मंदाक्रांता– सम्यक्त्वेऽस्मिन् भवभयहरे शुद्धबोधे चरित्रे
भक्तिं कुर्यादनिशमतुलां यो भवच्छेददक्षाम्।
कामक्रोधाद्यखिल- दुरघव्रातनिर्मुक्तचेता
भक्तो भक्तो भवति सततं श्रावक: संयमी वा।।२२०।।
अर्थ-जो जीव भवभय को हरने वाले ऐसे इस सम्यक्त्व में, शुद्ध ज्ञान में और चारित्र में हमेशा भव का छेद करने में दक्ष भक्ति को करता है, वह काम क्रोधादि अखिल पापसमूह से रहित चित्त वाला होता हुआ श्रावक हो या संयमी हो, भक्त है, भक्त है।
विशेषार्थ-इस ग्रंथ में मुनियों के भेदाभेद रत्नत्रय का ही वर्णन है, उसमें भी शुद्ध रत्नत्रय ही प्रधान है अत: श्रावकों के सिवाय सर्वत्र आचार्यदेव ने संयत, संयमी, श्रमण मुनि और साधु इन शब्दों का ही प्रयोग किया है किन्तु यहाँ पर भक्ति का प्रकरण होने से श्रावकों को भी ले लिया है क्योंकि श्रावक भी रत्नत्रय की आराधना, उपासना हैं तथा वे एकदेश रत्नत्रय से सहित ऐसे अणुव्रती भी होते हैं।
अनुष्टुप्– उद्धूतकर्मसंदोहान् सिद्धान् सिद्धिवधूधवान्।
संप्राप्ताष्टगुणैश्वर्यान्, नित्यं वन्दे शिवालयान्।।२२१।।
अर्थ-जिन्होंने कर्मसमूह को धो डाला है, जो सिद्धिवधू के पति हैं तथा जिन्होंने आठ गुणों के ऐश्वर्य को प्राप्त कर लिया है, जो शिवालय-कल्याण के निवास गृह हैं ऐसे उन समस्त सिद्धों को मैं नित्य ही वंदन करता हूँ।
आर्या-व्यवहारनयस्येत्थं निर्वृतिभक्तिर्जिनोत्तमै: प्रोक्ता।
निश्चयनिर्वृतिभक्ती रत्नत्रयभक्तिरित्युक्ता।।२२२।।
अर्थ-इस प्रकार से व्यवहारनय की यह निर्वाणभक्ति जिनवरों ने कही है तथा रत्नत्रय की भक्ति ही निश्चय निर्वाण भक्ति है, ऐसा कहा है।
आर्या– नि:शेषदोषदूरं केवलबोधादिशुद्धगुणनिलयम्।
शुद्धोपयोगफलमिति सिद्धत्वं प्राहुराचार्या:।।२२३।।
अर्थ-नि:शेष (सम्पूर्ण) दोषों से दूर, केवलज्ञानादि शुद्ध गुणों के स्थान ऐसे सिद्धपद को आचार्यों ने शुद्धोपयोग का फल कहा है।
शार्दूलविक्रीडित– ये लोकाग्रनिवासिनो भवभवक्लेशार्णवान्तं गता
ये निर्वाणवधूटिकास्तनभराश्लेषोत्थसौख्याकरा:।
ये शुद्धात्मविभावनोद्भवमहावैâवल्यसंपद्गुणा
स्तान् सिद्धानभिनौम्यहं प्रतिदिनं पापाटवीपावकान्।।२२४।।
अर्थ-जो लोक के अग्रभाग में निवास करते हैं, जो भव-भव के क्लेशरूपी समुद्र के पार को प्राप्त हो चुके हैं, जो निर्वाण वधू के पुष्ट स्तन के आलिंगन से उत्पन्न हुए ऐसे सौख्य की खान हैं, जो शुद्ध आत्मा की भावना से उत्पन्न हुए कैवल्य संपदा रूपी महागुणों से सहित हैं और पाप रूपी वनी को दग्ध करने के लिये अग्निस्वरूप हैं, ऐसे उन सिद्धों को मैं प्रतिदिन नमस्कार करता हूँ।
शार्दूलविक्रीडित– त्रैलोक्याग्रनिकेतनान् गुणगुरून् ज्ञेयाब्धिपारंगतान्
मुक्तिश्रीवनितामुखाम्बुजरवीन् स्वाधीनसौख्यार्णवान्।
सिद्धान् सिद्धगुणाष्टकान् भवहरान् नष्टाष्टकर्मोत्करान्
नित्यान् तान् शरणं व्रजामि सततं पापाटवीपावकान्।।२२५।।
अर्थ-तीन लोक का अग्रभाग ही जिनका निवासगृह है, जो गुणों से गुरु-भारी श्रेष्ठ-गंभीर हैं, जो ज्ञेयरूपी समुद्र के पारंगत हैं, जो मुक्तिलक्ष्मी रूपी सुन्दरी के मुखकमल को विकसित करने के लिये सूर्य हैं, जो स्वाधीन सौख्य के समुद्र हैं, जिन्होंने आठ गुणों को सिद्ध कर लिया है, जो भव के हरने वाले हैं, जिन्होंने आठ कर्मों के समूहों को नष्ट कर दिया है, जो शाश्वत रूप हैं, ऐसे उन पापरूपी वन को भस्म करने के लिए अग्निस्वरूप सिद्धों की मैं सदा ही शरण ग्रहण करता हूँ।
बसंततिलका– ये मर्त्यदेवनिकुरम्बपरोक्षभक्ति-
योग्या:सदा शिवमया: प्रवरा: प्रसिद्धा:।
सिद्धा: सुसिद्धिरमणीरमणीयवक्त्र-
पंकेरुहोरुमकरंदमधु्रव्रता: स्यु:।।२२६।
अर्थ-जो मनुष्यों के तथा देवों के परोक्ष भक्ति के योग्य हैं, सदा शिवमय-कल्याण स्वरूप हैं, श्रेष्ठ हैं तथा प्रसिद्ध हैं वे सिद्ध भगवान सुसिद्धि रूपी रमणी के रमणीय मुखकमल की श्रेष्ठ मकरंद-पराग के लिये भ्रमर सदृश हैं।
भाषार्थ-सिद्धों के स्थान पर विद्याधर या ऋद्धिधारी मुनि अथवा देवतागण आदि भी नहीं पहुँच सकते हैं इसीलिये ये सब उन सिद्धों की परोक्ष से ही भक्ति करते हैं। अन्यत्र अर्हंतदेव के समवशरण में तथा अकृत्रिम जिनालय आदि में सर्वत्र देवतागण प्रत्यक्ष से भक्ति करते हैं और मनुष्य भी अर्हंतों के समवसरण में तथा ढाईद्वीप के चैत्यालयों में प्रत्यक्ष भक्ति करते हैं। अन्यत्र चैत्यालयों की परोक्ष भक्ति करते हैं।
स्रग्धरा– आत्मा ह्यात्मानमात्मन्यविचलित-महाशुद्धरत्नत्रयेऽस्मिन्
नित्ये निर्मुक्तिहेतौ निरुपमसहजज्ञानदृक््âशीलरूपे।
संस्थाप्यानंदभास्वन्निरतिशयगृहं चिच्चमत्कारभक्त्या
प्राप्नोत्युच्चैरयं यं विगलितविपदं सिद्धिसीमन्तिनीश:।।२२७।।
अर्थ-इस अविचल महाशुद्ध रत्नत्रय स्वरूप, मुक्ति के लिये कारणभूत उपमारहित सहजज्ञान, दर्शन और शीलरूप ऐसी नित्य आत्मा में आत्मा को स्थापित करके यह आत्मा चैतन्य चमत्कार की भक्ति द्वारा आनन्द से शोभायमान, निरतिशय स्थानरूप तथा विपदाओं से विरहित ऐसे पद को अतिशय रूप से प्राप्त कर लेता है और वह सिद्धि रूपी भार्या का स्वामी हो जाता है।
भावार्थ-आत्मा को आत्मा के द्वारा आत्मा के लिये आत्मा में ही स्थिर करके ध्यान करने वाला ध्याता इस निश्चय भक्ति रूप निर्विकल्प समाधि के अक्षय पदस्वरूप सिद्ध स्थान को प्राप्त कर लेता है।
अनुष्टुप्– आत्मानमात्मनात्मायं युनक्त्येव निरन्तरम्।
स योगभक्तियुक्त: स्यान्निश्चयेन मुनीश्वर:।।२२८।।
अर्थ-जो यह आत्मा आत्मा को निरन्त्ार आत्मा के साथ ही जोड़ता है निश्चय से वह मुनीश्वर योगभक्ति से युक्त होता है।
भावार्थ-ध्यान में तत्पर हुए तथा ग्रीष्मकाल में पर्वत की चोटी पर, वर्षाऋतु में वृक्ष के नीचे एवं शिशिर ऋतु के खुले स्थान में या नदी के किनारे ध्यान करने वाले त्रिकाल योग में तत्पर हुए साधु योगी कहलाते हैं उनके गुणों का स्तवन करते हुए मन से, वचन से और काय से भक्ति करना ही व्यवहार से योगभक्ति है और आत्मा में ही अपनी आत्मा को स्थिर करना निश्चय योगभक्ति है।
अनुष्टुप्– भेदाभावे सतीयं स्याद्योगभक्तिरनुत्तमा।
तयात्मलब्धिरूपा सा मुक्तिर्भवति योगिनाम्।।२२९।।
अर्थ-भेद का अभाव हो जाने पर यह सर्वोत्तम योग भक्ति होती है, उस भक्ति के द्वारा योगियों को वह आत्मा के स्वरूप की उपलब्धि रूप मुक्ति होती है।
बसंततिलका– तत्त्वेषु जैनमुनिनाथमुखारविंद-
व्यक्तेषु भव्यजनताभवघातकेषु।
त्यक्त्वा दुराग्रहममुं जिनयोगिनाथ:
साक्षाद्युनक्ति निजभावमयं स योग:।।२३०।।
अर्थ-इस दुराग्रह को छोड़कर, जैन मुनिनाथ ऐसे गणधरदेवों के मुखकमल से व्यक्त-प्रगट हुए और भव्यजनों के भवों का घात करने वाले ऐसे तत्त्वों में जिन योगिनाथ साक्षात् अपने भाव को लगाते हैं, सो वह भाव ही योग है।
भावार्थ-जिनेन्द्र के मुखकमल से निकली हुई और गणधरदेवों द्वारा ग्रंथरूप कही गई जो वाणी है आज भी परम्परागत आचार्यों द्वारा उसी का अंश अपने को उपलब्ध है। ऐसे श्रुत में प्रतिपादित तत्त्वों में जो महामुनि अपने भाव को स्थिर करते हैं वह स्थिर भाव ही योग अर्थात् ध्यान के नाम से कहा जाता है।
शार्दूलविक्रीडित– नाभेयादिजिनेश्वरान् गुणगुरून् त्रैलोक्यपुण्योत्करान्।
श्रीदेवेन्द्रकिरीटकोटिविलसन्माणिक्यमालार्चितान्।
पौलोमीप्रभृतिप्रसिद्धदिविजाधीशांगनासंहते:
शक्रेणोद्भवभोगहासविमलान् श्रीकीर्तिनाथान् स्तुवे।।२३१।।
अर्थ-जो गुणों से गुरु हैं, त्रैलोक्य के पुण्य की राशि हैं, श्री देवेन्द्रों के मुकुटों के अग्रभाग में सुशोभित हुए माणिक्य रत्नों की मालाओं से अर्चित हैं, शची आदि प्रसिद्ध इन्द्राणियों के समूह से सहित ऐसे इन्द्र के द्वारा हुए विमल भोग और ह्रास से सहित अर्थात् नृत्यगान आनन्द से युक्त है तथा श्री-अंतरंग-बहिरंग लक्ष्मी और कीर्ति के स्वामी हैं ऐसे वृषभादि जिनेश्वरों की मैं स्तुति करता हूँ।
भावार्थ-चौबीसों तीर्थंकर अपने अनंत गुणों से अतिशय भारी होने से त्रिभुवन के गुरु कहलाते हैं, तीनों लोकों में जितना भी पुण्य है उस सभी के पुंजस्वरूप हैं, देवेन्द्रगण उनको अपने रत्न खचित मुकुटों को झुकाकर नमस्कार करते हैं। सौधर्म इन्द्र सभी इन्दों और इन्द्राणियों के साथ भगवान के जन्मकल्याणक आदि में महान् महोत्सव करते हैं। वे तीर्थंकर तीनों जगत के भव्य जीवों द्वारा स्तुत्य हैं।
आर्या– वृषभादिवीरपश्चिमजिनपतयोप्येवमुक्तमार्गेण।
कृत्वा तु योगभक्तिं निर्वाणवधूटिकासुखं यान्ति।।२३२।।
अर्थ-वृषभदेव से लेकर वीर पर्यन्त जिनपति भी इस उपुर्यक्त मार्ग से योगभक्ति को करके निर्वाण वधू के सुख को प्राप्त कर लेते हैं।
आर्या– अपुनर्भवसिद्ध्यै कुर्वेऽहं शुद्धयोगवरभक्तिम्।
संसारघोरभीत्या सर्वे कुर्वन्तु जन्तवो नित्यम्।।२३३।।
अर्थ-अपुनर्भव के सुख की सिद्धि के लिये मैं शुद्ध योग की उत्तम भक्ति को करता हूँ, सभी संसारी प्राणी संसार के घोर दुखों की भीति से नित्य ही उस भक्ति को करो।
शार्दूलविक्रीडित-रागद्वेषपरंपरापरिणतं चेतो विहायाधुना
शुद्धध्यानसमाहितेन मनसानंदात्मतत्त्वस्थित:।
धर्मं निर्मलशर्मकारिणमहं लब्ध्वा गुरो: सन्निधौ
ज्ञानापास्तसमस्तमोहमहिमा लीये परब्रह्मणि।।२३४।।
अर्थ-गुरु के निकट में निर्मल सुखकारी धर्म को प्राप्त करके ज्ञान के द्वारा समस्त मोह की महिमा को जिसने नष्ट कर दिया है, ऐसा मैं अब राग और द्वेष की परम्परा से परिणत हुए चित्त को छोड़कर शुद्ध ध्यान से एकाग्रता को प्राप्त ऐसे मन से आनन्दस्वरूप आत्मतत्त्व में स्थित होता हुआ परब्रह्मरूप परमात्मा में लीन होता हूँ।
अनुष्टुप्– निर्वृतेन्द्रियलौल्यानां तत्त्वलोलुपचेतसाम्।
सुन्दरानंदनिष्यन्दं जायते तत्त्वमुत्तमम्।।२३५।।
अर्थ-जिन्होंने इन्द्रियों की लोलुपता को समाप्त कर दिया है और जिनका चित्त तत्त्वों में लोलुपी है ऐसे परमसाधु के सुन्दर आनन्द को झराने वाला उत्तम तत्त्व प्रगट होता है।
अनुष्टुप्– अत्यपूर्वनिजात्मोत्थभावनाजातशर्मणे।
यतन्ते यतयो ये ते जीवन्मुक्ता हि नापरे।।२३६।।
अर्थ-जो यतिगण अतिशय और अपूर्व अपनी आत्मा से उत्पन्न हुई भावना से होने वाले सुख के लिये यत्न करते हैं, वे ही जीवन्मुक्त हैं किन्तु अन्य नहीं है।
बसंततिलका– अद्वन्दनिष्ठमनघं परमात्मतत्त्वं
संभावयामि तदहं पुनरेकमेकम्।
किं तैश्च मे फलमिहान्यपदार्थसार्थै
र्मुक्तिस्पृहस्य भवशर्मणि नि:स्पृहस्य।।२३७।।
अर्थ-अद्वंद्व में लीन-रागद्वेषादि द्वंद्व से रहित, स्वरूप में स्थित, निर्दोष, केवल एकरूप ऐसे उस एक परमात्मतत्त्व की मैं पुन:-पुन: सम्यक््â प्रकार से भावना करता हूँ। मुक्ति की स्पृहा से सहित तथा भवसुख में नि:स्पृह ऐसे मुझे इस लोक में उन अन्य पदार्थों के समुदाय से क्या फल है ? अर्थात् कुछ भी नहीं है।
इस प्रकार से नियमसार की तात्पर्यवृत्ति टीका से उद्धृत कलश काव्य के भाषानुवाद रूप परम भक्ति अधिकार नामक दशवां श्रुतस्कंध पूर्ण हुआ।