, शरीरादि नोकर्म इन तीनों से रहित केवलज्ञानमयी अपनी आत्मा का लाभ कर लिया है, ऐसे आत्मा को तू माया, मिथ्या, निदानरूप शल्य वगैरह समस्त विभाव परिणामों से रहित निर्मलचित्त से परमात्मा जान। इस प्रकार आत्मा के भेदों का वर्णन करने के पश्चात् अब आचार्यश्री मुक्ति को प्राप्त हुए केवलज्ञानादिरूप सिद्ध परमात्मा के व्याख्यान की मुख्यता से अग्रिम गाथा कहते हैं—
तिहुयण वेदिउ सिद्धि गउ हरि हर झायिंह जो जि।
लक्खु अलक्खें धरिवि थिरू मुणि परमप्पउ सो जि।।
इस गाथासूत्र में आचार्यश्री अपने शिष्य प्रभाकरभट्ट को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि इन्द्र, नारायण, रूद्र वगैरह बड़े-बड़े महापुरुष भी उन तीन लोकवंदनीक और केवलज्ञानादि व्यक्तिरूप सिद्धपने को प्राप्त जिस परमात्मा का ध्यान करते हैं, अपने मन को वीतराग निर्विकल्प नित्यानन्द स्वभाव परमात्मा में स्थिर करके उसी को हे प्रभाकरभट्ट! तू परमात्मा जानकर िंचतवन कर। सारांश यह है कि केवलज्ञानादिरूप उस परमात्मा के समान रागादि रहित अपने शुद्ध आत्मा को पहचान, वही साक्षात् उपादेय है अन्य सब संकल्प—विकल्प त्यागने योग्य हैं। अब संकल्प विकल्प का स्वरूप कहते हैं कि जो बाह्य वस्तु पुत्र, स्त्री, कुटुम्ब, बांधव वगैरह सचेतन पदार्थ तथा चाँदी, सोना, रत्न मणि के आभूषण वगैरह अचेतन पदार्थ हैं इन सबको अपने समझे कि ये मेरे हैं ऐसे ममत्व परिणाम को संकल्प जानना तथा मैं सुखी—मैं दुःखी इत्यादि हर्ष—विषादरूप परिणाम होना वह विकल्प है।
आगे नित्य, निरंजन, ज्ञानमयी, परमानन्द स्वभाव, शांत और शिवस्वरूप का वर्णन करने के पश्चात् पुनः कहते हैं कि जिस भगवान के सफेद, काला, लाल, तिक्त, कटु, कषायरूप पाँच रस नहीं हैं जिसके भाषा अभाषारूप शब्द नहीं है, सात स्वर नहीं हैं, शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष, लघु, मृदु, कठिनरूप आठ तरह का स्पर्श नहीं है और जिसके जन्म-जरा नहीं है तथा मरण भी नहीं है उसी चिदानन्द शुद्धस्वभाव परमात्मा की निरंजन संज्ञा है। फिर वह निरंजनदेव वैâसा है—जिस सिद्ध परमेष्ठी के गुस्सा नहीं है, मोह तथा कुल, जाति वगैरह आठ तरह का अभिमान नहीं है, जिसके माया व मान कषाय नहीं है और जिसके ध्यान के स्थान नाभि, हृदय, मस्तक वगैरह नहीं हैं, चित्त के रोकने रूप ध्यान नहीं है ऐसे निज शुद्धात्मा को तू जान। भावार्थ यही है कि अपनी प्रसिद्धता, महिमा, अपूर्व वस्तु का मिलना और देखे सुने भोग इनकी इच्छा रूप सब विभाव परिणाम को छोड़कर अपने शुद्धात्मा की अनुभूतिस्वरूप निर्विकल्प समाधि में ठहरकर उस शुद्धात्मा का अनुभव करे।
इस प्रकार विस्तारपूर्वक शुद्धता के स्वरूप का वर्णन करने के पश्चात् आचार्यश्री योगीन्द्रदेव पुनः वेद, शास्त्र, इन्द्रियादि परद्रव्यों के अगोचर और वीतरागनिर्विकल्प समाधि के गोचर ऐसे परमात्मा के स्वरूप को प्रतिपादित करते हैं—
वेयिंह सत्थिंह इंदियिंह जो जिय मणहु ण जाइ।
णिम्मल झाणहँ जो विसउ सो परमप्पु अणाइ।।
केवली की दिव्यवाणी से, महामुनियों के वचनों से तथा इन्द्रिय और मन से भी जो शुद्धात्मा जाना नहीं जाता है अर्थात् वेद, शास्त्र ये दोनों शब्द अर्थस्वरूप हैं। आत्मा शब्दातीत है तथा इन्द्रिय, मन विकल्परूप हैं और मूर्तिक पदार्थ को जानते हैं वह आत्मा निर्विकल्प है, अमूर्तिक है इसलिए इन तीनों से नहीं जान सकते। जो आत्मा निर्मल ध्यान के गम्य है वही आदि अंत रहित परमात्मा है।
वस्तुतः इस ग्रन्थ को पढ़ते-पढ़ते मन अत्यन्त प्रफुल्लित हो जाता है और आत्मा वैराग्यभाव से ओत-प्रोत हो जाती है। वास्तव में जब आचार्य श्री योगीन्द्रदेव ने इस महान ग्रंथ का लेखन किया होगा तब वे कितनी प्रसन्नता का अनुभव करते होंगे इसका अनुमान हम और आप नहीं लगा सकते। इसमें उन्होंने बहिरात्मा से लेकर परमात्मा तक हर प्रकार के जीवों को सम्बोधित किया है। यहाँ आचार्यश्री क्या कहते हैं ? देखिए—
किसी शिष्य ने प्रश्न किया कि निर्विकल्पसमाधि में सब जगह वीतराग विशेषण क्यों कहा है ? उसका उत्तर कहते हैं—जहाँ पर वीतराग है वहीं निर्विकल्प समाधिपना है, इस रहस्य को समझाने के लिए अथवा जो रागी होकर भी कहते हैं कि हम निर्विकल्प समाधि में स्थित हैं उनके निषेध के लिए वीतरागता सहित निर्विकल्पसमाधि का कथन किया गया है अथवा सफेद शंख की तरह स्वरूप प्रगट करने के लिए कहा गया है अर्थात् जो शंख होगा वह श्वेत ही होगा उसी प्रकार जो निर्विकल्प समाधिमय होगा वह वीतरागरूप ही होगा, पुनः यह परमात्मा व्यवहारनय से इस देह में ठहर रहा है लेकिन निश्चयनय से अपने रूप में ही तिष्ठता है, ऐसी आत्मा को कहते हैं—
देहादेहिंह जो वसई, भेयाभेय णएण।
सो अप्पा मुणि जीव तुहुँ, किं अण्णे बहुएण।।
अर्थात् जो आत्मा व्यवहारनय से तो देह से अभेदरूप अर्थात् तन्मय है और निश्चयनय से सदा काल से अत्यन्त जुदा है, अपने स्वभाव में स्थित है उसे ही हे जीव! तू परमात्मा जान। कहने का तात्पर्य यही है कि देह में रहता हुआ भी निश्चय से जो देहस्वरूप नहीं होता वही निज शुद्धता उपादेय है।
पुनः आचार्यश्री कहते हैं कि जीव और अजीव दो अलग-अलग हैं, इन दोनों में लक्षण के भेद से भेद है अतः जीव और अजीव को एक मत समझो अथवा यों कह सकते हैं कि जो पर के सम्बन्ध से उत्पन्न हुए रागादि विकार हैं उनको अपने से पर समझो और आत्मा को अपना जानो।
श्री समयसार नामक आध्यात्मिक ग्रन्थ में कहा है—‘‘अरसं’’ इत्यादि इसका सारांश यह है कि जो आत्मद्रव्य है वह मिष्ट वगैरह पाँच प्रकार के रस से रहित है, श्वेत आदि पाँच तरह के वर्ण से रहित है, सुगंध, दुर्गंध इन दो तरह की गंध उसे नहीं है वह आत्मद्रव्य दृष्टिगोचर नहीं है, चैतन्यगुण से सहित है, शब्द से रहित है, िंलग रहित है और उसका कुछ भी आकार नहीं दिखता। यहाँ आकार के छह भेदों को बताते हैं—समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमंडल, स्वाति, कुब्जक, वामन और हुण्डक। इन छह प्रकार के आकारों से रहित जो निज वस्तु है उसे पहचानना चाहिए इसके विपरीत आत्मा से भिन्न जो अजीव पदार्थ है उसके लक्षण दो तरह से हैं एक जीव सम्बन्धी दूसरा अजीव सम्बन्धी। जो द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्मरूप है वह तो जीव संबंधी है और पुद्गलादि पाँच द्रव्यरूप अजीव सम्बन्धी हैं इसलिए जीव से भिन्न अजीवरूप जो भी पदार्थ हैं उन्हें अपना नहीं समझना चाहिए। यद्यपि रागादिक विभाव परिणाम जीव में ही उपजते हैं इससे जीव के कहे जाते हैं परन्तु वे भी कर्मजनित हैं, परपदार्थ के सम्बन्ध से हैं अतः इन्हें भी अपना मत समझो।
यहाँ पर जीव और अजीव दो पदार्थ कहे गए हैं। उनमें से शुद्ध चेतना लक्षण को धारण करने वाला शुद्धात्मा ही ध्यान करने योग्य है, यह सारांश हुआ है। आगे उसी शुद्धता के ज्ञानादिक लक्षणों को विशेष रूप से कहते हैं—
अमणु अणिंदिउ णाणमउ, मुत्ति विरहिउ चिमित्तु।
अप्पा इंदिय विसउ णवि, लक्खणु एहु णिरूत्त।।
जो शुद्ध आत्मा विकल्पजालमयी मन से रहित है, अनिन्द्रिय है, केवलज्ञान स्वरूप है, अमूर्तिक है, अन्य द्रव्यों में नहीं पाई जाने वाली शुद्ध चेतनास्वरूप है, इन्द्रियों के गोचर नहीं है और वीतराग स्वसंवेदन से ग्रहण करने योग्य है उसे निःसन्देह आत्मा समझना चाहिए और आत्मा उपादेय है तथा आराधने योग्य है। यह तो सच है कि जो भी भव्य प्राणी संसार, शरीर और भोगों से विरक्त होकर शुद्धात्मा का ध्यान करता है उसके संसाररूपी बेल नाश को प्राप्त हो जाती है। इसी बात को गाथा के माध्यम से स्पष्ट करते हैं—
भव तणु भोय विरत्त मणु, जो अप्पा झाएइ।
तासु गुरुक्की वेल्लडी, संसारिणि तुट्टेइ।।
अर्थात् जो जीव संसार, शरीर और भोगों से विरक्त होकर शुद्धात्मा का िंचतवन करता है उसकी मोटी से मोटी भी संसाररूपी बेल नष्ट हो जाती है क्योंकि आचार्यश्री का कहना है कि जो देहरूपी देवालय में रहता है वही शुद्ध निश्चयनय से परमात्मा है।
व्यवहारिक आचरण के द्वारा उसको प्राप्त करने का पुरुषार्थ करना चाहिए। आगे एक बहुत ही सुन्दर बात बताई गई है कि शुद्धात्मा से भिन्न इस देह में रहता हुआ भी देह को नहीं स्पर्श करता है और देह भी उसको नहीं छूती है—
देहे वसंतु वि णवि छिवई, णियमें देहु वि जो जि।
देहें छिप्पई जो वि णवि, मुणि परमप्पउ सो जि।।
कहने का तात्पर्य यह है कि जो देह में रहता हुआ भी निश्चयनय से शरीर को नहीं स्पर्श करता है और देह से वह भी नहीं छुआ जाता है अर्थात् न तो जीव देह को स्पर्श करता है और न देह जीव को स्पर्श करती है वही शुद्ध परमात्मा है। इसके विपरीत किसी को ‘‘परमात्मा’’ यह संज्ञा नहीं दी जा सकती क्योंकि जो शुद्धात्मा की अनुभूति से विपरीत क्रोध, मान, माया, लोभरूप विभाव परिणाम हैं उनका उपार्जन करके शुभ-अशुभ कर्मों से बनाई हुई देह में निवास करता हुआ भी निश्चयनय से देह को नहीं स्पर्श करता है और परमात्मा है उसी स्वरूप को वीतराग निर्विकल्प समाधि में तिष्ठ कर िंचतवन करना चाहिए।
इस प्रकार आचार्य योगीन्द्रदेव के अनुसार प्राणीमात्र को निश्चयनय की श्रद्धा के साथ-साथ व्यवहारनय के द्वारा अपनी आत्मा को परमात्मा बनाने का पुरुषार्थ अवश्य करना चाहिए।