वंशस्थ– नमोऽस्तु ते संयमबोधमूर्तये,
स्मरेभकुम्भस्थलभेदनाय वै।
विनेयपंकेज-विकासभानवे,
विराजते माधवसेनसूरये।।१०८।।
अर्थ-संयम और ज्ञान की मूर्तिस्वरूप, कामदेवरूपी हाथी के गण्डस्थल को विदारण करने वाले और शिष्य रूपी कमलों को विकसित करने के लिए भास्कर स्वरूप, शोभायमान जो माधवसेन सूरि हैं उन्हें मेरा नमोस्तु होवे।।१०८।।
बसंततिलका– भव्य: समस्तविषयाग्रहमुक्तचिन्त:।
स्वद्रव्यपर्ययगुणात्मनि दत्तचित्त:।
मुक्त्वा विभावमखिलं निजभावभिन्नं
प्राप्नोति मुक्तिमचिरादिति पंचरत्नात्।।१०९।।
अर्थ-जो समस्त विषयों के आग्रह की चिन्ता से मुक्त हैं, द्रव्य गुणपर्यायात्मक अपने आत्मस्वरूप में जिन्होंने चित्त को लगाया है, वे भव्य जीव अपने स्वभाव से भिन्न सम्पूर्ण विभावों को छोड़ करके इन पंचरत्नों के निमित्त से शीघ्र ही मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं।
भावार्थ-टीकाकार श्री मुनिराज ने भेदविज्ञान की भावनास्वरूप पूर्वोक्त पाँच गाथाओं को पंचरत्न की संज्ञा दी है क्योंकि इन पाँच गाथा कथित भेद विज्ञान के द्वारा ही मुनिराज सम्पूर्ण विषय कषायों की चिन्ता से छूट सकते हैं और अपनी आत्मा में अपने आपको स्थिर कर सकते हैं इसलिये जो भव्य इन पंचरत्न को ग्रहण करते हैं वे तीन लोक के साम्राज्य को हस्तगत कर लेते हैं।
मालिनी– इति सति मुनिनाथस्योच्चवैâर्भेदभावे,
स्वयमयमुपयोगाद्राजते मुक्तमोह:।
शमजलनिधिपूरक्षालितांह: कलंक:,
स खलु समयसारस्यास्य भेद: क एष:।।११०।।
अर्थ-इस प्रकार से मुनिनाथ को उत्कृष्ट रूप से भेदविज्ञान के हो जाने पर स्वयं यह (भेद विज्ञान) उपयोग से मोहरहित होता हुआ शोभायमान होता है। शमसमुद्र के प्रवाह से धो डाला है पापरूपी कलंक को जिसने, ऐसा जो भेद है वह निश्चित ही इस समयसार का कोई एक भेद है अर्थात् वह भेदविज्ञान समयसार का कोई एक अद्भुत चमत्कारी भेद है।
भावार्थ-जिस समय महामुनि भेदविज्ञान के द्वारा आत्मा और शरीर की भिन्नता का अनुभव करते हैं, उस समय उनके उपयोग में मोहभाव नहीं रहता है। यद्यपि मोहनीय कर्म का बंध और उदय दशवें गुणस्थान तक तथा सत्त्व ग्यारहवें गुणस्थान तक विद्यमान है फिर भी उपयोग में मोह के न रहने से वह भेदज्ञान कषायों की उपशमता रूप सागर के जलप्रवाह से पापरूपी पंक को धोकर स्वच्छ हो जाता है। यह भेदविज्ञान रूप परिणाम-समयसार का ही कोई एक अद्भुत प्रकार है, ऐसा समझना।
आर्या– अतितीव्रमोहसंभवपूर्वाजर््िातं (कर्म) तत्प्रतिक्रम्य।
आत्मनि सद्बोधात्मनि नित्यं वर्तेऽहमात्मना तस्मिन्।।१११।।
अर्थ-अतितीव्र मोह के उत्पन्न होने से जो पूर्व में उपार्जित कर्म, उनका प्रतिक्रमण करके मैं सद्बोध स्वरूप ऐसी उस आत्मा में अपनी आत्मा के द्वारा नित्य ही रहता हूँ अर्थात् मोहनीय कर्म के उदय से होने वाले जो मोह, राग, द्वेष आदि परिणाम हैं इन परिणामों के निमित्त से ही प्रतिक्षण कर्म आते रहते हैं इसलिये इन रागद्वेषादि भावों से उपार्जित किये गए कर्मों को प्रतिक्रमण के द्वारा दूर करके मैं मेरे शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मा में ही निवास करता हूँ, यही निश्चय प्रतिक्रमण होता है।
मालिनी– अपगतपरमात्मध्यानसंभावनात्मा,
नियतमिह भवार्त: सापराध: स्मृत: स:।
अनवरतमखंडाद्वैतचिद्भावयुक्तो
भवति निरपराध: कर्मसंन्यासदक्ष:।।११२।।
अर्थ-जो जीव परमात्मा के ध्यान की सम्यक््â भावना से रहित हैं, यहाँ पर नियम से वे भव से पीड़ित हुए सापराधी माने गये हैं। जो जीव सदा ही अखंड, अद्वैत चैतन्यभाव से युक्त हैं वे कर्म के त्याग में कुशल होने से निरपराधी होते हैं।
मालिनी– अथ निजपरमानन्दैकपीयूषसान्द्रं,
स्फुरितसहजबोधात्मानमात्मानमात्मा।
निजशममयवार्भिर्निर्भरानंदभक्त्या,
स्नपयतु बहुभि: िंक लौकिकालापजालै:।।११३।।
अर्थ-आत्मा निज परमानंदरूप एक-अद्वितीय अमृत से सान्द्र-आर्द्र-भीगे हुये या पूर्ण भरित और स्फुरायमान सहज बोधस्वरूप आत्मा को अपने परिणामों के उपशमरूप जल से अतिशय आनन्द और भक्तिपूर्वक स्नान कराओ, बहुत से लौकिक वचन समूहों से क्या प्रयोजन है ? अर्थात् कुछ भी नहीं है।
भावार्थ-परिणामों में जो कषायों की मंदता या उपशमता है वही एक प्रकार का निर्मल जल है, उस जल से अपनी आत्मा को स्नान कराने से वह पवित्र हो जाती है इसलिये साधुओं को प्रेरणा देते हुए आचार्य कहते हैं कि बहुत से बाह्य वचनों के आडम्बर से लोगों को प्रसन्न करने से कुछ भी निज कार्य सिद्ध नहीं होगा।
स्रग्धरा– मुक्त्वानाचारमुच्चैर्जननमृतिकरं सर्वदोषप्रसंगं,
स्थित्वात्मन्यात्मनात्मा निरुपमसहानंददृग्ज्ञप्तिशक्तौ।
बाह्याचारप्रमुक्त: शमजलनिधिवार्बिन्दुसंदोहपूत:
सोयं पुण्य: पुराण: क्षपितमलकलिर्भाति लोकोद्घसाक्षी।।११४।।
अर्थ-जो आत्मा जन्म-मरण के करने वाले, सर्व दोषों के प्रसंग रूप ऐसे अनाचार को अत्यंत रूप से छोड़कर, उपमारहित सहज आनंद सुख, सहज दर्शन, सहज ज्ञान और सहज वीर्य स्वरूप अपनी आत्मा में अपनी आत्मा के द्वारा स्थित होकर, बाह्य आचार से रहित होता हुआ, शमसमुद्र के जलबिन्दुओं के समूह से पवित्र हो जाता है, सो वह-पुण्य रूप, पुराण-महापुरुष आत्मा, नष्ट कर दिया है मलरूपी क्लेश को जिसने ऐसा, और लोक को उत्कृष्ट रूप से साक्षात् करने वाला होता हुआ शोभायमान होता है।
भावार्थ-जो संसार की परम्परा के कारणभूत अनाचार हैं उनको छोड़कर जो साधु अनंत चतुष्टय स्वरूप अपनी शुद्ध आत्मा में स्थिर हो जाते हैं, निर्विकल्प समाधि के द्वारा अपनी आत्मा में ही लीन हो जाते हैं। उस समय उनके बाह्य आवश्यक आदि सारी क्रियायें भी छूट जाती हैं पुन: अन्य अनर्गल क्रियाओं की बात तो बहुत ही दूर है, तब कषायों के पूर्ण उपशम तथा क्षयरूपी जल से आत्मा के कर्ममल धुल जाते हैं और आत्मा पूर्णतया पवित्र होकर लोक को प्रत्यक्ष देखने-जानने वाला हो जाता है।
मालिनी– विषयसुखविरक्ता: शुद्धतत्त्वानुरक्ता:।
तपसि निरतचित्ता: शास्त्रसंघातमत्ता:।
गुणमणिगणयुक्ता: सर्वसंकल्पमुक्ता:
कथममृतवधूटीवल्लभा न स्युरेते।।११५।।
अर्थ-जो जो विषय सुखों से विरक्त हैं, जो शुद्ध तत्त्व में अनुरक्त हैं, तपश्चरण में जिनका मन लीन है, जो शास्त्रों के समूह में मत्त-आनंदित हैं, गुणमणियों के समूह से युक्त हैं और सर्व संकल्पों से मुक्त हैं ऐसे परम तपोधन अमृतबधूटी मुक्तिवधू के वल्लभ-प्रिय क्यों नहीं होंगे ? अर्थात् मुक्ति स्त्री के पति अवश्य होंगे।
अनुष्टुप्– शल्यत्रयं परित्यज्य नि:शल्ये परमात्मनि।
स्थित्वा विद्वान्सदा शुद्धमात्मानं भावयेत्स्फुटम्।।११६।।
अर्थ-तीनों शल्यों का परित्याग करके, शल्य रहित परमात्मा में स्थित होकर विद्वान-साधु सदा स्पष्ट रूप से शुद्ध आत्मा की भावना करे अर्थात् शुद्ध निश्चयनय से शल्यादि विकल्पों से रहित जो शुद्ध है उसमें तन्मय होकर अनुभव करें।
पृथ्वीछंद-कषायकलिरंजितं त्यजतु चित्तमुच्चैर्भवान्।
भवभ्रमणकारणं स्मरशराग्निदग्धं मुहु:।
स्वभावनियतं सुखं विधिवशादनासादितं
भजत्वमलिनं यते प्रबलसंसृतेर्भीतित:।।११७।।
अर्थ-जो भवभ्रमण का कारण है, पुन:-पुन: कामदेव के बाणों की अग्नि से दग्ध है और कषाय की कलि-मैल से रंगा हुआ है ऐसे चित्त को आप अत्यंत रूप से छोड़ो, जो विधि-कर्म के वश से अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है ऐसा स्वभाव से नियत-स्वाभाविक सुख है वह अमलिन-निर्मल है। हे यति! तुम प्रबल संसार के भय से उस सुख का आश्रय लेवो।
भावार्थ-आचार्य का कहना है कि अशुभ भावों से मलिन हुए चित्त को शुभ भावों से निर्मल करके स्वभाव में निश्चित रहने वाले ऐसे सहज परम सुख का अनुभव करो।
हरिणी– अथतनुमनोवाचां त्यक्त्वा सदा विकृिंत मुनि:
सहजपरमां गुप्तिं संज्ञानपुंजमयीमिमाम्।
भजतु परमां भव्य: शुद्धात्मभावनया समं,
भवति विशदं शीलं तस्य त्रिगुप्तिमयस्य तत्।।११८।।
अर्थ-मन, वचन और काय की विकृति को सदा छोड़कर भव्य मुनिराज सम्यग्ज्ञान की पुंजमयी इस सहज परमगुप्ति को शुद्धात्मा की भावना से सहित उत्कृष्ट रूप से भजो-सेवन करो, क्योंकि त्रिगुप्तिमय उन साधु के ही वह पवित्र शील होता है।
भावार्थ-जो मुनिराज पूर्णतया मन, वचन, काय के व्यापारों का निरोध कर देते हैं और शुद्ध आत्मतत्त्व में अपने उपयोग को स्थिर कर लेते हैं वे ही विशद शील अर्थात् निश्चय चारित्र को प्राप्त कर लेते हैं। अनंतर त्रिगुप्ति के प्रसाद से घातिया कर्मों का नाश करके अठारह हजार शील के भेदों को पूर्ण करके-
‘‘सीलेसिं संपत्तो णिरुद्ध णिस्सेस आसवो जीवो।
कम्मरय विप्पमुक्को गय जोगो केवली होदि१।।६५।।
अर्थ-जो अट्ठारह हजार शील के भेदों के स्वामी हो चुके हैं, जिनके कर्मों के आने रूप आस्रव सर्वथा बंद हो गया है तथा सत्त्व और उदयरूप अवस्था को प्राप्त कर्मरूप रज की सर्वथा निर्जरा होने से उस कर्म से सर्वथा मुक्त होने के सन्मुख हैं, वे योग रहित केवली चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगकेवली कहलाते हैं। अभिप्राय यह हुआ कि त्रिगुप्ति के बिना ध्यान की सिद्धि असंभव है तथा कर्मों के नाश हुये बिना सिद्धपद को प्राप्त करना, जो कि शुद्ध निश्चयनय से आत्मा का ही स्वरूप है ऐसे आत्मा के शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करना असंभव ही है।
बसंततिलका– ध्यानावलीमपि च शुद्धनयो न वक्ति
व्यक्तं सदाशिवमये परमात्मतत्त्वे।
सास्तीत्युवाच सततं व्यवहारमार्ग-
स्तत्त्वं जिनेन्द्र तदहो महदिन्द्रजालम्।।११९।।
अर्थ-व्यक्तरूप से सदाशिवमय-अनादिनिधन शिवस्वरूप परमात्मतत्त्व के होने पर शुद्धनय ध्यान समूह को भी नहीं कहता है। ‘वह ध्यानावली है-ध्यान समूह है, इस प्रकार से हमेशा व्यवहार मार्ग कहता है। हे जिनेन्द्र ! आपका यह तत्त्व, अहो ! महा इंद्रजाल स्वरूप है।
भावार्थ-शुद्ध निश्चयनय से सभी संसारी जीवराशि सदा शुद्ध ही है किसी को कर्मलेप है ही नहीं, पुन: आत्मा के सदाशिव रूप सिद्ध हो जाने पर जब कर्म का संबंध ही नहीं है तब कर्मबंध के हेतु अथवा कर्मनाश के हेतुभूत ध्यान भी वैâसे उदित होंगे ? इसलिये शुद्धनय ध्यान को, उसके भेद-प्रभेदों को मानता ही नहीं है। जो कुछ यह संसार मोक्ष की या ध्यान आदि की व्यवस्था है उसको कहने वाला व्यवहार मार्गी, व्यवहारनय ही है। आचार्य कहते हैं कि हे भगवन् ! आपका यह तत्त्व महान इंद्रजाल रूप आश्चर्यकारी है।
बसंततिलका– सद्बोधमंडनमिदं परमात्मतत्त्वं
मुक्तं विकल्पनिकरैरखिलै: समन्तात्।
नास्त्येष सर्वनयजातगतप्रपंचो
ध्यानावली कथय सा कथमत्र जाता।।१२०।।
अर्थ-सम्यग्ज्ञान का मंडन-आभूषणस्वरूप यह परमात्मतत्त्व सम्पूर्ण विकल्प के समूहों से सब तरफ से मुक्त है। यह समस्त नयों के समूह से होने वाला विस्तार इस परमात्मतत्त्व में नहीं है, पुन: आप ही कहिये वह ध्यान समूह यहाँ वैâसे हो सकता है ?
भावार्थ-जब अनादिनिधन परमात्मतत्त्व स्वयं सिद्धस्वरूप है त्ाब साधन स्वरूप ध्यान के भेदों की उसे क्या आवश्यकता है ? यद्यपि व्यवहारनय से सयोगकेवली और अयोगकेवली के भी ध्यान माने हैं क्योंकि उनके कर्मनाश रूप कार्य को देखकर कारण का अस्तित्व माना गया है, किन्तु वहाँ पर भी ध्यान उपचार से ही है।
मालिनी– अथ भवजलराशौ मग्नजीवेन पूर्वं
किमपि वचनमात्रं निर्वृते: कारणं यत्।
तदपि भवभवेषु श्रूयते वाह्यते वा
न च न च बत कष्टं सर्वदा ज्ञानमेकम्।।१२१।।
अर्थ-इस संसार समुद्र में डूबे हुये जीव ने पूर्व में निर्वाण के कारणरूप ऐसे कुछ भी जो वचनमात्र हैं उन वचनमात्र को भी भव-भव में सुना है अथवा धारण भी किया है, किन्तु बड़े दुख की बात है कि सर्वदा एक ज्ञानस्वरूप को नहीं सुना है और धारण नहीं किया है।
भावार्थ-जिनवचन मात्र को भावों से रहित होकर इस जीव ने सुना भी होगा और कुछ न कुछ अंश में धारण भी किया होगा किन्तु मोक्ष के लिये साक्षात् कारण ऐसे अभेद रत्नत्रय स्वरूप एक अद्वैत रूप ज्ञान को नहीं प्राप्त किया है। समयसार में भी कहा है-
‘‘तर्हि तस्य भेदज्ञानस्य मध्ये पानकवदभेदनयेन वीतरागचारित्रं वीतराग सम्यक्त्वं च लभ्यते इति सम्यग्ज्ञानादेव बंधनिरोधसिद्धि:१।’’
उस भेद ज्ञान में ठंढई के समान अभेदनय से वीतराग चारित्र और वीतराग-सम्यक्त्व प्राप्त हो जाता है इसलिये सम्यग्ज्ञान से ही बंध के निरोध की सिद्धि हो जाती है अर्थात् जहाँ पर ज्ञान मात्र से बंध का अभाव होता है ऐसा कहा है वहाँ पर उस ज्ञान के साथ वीतराग चारित्र और वीतराग सम्यक्त्व अविनाभावी हैं, मतलब वह निश्चयरत्नत्रय रूप अवस्था विशेष का ज्ञान है। यहाँ पर श्री पद्मप्रभमलधारी देव महामुनि को भी वही ज्ञान विवक्षित है।
बसंततिलका– त्यक्त्वा विभावमखिलं व्यवहारमार्ग-
रत्नत्रयं च मतिमान्निजतत्त्ववेदी।
शुद्धात्मतत्त्वनियतं निजबोधमेकं,
श्रद्धानमन्यदपरं चरणं प्रपेदे।।१२२।।
अर्थ-सम्पूर्ण विभाव भावों को और व्यवहार मार्ग के रत्नत्रय को छोड़कर जो निज तत्व का अनुभव करने वाला बुद्धिमान-साधु शुद्धात्म तत्त्व में नियत-निश्चित ऐसा जो एक निज बोध है, अन्यरूप-निश्चय श्रद्धान है और अपर-निश्चय रूप जो चारित्र है उनको प्राप्त कर लेता है।
विशेषार्थ-यहाँ पर विभाव भावों को छोड़ने का उपदेश दिया है वैसे ही व्यवहार रत्नत्रय को भी छोड़ने का कथन है क्योंकि उसको छोड़े बिना निश्चयरत्नत्रय की प्राप्ति नहीं हो सकती है किन्तु इस पर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यवहार रत्नत्रय छोड़ा नहीं जाता है किन्तु निर्विकल्प ध्यान की अवस्था में निश्चय रत्नत्रय के होने पर वह स्वयं ही छूट जाता है वहाँ पर बुद्धिपूर्वक छोड़ना या ग्रहण करना नहीं होता है। सो ही समयसार में टीकाकार श्री जयसेनाचार्य ने कहा है-
‘‘निर्विकल्पसमाधिकाले व्रताव्रतस्य स्वयमेव प्रस्तावो नास्ति२’’ निर्विकल्प समाधि के समय व्रत और अव्रत का स्वयं ही प्रकरण नहीं रहता है। और भी कहा है कि ‘‘निर्विकल्प समाधिरूपे निश्चये स्थित्वा व्यवहारस्त्याज्य: किन्तु तस्यां त्रिगुप्तावस्थायां व्यवहार: स्वयमेव नास्तीति तात्पर्यार्थ:।’’
निर्विकल्प समाधिरूप निश्चय रत्नत्रय में स्थित होने पर व्यवहार त्याग करने योग्य है किन्तु उस तीन गुप्ति से सहित अवस्था में व्यवहार स्वयं ही नहीं है ऐसा यहाँ तात्पर्य है।इसलिये जैसे मिथ्यात्व, अविरति आदि को छोड़ा जाता है वैसे ही व्यवहार रत्नत्रय को छोड़ने का प्रसंग नहीं आता है किन्तु उत्कृष्ट ध्यान में लीन होने पर स्वयं ही व्यवहार रत्नत्रय छूट जाता है, ऐसा समझना।
मंदाक्रान्ता– आत्मध्यानादपरमखिलं घोरसंसारमूलं।
ध्यानध्येयप्रमुखसुतप:कल्पनामात्ररम्यम्।
बुद्ध्वा धीमान्-सहजपरमानन्दपीयूषपूरे
निर्मज्जन्तं सहजपरमात्मानमेकं प्रपेदे।।१२५।।
अर्थ-आत्मा के ध्यान से भिन्न अन्य सभी कुछ घोर संसार का मूल कारण है और ध्यान-ध्येय भेद हैं प्रमुख जिसमें ऐसा जो सम्यक््â तप है वह भी कल्पना मात्र से सुन्दर है, ऐसा समझकर बुद्धिमान साधु सहज परमानंद रूपी अमृत के पूर में डुबकी लगाते हुये ऐसे एक सहज परमात्मा को प्राप्त कर लेते हैं।
भावार्थ-तपश्चरण के बारह भेदों में ध्यान तप अंतिम है वह निर्विकल्परूप- एकाग्रस्थिति रूप होता है। यदि ध्याता में ध्यान और ध्येय के विकल्प विद्यमान हैं तो वह ध्यानरूप तप ध्यान नाम को प्राप्त तो हो रहा है किन्तु वास्तविक कार्य की सिद्धि नहीं कर पाता है इसलिये इसे कल्पना मात्र से ही सुन्दर कह दिया है। वास्तव में वीतराग निर्विकल्प समाधिरूप शुक्ल ध्यान से ही कर्मों का नाश होकर सहज परमात्मा रूप अर्हंतावस्था प्रगट होती है अन्यथा नहीं यहाँ यह अभिप्राय है।
अनुष्टुप्– शुक्लध्यानप्रदीपोऽयं यस्य चित्तालये बभौ।
स योगी तस्य शुद्धात्मा प्रत्यक्षो भवति स्वयं।।१२४।।
अर्थ-यह शुक्ल ध्यान रूपी प्रदीप जिसके मनरूपी गृह में सुशोभित हो रहा है वह योगी है, उसके स्वयं शुद्ध आत्मा प्रत्यक्ष हो जाता है।
भावार्थ-शुक्ल ध्यान के बल से ही आत्मा में शुद्ध परमात्मा प्रगट हो जाता है अन्यथा नहीं ऐसा अभिप्राय है।
इन्द्रवङ्काा– निर्यापकाचार्यनिरुक्तियुक्ता-
मुक्तिं सदाकर्ण्य च यस्य चित्तम्।
समस्तचारित्रनिकेतनं स्यात्
तस्मै नम: संयमधारिणेऽस्मै।।१२५।।
अर्थ-निर्यापक आचार्यों की निरुक्ति-व्याख्या सहित (प्रतिक्रमण आदि संबंधी) कथन को सदा सुनकर जिनका हृदय समस्त चारित्र का निवासगृह हो चुका है ऐसे उन संयमधारी मुनि को मेरा नमस्कार होवे।
बसंततिलका– यस्य प्रतिक्रमणमेव सदा मुमुक्षो-
र्नास्त्यप्रतिक्रमणमप्यणुमात्रमुच्चै:।
तस्मै नम: सकलसंयमभूषणाय
श्री वीरनन्दिमुनिनामधराय नित्यम्।।१२६।।
अर्थ-जिन मुमुक्षु के सदा प्रतिक्रमण ही है और अणुमात्र भी अप्रतिक्रमण नहीं है। अतिशयरूप से सकलसंयम ही है भूषण जिनका, ऐसे उन श्री वीरनंदि नाम के मुनिराज को नित्य ही मेरा नमस्कार होवे।
भावार्थ-यहाँ पर टीकाकार श्री मुनिराज ने संयम के स्थानस्वरूप ऐसे श्री वीरनन्दि मुनिराज को नमस्कार किया है। ये इनके शिक्षा गुरु आदि कोई गुरु अवश्य ही होंगे ऐसा प्रतीत होता है। इस प्रकार से यहाँ इस अधिकार में निश्चय प्रतिक्रमण के स्वरूप का वर्णन करते हुए अन्तिम गाथा में श्री आचार्यदेव ने व्यवहार प्रतिक्रमण को भी करने का आदेश स्पष्ट किया है।इस प्रकार से नियमसार की तात्त्पर्यवृत्ति टीका से उद्धृत कलश काव्य के भाषानुवाद रूप निश्चय प्रतिक्रमण अधिकार नामक पांचवां श्रुतस्कंध पूर्ण हुआ।