स्रग्धरा– आलोच्यालोच्य नित्यं सुकृतमसुकृतं घोरसंसारमूलं
शुद्धात्मानं निरुपधिगुणं चात्मनैवावलम्बे।
पश्चादुच्चै: प्रकृतिमखिलां द्रव्यकर्मस्वरूपां
नीत्वा नाशं सहजविलसद्बोधलक्ष्मीं व्रजामि।।१५२।।
अर्थ-घोर संसार के लिये मूल ऐसे सुकृत और दुष्कृत की नित्य ही बार-बार आलोचना करके उपाधि रहित गुणों से युक्त ऐसी अपनी शुद्ध आत्मा का अपनी आत्मा के द्वारा ही मैं अवलंबन लेता हूँ। अनंतर द्रव्यकर्म स्वरूप समस्त प्रकृतियों को अत्यंत रूप से नाश करके सहज विलासरूप ऐसी बोध-केवलज्ञान लक्ष्मी को प्राप्त करता हूँ।
भावार्थ-जो पुण्य और पाप इन दोनों की आलोचना हो रही है वह अवस्था शुद्धोपयोगी परम वीतरागी मुनियों की होती है कि जहाँ पर दशवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म का जड़मूल से नाशकर पुन: शीघ्र ही बारहवें गुणस्थान के अंत में शेष घातिया कर्मों का नाश कर देते हैं और तत्क्षण ही केवलज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं। छठे गुणस्थान तक मुनियों के केवल पापकर्मों की आलोचना होती है पुण्य की नहीं तथा यहाँ जो पुण्य को भी घोर संसार का मूल कहा है वह सामान्य कथन है किन्तु विशेष कथन में सम्यक्त्व सहित पुण्य परम्परा से मोक्ष का कारण है और सम्यक्त्व रहित पुण्य भी कदाचित् सम्यक्त्व आदि में कारण है। कदाचित् वापस सुख भोग के अनंतर पाप में प्रवृत्ति कराकर संसार में भ्रमाता ही रहता है अत: सर्वथा एकांत नहीं समझना, क्योंकि ‘‘पुण्यफला अरिहंता१’’ ऐसा श्री कुंदकुंददेव का ही कथन है।
इन्द्रवङ्काा– आलोचनाभेदममुं विदित्वा
मुक्त्यंगनासंगमहेतुभूतम् ।
स्वात्मस्थितिं याति हि भव्यजीव:
तस्मै नम: स्वात्मनि निष्ठिताय।।१५३।।
अर्थ-मुक्तिसुन्दरी के संगम के कारणभूत ऐसे इन आलोचना के भेदों को जानकर भव्य जीव निश्चित रूप से अपनी आत्मा में ही स्थिति को प्राप्त होते हैं। उन अपनी आत्मा में निष्ठित-विराजमान साधुओं को मेरा नमस्कार होवे।
भावार्थ-इससे मुनिराज की साधुओं के गुणों में अनुराग रूप विशेष भक्ति प्रगट हो रही है क्योंकि जो जिस गुण का इच्छुक होता है वह उस गुण से युक्त की उपासना अवश्य करता है।
स्रग्धरा– आत्मा ह्यात्मानमात्मन्यविचलनिलयं चात्मना पश्यतीत्थं
यो मुक्तिश्रीविलासानतनुसुखमयान् स्तोककालेन याति।
सोऽयं वंद्य: सुरेशैर्यमधरततिभि: खेचरैर्भूचरैर्वा
तं वंदे सर्ववंद्यं सकलगुणनिधिं तद्गुणापेक्षयाहम्।।१५४।।
अर्थ-इस प्रकार से जो आत्मा अपनी आत्मा में अपनी आत्मा के द्वारा ही अविचलस्थानरूप ऐसी आत्मा को देखता है वह अनंगसुखमय-अतीन्द्रियसुखमय मुक्तिलक्ष्मी के विलास को अल्प समय में प्राप्त कर लेता है। सो यह आत्मा सुरेन्द्रों से, संयमधारी मुनियों के समूह से, विद्याधरों से और भूमिगोचरियों से वंद्य है ऐसे सभी से वंद्य सम्पूर्ण गुणों के निधान उस आत्मा की मैं उन गुणों की अपेक्षा होने से वंदना करता हूँ।
भावार्थ-अपनी आत्मा में अपने द्वारा ही षट्कारकी लगाने से जो साधु अपने आप में ही स्थिर हो जाता है वह लोक में सभी के द्वारा वंदनीय हो जाता है तथा मोक्ष सुख को भी प्राप्त कर लेता है इसलिये श्री पद्मप्रभमलधारीदेव ने यहाँ पर उन निश्चय रत्नत्रय से परिणत आत्मा को नमस्कार किया है।
मंदाक्रांता-आत्मा स्पष्ट: परमयमिनां चित्तपंकेजमध्ये
ज्ञानज्योति:प्रहतदुरितध्वान्तपुंज: पुराण:।
सोऽतिक्रान्तो भवति भविनां वाङ्मनोमार्गमस्मि-
न्नारातीये परमपुरुषे को विधि: को निषेध:।।१५५।।
अर्थ-परम संयमियों के हृदय सरोज के मध्य में यह आत्मा स्पष्ट है जो कि ज्ञानज्योति से पापरूपी अंधकार के पुंज को नष्ट कर चुका है तथा पुराण-प्राचीन है। वह आत्मा संसारी जीवों के वचन और मन के अगोचर है ऐसे इस आरातीय-प्राचीन परमपुरुष में क्या तो विधि है और क्या निषेध है ?
भावार्थ-परमोपेक्षासंयमी योगी वीतराग निर्विकल्प ध्यान में जिस आत्मा का ध्यान करते हैं वह आत्मा संसारी जीवों द्वारा न तो वचन से कही जा सकती है और न वे उसका अनुभव ही कर सकते हैं। वास्तव में ऐसी महान अवस्था को प्राप्त करते हुए महापुरुषों के लिये क्या ग्रहण करना शेष है और क्या तो छोड़ना शेष रहा है ? अर्थात् ग्रहण करने और छोड़ने के विकल्पों से दूर वे विकल्पातीत अवस्था को प्राप्त हो चुके हैं। हाँ, इतना अवश्य है कि प्रारम्भिक अवस्था में उन्होंने परिग्रहादि को विभाव भावों को भी छोड़ा है और महाव्रतादि रूप व्यवहार चारित्र को ग्रहण किया ही है अन्यथा यह अवस्था प्राप्त होना असंभव थी।
पृथ्वी– जयत्यनघचिन्मयं सहजतत्त्वमुच्चैरिदं
विमुक्तसकलेन्द्रियप्रकरजातकोलाहलम्।
नयानयनिकायदूरमपि योगिनां गोचरं
सदा शिवमयं परं परमदूरमज्ञानिनाम्।।१५६।।
अर्थ-निर्दोष चैतन्यमय यह सहज तत्त्व अतिशय रूप से जयशील हो रहा है जो कि सकल इन्द्रिय समूह से उत्पन्न हुए कोलाहल से रहित है। नय और कुनय के समूहों से दूर होते हुए भी योगियों के गोचर है, सदा शिवमय है, उत्कृष्ट है और जो अज्ञानियों के लिये बहुत ही दूर है।
मंदाक्रांता-शुद्धात्मानं निज सुखसुधावार्धिमज्जन्तमेनं
बुद्ध्वा भव्य: परमगुरुत: शाश्वतं शं प्रयाति।
तस्मादुच्चैरहमपि सदा भावयाम्यत्यपूर्वं
भेदाभावे किमपि सहजं सिद्धिभूसौख्यशुद्धम्।।१५७।।
अर्थ-जो शुद्धात्मा अपने सुख रूपी अमृत के समुद्र में डुबकी लगा रही है ऐसी इस आत्मा को भव्यजीव परम गुरु के प्रसाद से जान करके शाश्वत सुख को प्राप्त कर लेते हैं इसलिये मैं भी अतिअपूर्व उस आत्मा की अतिशय रूप से सदा भावना करता हूँ जो कि सिद्धि से उत्पन्न हुए सुखरूप शुद्ध है, भेद के अभाव में कोई एक अद्भुत है, सहज-स्वभाव रूप है।
बसंततिलका– निर्मुक्तसंगनिकरं परमात्मतत्त्वं
निर्मोहरूपमनघं परभावमुक्तम्।
संभावयाम्यहमिदं प्रणमामि नित्यं
निर्वाणयोषिदतनूद्भवसंमदाय।।१५८।।
श्लोकार्थ-सम्पूर्ण परिग्रह से रहित, निर्मोहरूप, निर्दोष, परभावों से मुक्त ऐसे इस परमात्म तत्त्व को मैं निर्वाणसुन्दरी से उत्पन्न होने वाले अनंगसुख के लिये नित्य ही सम्यक् प्रकार से अनुभव करता हूँ और नमस्कार करता हूँ।
बसंततिलका– त्यक्त्वा विभावमखिलं निजभावभिन्नं
चिन्मात्रमेकममलं परिभावयामि।
संसारसागरसमुत्तरणाय नित्यं
निर्मुक्तिमार्गमपि नौम्यविभेदमुक्तम्।।१५९।।
अर्थ-अपने भाव से भिन्न ऐसे सकल विभाव को छोड़कर मैं निर्दोष एक चिन्मात्र की भावना करता हूँ। संसार सागर से पार होने के लिये अभेद रूप से कथित ऐसे मोक्षमार्ग को भी मैं नित्य ही नमस्कार करता हूँ।
मंदाक्रांता-एको भाव: स जयति सदा पंचम: शुद्धशुद्ध:
कर्मारातिस्फुटितसहजावस्थया संस्थितो य:।
मूलं मुक्तेनिखिलयमिनामात्मनिष्ठापराणा
मेकाकार: स्वरसविसरापूर्णपुण्य: पुराण:।।१६०।।
अर्थ-जो कर्मशत्रु से रहित प्रगट सहज अवस्था से विद्यमान है, आत्मा के स्वरूप में लीन हुए ऐसे सभी संयमियों के लिये मुक्ति का मूल कारण है, एक स्वरूप है, अपने रस-अनुभव के विस्तार से परिपूर्ण भरा हुआ होने से पुण्यरूप अर्थात् पवित्र है और जो पुराण-सनातन है वह शुद्ध में भी शुद्ध परिपूर्ण शुद्ध है ऐसा एक पंचमभाव सदा जयशील हो रहा है।
मंदाक्रांता-आसंसारादखिलजनतातीव्रमोहोदयात्सा
मत्ता नित्यं स्मरवशगता स्वात्मकार्यप्रमुग्धा।
ज्ञानज्योतिर्धवलितककुभ्मंडलं शुद्धभावं
मोहाभावात्स्फुटितसहजावस्थमेषा प्रयाति।।१६१।।
अर्थ-अनादिकालीन संसार से यह अखिल जनसमूह तीव्र मोह के उदय से मत्त है, नित्य ही काम के वशीभूत है और अपनी आत्मा के कार्य में अत्यधिक मूढ़ है। यह जनसमूह मोह के अभाव से प्रगटित सहजावस्था रूप, ज्ञानज्योति से सर्व दिशाओं को धवलित करने वाले ऐसे इस शुद्ध भाव को प्राप्त कर लेता है।
भावार्थ-संसारी जीव अनादिकाल से मोह के उदय से अपने स्वभाव से पराङ्मुख हुए हैं और विषयों में लगे हुए हैं। कहा भी है-
अनादिविद्यादोषोत्थ-चतु:संज्ञाज्वरातुरा:।
शश्वत्स्वज्ञानविमुखा: सागारा: विषयोन्मुखा:।।सागार धर्मामृत।।
अनादिकालीन अविद्या के दोष से उत्पन्न हुये चार संज्ञा रूपी ज्वर से पीड़ित हो रहे हैं ऐसे सागार-गृहस्थ सदैव अपने आत्मज्ञान से विमुख हैं और विषयों में तत्पर हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में मोह के अभाव से जब ज्ञानज्योति प्रगट होती है तब वही सहज शुद्ध अवस्था का अनुभव कराती है।
मंदाक्रांता-आत्मा भिन्नो भवति सततं द्रव्यनोकर्मराशे-
रन्त:शुद्ध: शमदमगुणाम्भोजिनीराजहंस:।
मोहाभावादपरमखिलं नैव गृह्णाति सोऽयं
नित्यानंदाद्यनुपमगुणश्चिच्चमत्कारमूर्ति:।।१६२।।
अर्थ-आत्मा सदैव द्रव्यकर्म और नोकर्म समूह से भिन्न है, अंतरंग में शुद्ध है, शम दम गुणरूपी कमलिनी का राजहंस है अर्थात् कषायों का शमन और इन्द्रियों का दमन ये दो गुण प्रमुख हैं ये ही कमलिनी के सदृश हैं इसमें केलि करने वाला यह आत्मा राजहंस के समान है, नित्यानंद आदि अनुपम गुणस्वरूप और चिच्चमत्कार की मूर्तिस्वरूप सो यह आत्मा मोह के अभाव से अन्य सम्पूर्ण विभावों को नहीं ग्रहण करता है।
भावार्थ-जिस प्रकार राजहंस कमलों में केलि करता है उसी प्रकार आत्मा रूपी राजहंस शान्तभाव और जितेन्द्रियता रूपी गुणों में रमता है। वीरप्रभू का शासन शम दम शासन कहलाता है। ये दो गुण ही सम्पूर्ण गुणों की शोभा को बढ़ाने वाले हैं, इनके बिना अन्य गुण फीके हैं। इन गुणों को प्रमुख करके अनंत गुणपुंज आत्मा चैतन्यमयी चमत्कारिक मूर्ति स्वरूप है, विश्व में अलौकिक चमत्कार को प्रगट करने वाली है।
मंदाक्रांता-अक्षय्यान्तर्गुणमणिगण: शुद्धभावामृताम्भो-
राशौ नित्यं विशदविशदे क्षालितांह:कलंक:।
शुद्धात्मा य: प्रहतकरणग्रामकोलाहलात्मा
ज्ञानज्योति:प्रतिहततमोवृत्तिरुच्चैश्चकास्ति।।१६३।।
अर्थ-जो अक्षय, अंतर में गुणमणियों के समूह रूप है, जिसने अत्यन्त स्वच्छ ऐसे शुद्धभावरूपी अमृत के समुद्र में अपने पापरूपी कलंक को धो डाला है, जिसने इंद्रिय ग्रामों के कोलाहल को समाप्त कर लिया है तथा जिसने ज्ञानज्योति से अंधकार दशा को प्रकर्ष रूप से नष्ट कर दिया है ऐसी शुद्धात्मा अतिशय रूप से प्रकाशमान हो रही है।
बसंततिलका– संसारघोरसहजादिभिरेव रौद्रै-
र्दु:खादिभि: प्रतिदिनं परितप्यमाने।
लोके शमामृतमयीमिह तां हिमानीं
यायादयं मुनिपति: समताप्रसादात्।।१६४।।
अर्थ-संसार के घोर साहजिक इत्यादि भयंकर दु:खादिकों से प्रतिदिन संतप्त होते हुए इस जगत में ये मुनिनाथ समता के प्रसाद से शमभावरूप अमृतमयी हिमसमूह प्राप्त कर लेते हैं।
भावार्थ-संसार में साहजिक, मानसिक, शारीरिक और आगंतुक ऐसे चार प्रकार के दुख माने गये हैं जो बहुत ही भयंकर हैं। इनसे लोक संतप्त हो रहा है, अभिप्राय यह है कि इस लोक में रहने वाले संसारी प्राणी संतप्त हो रहे है ऐसे ही तप्तायमान हुए संसार में समतादेवी की उपासना के प्रसाद से मुनिराज ही शमभाव्ा रूप बर्फ के समूह को प्राप्त करके शीतलता का अनुभव करते हैं अन्य नहीं ‘परमेको मुनि: सुखी’ गुणभद्र स्वामी का भी कहना है-इस संसार में एक महामुनि ही सुखी हैं अर्थात् मुनिराज राग द्वेष को दूर करके परम समता भाव को धारण कर सकते हैं और उन्हें ही वीतरागता से जो सुख उत्पन्न होता है वह परम शांतिदायी है।
बसंततिलका- मुक्त: कदापि न हि याति विभावकायं
तद्धेतुभूतसुकृतासुकृतप्रणाशात् ।
तस्मादहं सुकृतदुष्कृतकर्मजालं
मुक्त्वा मुमुक्षुपथमेकमिह व्रजामि।।१६५।।
अर्थ-मुक्तजीव कभी भी विभाव भाव के समूह को प्राप्त नहीं होते हैं क्योंकि उनके उस विभाव के कारणभूत ऐसे शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों का अत्यन्त नाश हो गया है इसलिये मैं शुभ और अशुभ ऐसे सभी कर्मों को छोड़कर इस एक मुमुक्षु के मार्ग को प्राप्त करता हूँ।
भावार्थ-यहाँ पर ‘मुमुक्षु’ पद से वीतराग महामुनि के मार्ग को प्राप्त करने की बात है क्योंकि वीतराग निर्विकल्प समाधि में स्थित साधु ही पुण्य-पाप ऐसे सभी कर्मों का संवर करते हैं वे ही मुमुक्षु कहलाते हैं।
अनुष्टुप्– प्रपद्येऽहं सदाशुद्धमात्मानं बोधविग्रहम्।
भवमूर्तिमिमां त्यक्त्वा पुद्गलस्कन्धबंधुराम्।।१६६।।
अर्थ-पुद्गल स्कंधों से सुन्दर इस भवमूर्ति-देह को छोड़ करके मैं ज्ञानशरीरी और सदाकाल से शुद्ध ऐसी आत्मा को प्राप्त करता हूँ।
भावार्थ-सुन्दर-सुन्दर पुद्गल वर्गणाओं से बने हुए इस शरीर को नहीं छोड़ा जा सकता है किन्तु इससे ममता को छोड़कर ज्ञानमय, शुद्ध निश्चयनय से त्रिकाल शुद्ध ऐसी आत्मा का आश्रय लेने से यह जीव शरीर से छूटकर अशरीरी सिद्ध हो जाता है।
अनुष्टुप्– अनादिममसंसाररोगस्यागदमुत्तमम्।।
शुभाशुभविनिर्मुक्तशुद्धचैतन्यभावना।।१६७।।
अर्थ-शुभ-अशुभ भावों से रहित शुद्ध चैतन्य की भावना मेरे अनादिकालीन संसार रोग की उत्तम औषधि है अर्थात् शुद्धात्मा की भावना से ही संसार के जन्म-मरण रोग का नाश हो सकता है, अन्य से नहीं। हाँ ! इस औषधि के निर्माण के लिये जो भेद रत्नत्रय है वह ग्रहण करना ही होगा अन्यथा यह औषधि मिलना असंभव है।
मालिनी– अथ विविधविकल्पं पंचसंसारमूलं
शुभमशुभसुकर्म प्रस्फुटं तद्विदित्वा।
भवमरणविमुक्तं पंचमुक्तिप्रदं यं
तमहमभिनमामि प्रत्यहं भावयामि।।१६८।।
अर्थ-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव ऐसे पाँच प्रकार के संसार का मूल कारण अनेक भेदरूप जो शुभ-अशुभ कर्म है इस बात को स्पष्ट रूप से जानकर जन्म और मरण से रहित पंचमगति रूप मुक्ति को प्रदान करने वाला जो शुद्धात्मा है उसको मैं नमस्कार करता हूँ और प्रतिदिन उसकी भावना करता हूँ।
मालिनी-अथ सुललितवाचां सत्यवाचामपीत्थं
न विषयमिदमात्मज्योतिराद्यन्तशून्यम्।
तदपि गुरुवचोभि: प्राप्य य: शुद्धदृष्टि:
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूप:।।१६८।।
अर्थ-इस प्रकार यह आत्मज्योति आदि और अंत से शून्य है, सुललित वचनों के तथा सत्य वचनों के भी गोचर नहीं है फिर भी गुरुवचनों से उसे प्राप्त करके जो शुद्ध सम्यग्दृष्टि होता है वह परमश्री कामिनी अर्थात् मुक्तिरूपी सुन्दरी का वल्लभ हो जाता है।
भावार्थ-यह आत्मतत्त्व वचनों से नहीं कहा जा सकता है अनुभव का विषय है फिर भी गुरुओं के वचनों के बिना इसे प्राप्त भी नहीं किया जा सकता है यह अकाट्य नियम है। जितने भी जीव मोक्ष गए हैं उन्होंने गुरुओं के वचनों का अवलंबन अवश्य लिया है यहाँ तक कि सम्यक्त्व की उत्पत्ति में देशनालब्धि भी एक लब्धि मानी है जो कि गुरु के उपदेशरूप है। निसर्गज सम्यग्दर्शन जिसको हुआ है उसे भी पूर्व में कभी गुरूपदेश रूप देशनालब्धि अवश्य मिल चुकी है।
मालिनी– जयतिसहजतेज:प्रास्तरागान्धकारो
मनसि मुनिवराणां गोचर: शुद्धशुद्ध:।
विषयसुखरतानां दुर्लभ: सर्वदायं
परमसुखसमुद्र: शुद्धबोधोऽस्तनिद्र:।।१७०।।
अर्थ-जिसने सहज स्वाभाविक तेज से राग रूपी अंधकार को अत्यन्त रूप से समाप्त कर दिया है, जो मुनिवरों के मन में वास करता है शुद्ध में भी शुद्ध अर्थात् परिपूर्ण शुद्ध है, विषयसुख में आसक्त हुए जीवों को हमेशा दुर्लभ है, परम सुख का समुद्र है और जिसने निद्रा को समाप्त कर दिया है ऐसा शुद्ध ज्ञानस्वरूप आत्मा जयशील हो रहा है।
भावार्थ-शुद्ध निश्चयनय से शुद्ध ज्ञानमय आत्मा का ध्यान वीतरागी मुनि ही करते हैं। वास्तव में छठे गुणस्थानवर्ती मुनि उसकी भावना करते हैं किन्तु जो विषय सुखों में रत हैं ऐसे गृहस्थों के लिये इस शुद्धात्मा का ध्यान कठिन है। जो वस्त्र सहित तथा विषयासक्त होकर भी शुद्धात्मा के ध्यान की बात करते हैं वे अनर्गल प्रलाप करते हैं। उन्हें पहले पंचपरमेष्ठी के अवलंबनरूप ध्यान का अभ्यास ही श्रेयस्कर है और वही उनके लिए शक्य है। शुद्धोपयोग की प्राप्ति के लिये सर्व परिग्रह का त्याग परमावश्यक है।
मालिनी– अथ जिनपतिमार्गालोचनाभेदजालं
परिहृतपरभावो भव्यलोक: समन्तात्।
तदखिलमवलोक्य स्वस्वरूपं च बुद्धव
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूप:।।१७१।।
अर्थ-भव्य जीव जिनेन्द्रदेव के शासन में कहे हुए आलोचना के भेदों को सम्पूर्ण रूप से अवलोकित कर तथा अपने स्वरूप को जानकर सब ओर से परभावों को छोड़ देते हैं वे मुक्तिवल्लभा के प्रियवल्लभ हो जाते हैं।
बसंततिलका– आलोचना सततशुद्धनयात्मिका या
निर्मुक्तमार्गफलदा यमिनामजस्रम्।
शुद्धात्मतत्त्वनियताचरणानुरूपा
स्यात्संयतस्य मम सा किल कामधेनु:।।१७२।।
अर्थ-जो आलोचना सतत शुद्ध नयस्वरूप है, संयमीजनों को सदा ही मोक्षमार्ग के फल को देने वाली है, शुद्धात्मतत्त्व में निश्चित आचरणरूप है वह मुझ (पद्मप्रभ) संयत के लिये निश्चित रूप से कामधेनु रूप होवे।
भावार्थ-यहाँ टीकाकार श्री पद्मप्रभमलधारीदेव प्रार्थना करते हुये कहते हैं कि यह निश्चय आलोचना मुझे कामधेनु के समान इच्छित फलदायी होवे। जैसे कामधेनु विद्यारूप एक गाय होती है वह जब चाहो तब इच्छानुसार मधुर दूध देती ही रहती है चाहे जितना भी आप ले सकते हैं उसी प्रकार से निश्चयनय रूप आलोचना जब इच्छित मोक्ष फल को भी जब चाहो तब दे देती है तो और किसी लौकिक फल की तो बात ही क्या है ? वे तो मिल ही जाते हैं अथवा तद्भव मोक्षगामी के लिये यह आलोचना लौकिक फल के सर्वथा अभाव से ही उत्पन्न होती है और अलौकिक फल को ही देने वाली है।
शालिनी– शुद्धं तत्त्वं बुद्धलोकत्रयं यद्
बुद्ध्वा बुद्ध्वा निर्विकल्पं मुमुक्षु:।
तत्सिद्ध्यर्थं शुद्धशीलं चरित्वा
सिद्धिं यायात् सिद्धिसीमन्तिनीश:।।१७३।।
अर्थ-मुमुक्षुजीव तीन लोक को जानने वाले निर्विकल्प ऐसे शुद्धतत्त्व को पुन:-पुन: जानकर उसकी सिद्धि के लिए शुद्धशील-चारित्र का आचरण करके सिद्धिकांता के स्वामी होते हुए सिद्धि को प्राप्त कर लेते हैं।
स्रग्धरा– सानन्दं तत्त्वमज्जज्जिनमुनिहृदयाम्भोजिंकजल्कमध्ये
निर्व्याबाधं विशुद्धं स्मरशरगहनानीकदावाग्निरूपम्।
शुद्धज्ञानप्रदीपप्रहतयमिमनोगेहघोरान्धकारं
तद्वन्दे साधुवन्द्यं जननजलनिधौ लंघने यानपात्रम्।।१७४।।
अर्थ-तत्व में निमग्न होते हुए ऐसे जिनमुनि के हृदय कमल की केसर में जो आनन्द सहित विद्यमान है, बाधारहित है, विशुद्ध है, कामदेव के बाणों की गहन सेना को भस्मसात् करने के लिये दावानत अग्नि रूप है और जिसने शुद्धज्ञानरूपी दीपक के द्वारा संयमियों के मनोमन्दिर के घोर अंधकार को समाप्त कर दिया है तथा जो साधुओं से वंदनीय है, संसार सागर को पार करने के लिए जहाज के सदृश है ऐसे उस तत्त्व को मैं वंदन करता हूँ।
भावार्थ-यह शुद्धात्मतत्त्व जो तत्त्वज्ञानी मुनिराज हैं उनके हृदय में विराजमान है और उपर्युक्त विशेषणों से विशिष्ट हुआ भव्य जीवों को संसार के दुखों से छुड़ा देता है।
हरिणी– अभिनवमिदं पापं याया: समग्रधियोऽपि ये
विदधति परं ब्रूम: िंक ते तपस्विन एव हि।
हृदि विलसितं शुद्धं ज्ञानं च िंपडमनुत्तमं
पदमिदमहो ज्ञात्वा भूयोऽपि यान्ति सरागताम्।।१७५।।
अर्थ-हम पूछते हैं कि जो परिपूर्ण जानकार होते हुये भी, इस नवीन पाप को करो’ ऐसा अन्य को कहते हैं क्या वे तपस्वी हैं ? अहो ! आश्चर्य की बात है कि हृदय में शोभायमान, शुद्ध, ज्ञानस्वरूप िंपडमय और सर्वोत्तम इस पद को जानकर पुनरपि सरागता को प्राप्त हो जाते हैं।
भावार्थ-निर्विकल्प तत्त्व की भावना से परिणत हुए साधु कर्मास्रव के लिए कारणभूत ऐसी क्रियाओं को करने का उपदेश नहीं देते हैं। यदि छठे गुणस्थान में आकर देते हैं तो वे सरागी कहलाते हैं। यहाँ टीकाकार आश्चर्यपूर्ण शब्दों में या खेदपूर्ण शब्दों में कहते हैं कि एक बार वीतरागता को प्राप्त करने के बाद पुनरपि सराग अवस्था को क्यों प्राप्त होते हैं। वास्तव में अंतर्मुहूर्त से अधिक निर्विकल्प ध्यान की स्थिति होती नहीं है इसलिये जानते हुये भी मुनिजन छठे गुणस्थान में आकर संघ संरक्षण, पोषण आदि शुभोपयोग में प्रवृत्त होते हैं किन्तु महामुनियों के लिये यह उत्सर्गमार्ग नहीं है।
हरिणी– जयति सहजं तत्त्वं तत्त्वेषु नित्यमनाकुलं
सततसुलभं भास्वत्सम्यग्दृशां समतालयम्।
परमकलया सार्धं वृद्धं प्रवृद्धगुणैर्निजै:
स्फुटितसहजावस्थं लीनं महिम्नि निजेऽनिशम्।।१७६।।
अर्थ-तत्त्वों में जो सहज तत्त्व है वह नित्य ही अनाकुल है, सतत सुलभ है, प्रकाशशील है, सम्यग्दृष्टियों के लिये समता का निकेतन है, परमकला से सहित अपने प्रवृद्धमान गुणों के साथ-साथ वृद्धिंगत है, प्रगटित सहज अवस्था रूप है और निरन्तर अपनी महिमा में लीन है ऐसा यह तत्त्व जयशील हो रहा है।
हरिणी– सहजपरमं तत्त्वं तत्त्वेषु सप्तसु निर्मलं
सकलविमलज्ञानावासं निरावरणं शिवम्।
विशदविशदं नित्यं बाह्यप्रपंचपराङ्मुखं
किमपि मनसां वाचां दूरं मुनेरपि तन्नुम:।।१७७।।
अर्थ-जो सहज परमतत्त्व सात तत्त्वों में निर्मल है, सकल विमलज्ञान-केवलज्ञान का निवासगृह है, आवरणरहित है शिव-कल्याण रूप है, अति स्पष्ट है, नित्य है, बाह्य प्रपंचों से पराङ्मुख है तथा कोई एक अद्भुत है, मुनि के भी मन और वचनों से दूर है, ऐसे इस तत्त्व को हम नमस्कार करते हैं।
भावार्थ-यहाँ पर इस तत्त्व को मुनि के भी मन तथा वचन से दूर कह दिया है, अभिप्राय यह है कि शुक्लध्यान रूप वीतराग निर्विकल्प समाधि की अवस्था में वीतरागी मुनियों के अनुभव का ही विषय है। इस परमतत्त्व के प्राप्त होते ही केवलज्ञान प्रगट हो जाता है। यह अवस्था बारहवें गुणस्थान की है ऐसा समझना।
द्रुतविलंबित-जयति शांत रसामृतवारिधि-प्रतिदिनोदयचारुहिमद्युति:।
अतुलबोधदिवाकरदीधिति-प्रहतमोहतमस्समितिर्जिन:।।१७८।।
अर्थ-शांत रस रूपी अमृत समुद्र को प्रतिदिन वृद्धिंगत करते हुए ऐसे सुन्दर चन्द्रमा रूप तथा अतुल ज्ञानरूपी सूर्य की किरणों से मोहध्वांत के समूह को प्रकृष्ट रूप से नष्ट करने वाले ऐसे जिनभगवान जयशील होते हैं।
द्रुतविलंबित-विजितजन्मजरामृतिसंचय: प्रहतदारुणरागकदम्बक:।
अघमहातिमिरव्रजभानुमान् जयति य: परमात्मपदस्थित:।।१७९।।
अर्थ-जिन्होंने जन्म, जरा और मरण के समूह को जीत लिया है, जिन्होंने दारुण राग के समुदाय को प्रकर्ष रूप से नष्ट कर दिया है, जो पापरूपी महातिमिर समूह को समाप्त करने के लिये सूर्य हैं ऐसे जो परमात्मपद में स्थित हैं वे सदा जयवंत हो रहे हैं।
विशेषार्थ-इस आलोचना के अधिकार में आचार्यदेव ने शुद्धनय के आश्रित ऐसी निश्चय आलोचना का ही विस्तार से वर्णन किया है। वास्तव में जो साधु व्यवहार चर्या में पूर्ण निष्णात हैं वे निष्पन्न योगी ही इस निश्चय आलोचना को प्राप्त कर सकते हैं। फिर भी सामान्य साधुओं को भी इसकी भावना सदैव करते रहना चाहिये। जो श्रावक या अव्रती सम्यग्दृष्टि हैं उनका कर्त्तव्य है कि इस आलोचना के प्राप्त कराने वाले ऐसे व्यवहार चारित्र में रुचि रखते हुए उसको पूर्ण कराने में कारणभूत ऐसे साधुओं का समागम करना चाहिये और अपने पद के योग्य क्रियाओं में पूर्ण सावधानी रखते हुए अपने दोषों की भी आलोचना करते रहना चाहिये।
इस प्रकार से निमयसार की तात्पर्यवृत्ति टीका से उद्धृत कलश काव्य के भाषानुवाद रूप परम आलोचना अधिकार नामक सातवां श्रुतस्कन्ध पूर्ण हुआ।