वंशस्थ– समाधिना केनचिदुत्तमात्मनां
हृदि स्फुरन्तीं समतानुयायिनीम्।
यावन्न विद्म: सहजात्मसंपदं
न मादृशां या विषया विदामहि।।२००।।
अर्थ-किसी (एक अद्वितीय परम) समाधि के द्वारा उत्तम आत्माओं (उत्तम अंतरात्माओं) के हृदय में स्फुरायमान होती हुई, समताभाव की अनुयायिनी ऐसी सहज आत्मसंपत्ति का जब तक हम अनुभव नहीं करते हैं तब तक हम जैसे साधुओं के लिए विषयभूत जो कोई सुख है उसको नहीं समझ सकते हैं।
अनुष्टुप्– निर्विकल्पे समाधौ यो नित्यं तिष्ठति चिन्मये।
द्वैताद्वैतविनिर्मुक्तमात्मानं तं नमाम्यहम्।।२०१।।
अर्थ-जो चैतन्यमय निर्विकल्प समाधि में नित्य ही स्थित होते हैं, उन द्वैत और अद्वैत से निर्मुक्त ऐसी आत्मा को मैं नमस्कार करता हूँ।
द्रुतविलंबित– अनशनादितपश्चरणै: फलं, समतया रहितस्य यतेर्न हि।
तत इदं निजतत्त्वमनाकुलं, भज मुने! समताकुलमंदिरम्।।२०२।।
अर्थ-समता से रहित यति को अनशन आदि तपश्चरणों के द्वारा निश्चित रूप से फल नहीं है। इसलिये, हे मुने! समता का कुलमंदिर ऐसे इस आकुलतारहित निजतत्त्व को तुम भजो।
भावार्थ-यदि कोई साधु द्रव्यिंलगी है, श्रमण के सदृश दिखता है किन्तु भावश्रमण नहीं है तथा समताभाव से भी रहित है तो घोरातिघोर तपश्चरणों के द्वारा भी उसको आत्मसिद्धि रूप फल नहीं मिलेगा। हाँ ! मंदकषाय के द्वारा बाह्य चारित्र से उसे नव ग्रैवेयक तक अहमिन्द्र के सुख तो मिल भी सकते हैं किन्तु जो वास्तविक निर्वाण फल है वह नहीं मिल सकता है इसीलिये यहाँ पर स्वयं भगवान कुंदकुंददेव ने भी कहा है कि समता-वीतराग भाव से रहित साधु के लिये ये कायक्लेशादि क्या कर सकते हैं ? इससे यह नहीं समझना कि ये कायक्लेशादि व्यर्थ हैं किन्तु ऐसा समझना कि इतनी ऊँची जिनकल्पी चर्या के आचरण करने वालों को भी तथा अध्यात्म शास्त्रों के अध्ययन करने वालों को भी द्रव्यिंलगी अवस्था रह सकती है। तब यह सम्यक्त्व कितना सूक्ष्म है कि जिसे वे स्वयं ग्यारह अंग के पाठी होने पर भी नहीं जान पाते हैं, क्या वे आध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन नहीं करते हैं ? अवश्य करते हैं फिर भी वे भाव मिथ्यात्वी ही रह जाते हैं। निष्कर्ष यह निकलता है कि अपने सम्यक्त्वरूप श्रद्धान परिणाम को दृढ़ करते रहना चाहिये और जिनेन्द्रदेव की आज्ञा के अनुकूल प्रवृत्ति करते हुए राग-द्वेष को हटाकर समतादेवी की आराधना करते रहना चाहिये।
मंदाक्रांता-इत्थं मुक्त्वा भवभयकरं सर्वसावद्यरािंश
नीत्वा नाशं विकृतिमनिशं कायवाङ् मानसानाम्।।
अन्त:शुद्ध्या परमकलया साकमात्मानमेकं
बुद्ध्वा जन्तु: स्थिरशममयं शुद्धशीलं प्रयाति।।२०३।।
अर्थ-इस प्रकार भवभवकारी सम्पूर्ण पापयोग के समूह को छोड़कर काय, वचन, मन की विकृति को हमेशा नष्ट करके अंतरंग की शुद्धिरूप परमकला से सहित ऐसी एक आत्मा को जान करके जीव स्थिर शममय (कषायों की पूर्ण उपशमता रूप) ऐसे शुद्ध चारित्र को प्राप्त कर लेता है।
भावार्थ-‘सर्वसावद्ययोगाद्विरतोऽस्मि’ मैं सम्पूर्ण पाप सहित योग से विरक्त हूँ इसे ही सामायिक चारित्र कहते हैं। दीक्षा के समय यह एक अभेदरूप चारित्र होता है पुन: अभेद से भेद में आने के बाद छेदोपस्थापना रूप अट्ठाईस मूलगुणों के भेद रूप चारित्र होता है। यहाँ पर इस अभेद चारित्र का ही स्वरूप और महत्त्व बतलाया है।
मालिनी-त्रसहतिपरिमुक्तं स्थावराणां वधैर्वा
परमजिनमुनीनां चित्तमुच्चैरजस्रम्
अपि चरमगतं यन्निर्मलं कर्ममुक्त्यै
तदहमभिनमामि स्तौमि संभावयामि।।२०४।।
अर्थ-परम जिन मुनियों का चित्त-अंत:करण हमेशा ही अतिशय रूप से त्रस जीवों की िंहसा और स्थावर जीवों के वध से विमुक्त है और जो चरम सीमा को प्राप्त ऐसा निर्मल है, उस चैतन्य के परिणामस्वरूप मन को मैं कर्मों से मुक्ति प्राप्त करने के लिये नमस्कार करता हूँ, उसका स्तवन करता हूँ और उसकी सम्यक््â प्रकार से भावना करता हूँ।
भावार्थ-मुनियों का चैतन्य परिणामरूप जो भावमन है वह जीविंहसा के परिणाम से रहित है तथा निर्मलता में पराकाष्ठा को प्राप्त है उस मन की स्तुति, वंदना, भावना आदि करने से हमारा भी मन पवित्र, निर्मल होगा।
अनुष्टुप्-केचिदद्वैतमार्गस्था: केचिद्द्वैतपथे स्थिता:।
द्वैताद्वैतविनिर्मुक्तमार्गे वर्तामहे वयम्।।२०५।।
अर्थ-कोई अद्वैत मार्ग में स्थित हैं और कोई द्वैतमार्ग में स्थित हैं किन्तु हम द्वैत और अद्वैत से विनिर्मुक्त ऐसे निर्विकल्प मार्ग में रहते हैं।
अनुष्टुप्-कांक्षंत्यद्वैतमन्येपि द्वैतं कांक्षन्ति चापरे।
द्वैताद्वैतविनिर्मुक्तमात्मानमभिनौम्यहम्।।२०६।।
अर्थ-दूसरे कोई भी अद्वैत को चाहते हैं और अन्य कोई द्वैत को चाहते हैं तथा मैं द्वैत-अद्वैत से मुक्त ऐसी आत्मा को नमस्कार करता हूँ।
अनुष्टुप्–अहमात्मा सुखाकांक्षी स्वात्मानमजमच्युतम्।
आत्मनैवात्मनि स्थित्वा भावयामि मुहुर्मुहु:।।२०७।।
अर्थ-मैं सुख की आकांक्षा करने वाला आत्मा जन्मरहित और नाशरहित ऐसी अपनी आत्मा को, आत्मा के द्वारा ही आत्मा में स्थित होकर पुन:-पुन: भाता हूँ।
शिखरिणी-विकल्पोपन्यासैरलमलममीभिर्भवकरै
रखण्डानन्दात्मा निखिलनयराशेरविषय:।
अयं द्वैताद्वैतो न भवति तत: कश्चिदचिरात्
तमेकं वन्देऽहं भवभयविनाशाय सततम्।।२०८।।
अर्थ-भव को करने वाले इन विकल्प के कथनों से बस होवे, बस होवे। अखंड आनन्द स्वरूप आत्मा एकलनय समूह का अविषय है, इसलिये यह कोई (एक अद्वितीय) आत्मा द्वैत और अद्वैत रूप नहीं है, मैं शीघ्र ही भव भय के नाश हेतु सतत उस एकस्वरूप आत्मा की वंदना करता हूँ।
शिखरिणी– सुखं दु:खं योनौ सुकृतदुरितव्रातजनितं
शुभाभावो भूयोऽशुभपरिणतिर्वा न च न च।
यदेकस्याप्युच्चैर्भवपरिचयो वाढमिह नो
स एवं संन्यस्तो भवगुणगणै: स्तौमि तमहम्।।२०९।।
अर्थ-योनि में-जन्मरूप संसार में सुख और दुख सुकृत और दुष्कृत के समूह से उत्पन्न हुए हैं, पुन: आत्मा को सुख का ही अभाव है अथवा अशुभ परिणति भी नहीं है, नहीं है क्योंकि इस संसार मे इस एक आत्मा को भव का परिचय अत्यन्तरूप से बिल्कुल नहीं है। इस प्रकार से जो भव के गुण समूह से सन्यस्त हो चुका है उसकी मैं स्तुति करता हूँ।
भावार्थ-संसार में सभी सुख और दु:ख पुण्य और पाप के ही फल हैं किन्तु वास्तव में शुद्ध निश्चयनय से मेरी आत्मा में पुण्य और पाप का लेश नहीं है वह तो पूर्ण शुद्ध है इसीलिए इस शुद्धात्मा का संसार से कोई सम्बन्ध नहीं है। ऐसी शुद्ध भावना से परिणत हुए शुद्धोपयोगी महामुनियों की यहाँ स्तुति की गई है।
मालिनी– इदमिदमघसेनावैजयन्तीं हरेत्तां
स्फुटितसहजतेज:पुंजदूरीकृतांह: ।
प्रबलतरतमस्तोमं सदा शुद्धशुद्धं
जयति जगति नित्यं चिच्चमत्कारमात्रम्।।२१०।।
अर्थ-जिसने प्रगट हुए सहज तेज पुंज से प्रबलतर अंधकार समूह को दूर कर दिया है, जो सदा शुद्ध-शुद्ध है, नित्य है और चैतन्य चमत्कार मात्र है। यह तेज जगत में जयशील हो रहा है और यही सहज तेज पापरूपी सेना की ध्वजा को हरण करने वाला है।
भावार्थ–चिच्चमत्कार मात्र सहज तेज पाप शत्रु की सेना को जीतकर विजयी बन जाता है।
पृथ्वी- जयत्यनघमात्मतत्त्वमिदमस्तसंसारकं
महामुनिगणाधिनाथहृदयारविन्दस्थितम्।
विमुक्तभवकारणं स्फुटितशुद्धमेकान्तत:
सदा निजमहिम्नि लीनमपि सद्दृशां गोचरम्।।२११।
अर्थ-यह निर्दोष आत्मतत्त्व जयवंत हो रहा है जो कि संसार का अस्त कर चुका है, महामुनियों के गण के अधिनाथ ऐसे गणधरदेव के हृदयकमल में विराजमान है, भव के कारणों से विमुक्त है, प्रकट रूप से शुद्ध है और एकांत से सदा अपनी महिमा में लीन होते हुए भी सम्यग्दृष्टियों का गोचर है।
भावार्थ-इस शुद्ध आत्मतत्त्व को चार ज्ञानधारी और सप्त ऋद्धि से समन्वित ऐसे गणधरदेव भी अपने हृदय में विराजमान करके ध्यान करते हैं, यह शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा एकांतरूप से अपनी महिमा में ही तत्पर है फिर भी सम्यग्दृष्टिजन इसका अनुभव करते हैं।
मंदाक्रांता-आत्मा नित्यं तपसि नियमे संयमे सच्चरित्रे
तिष्ठत्युच्चै: परमयमिन:शुद्धदृष्टेर्मनश्चेत्।
तस्मिन् बाढं भवभयहरे भावितीर्थाधिनाथे
साक्षादेषा सहजसमता प्रास्तरागाभिरामे।।२१२।।
अर्थ-शुद्ध सम्यग्दृष्टि ऐसे परम संयमी की आत्मा नित्य ही तप में, नियम में, संयम में और सम्यक््âचारित्र में अतिशय रूप से स्थित है, यदि ऐसा अंत:करण है तो राग के समाप्त हो जाने से रमणीय, भव भय को हरण करने वाले ऐसे उन भावी तीर्थाधिनाथ में यह सहज समता निश्चित ही साक्षात् होती है।
भावार्थ-वीतरागी परमसाधु के आत्मा सदा ही तपश्चरण आदि में स्थित रहती है यही कारण है कि वे भावी तीर्थेश्वर हैं और उनके अन्दर परम साम्य भावना परम वीतरागता प्रगट होती है।
मंदाक्रांता– रागद्वेषौ विकृतिमिह तौ नैव कर्तुं समर्थौ
ज्ञानज्योति:प्रहतदुरितानीकघोरान्धकारे।
आरातीये सहजपरमानन्दपीयूषपूरे
तस्मिन्नित्ये समरसमये को विधि: को निषेध:।।२१३।।
अर्थ-जिन्होंने ज्ञानज्योति से पाप के समूह रूप ऐसे घोर अंधकार को नष्ट कर दिया है, जो सहज परमानंद पीयूष के पूर स्वरूप हैं ऐसे आरातीय-आधुनिक इन मुनिराजों में ये राग द्वेष विकृति को करने के लिये समर्थ नहीं हैं, ऐसे नित्य ही समरसमय उनके लिये क्या तो विधि है और क्या निषेध है ?
भावार्थ-जिनके हृदय में भेदविज्ञान रूप प्रकाश उत्पन्न हो चुका है और जो परमानन्द रूप अमृत से परम तृप्ति को प्राप्त हैं ऐसे मुनिराज में राग और द्वेष अपना प्रभाव नहीं डाल सकते हैं, वे भी परम प्रशम भाव को प्राप्त हो जाते हैं। तब वे साधु निर्विकल्प रूप परम उदासीन ऐसे वीतराग भाव में ठहर जाते हैं, उस समय उन्हें कुछ ग्रहण करने और छोड़ने का विकल्प नहीं रह जाता है।
आर्या– इति जिनशासनसिद्धं सामायिकव्रतमणुव्रतं भवति।
यस्त्यजति मुनिर्नित्यं ध्यानद्वयमार्तरौद्राख्यम्।।२१४।।
अर्थ-जो मुनिराज आर्त और रौद्र नाम के दोनों ही ध्यानों को छोड़ देते हैं उनके इस प्रकार से जिनशासन में प्रसिद्ध अणुव्रतरूप सामायिक व्रत होता है।
भावार्थ-आर्तध्यान और रौद्रध्यान से रहित साधु का जो सामायिक व्रत है वह अणुव्रत है क्योंकि सम्पूर्ण मोहनीय के अभाव से होने वाला समताभाव रूप सामायिक ही स्थायी होता है। अपेक्षा से ही वीतरागता के पूर्व कदाचित् समताभाव है कदाचित् नहीं है अतएव वह महाव्रत न कहलाकर अणुव्रत ही कहलाता है, ऐसा समझना।
मंदाक्रांता– त्यक्त्वा सर्वं सुकृतदुरितं संसृतेर्मूलभूतं
नित्यानंदं व्रजति सहजं शुद्धचैतन्यरूपम्।
तस्मिन् सद्दृग् विहरति सदा शुद्धजीवास्तिकाये
पश्चादुच्चै: त्रिभुवनजनैरर्चित: सन् जिन:स्यात्।।२१५।।
अर्थ-सम्यग्दृष्टि जीव संसार के लिये मूल कारणभूत ऐसे सभी पुण्य और पाप को छोड़कर नित्य आनन्दरूप, सहज ऐसे शुद्ध चैतन्यस्वरूप को प्राप्त कर लेता है और सदा उस शुद्ध जीवास्तिकाय में विहार करता है। पश्चात् अतिशय रूप से तीन लोक के जनों से अर्चित होता हुआ जिनेन्द्र भगवान हो जाता है।
भावार्थ-जो जीव पुण्य-पाप से रहित ऐसे शुद्धोपयोग में लीन होते हैं वे जगत्पूज्य जिनदेव हो जाते हैं।
शिखरिणी– स्वत:सिद्धं ज्ञानं दुरघसुकृतारण्यदहनं
महामोहध्वान्तप्रबलतरतेजोमयमिदम्।
विनिर्मुक्तेर्मूलं निरुपधिमहानंदसुखदं
यजाम्येतन्नित्यं भवपरिभवध्वंसनिपुणम्।।२१६।।
अर्थ-यह स्वत: सिद्ध ज्ञान दुष्ट पाप और पुण्य रूप वन को जलाने के लिये अग्नि रूप है, महामोहरूपी अंधकार के नाश हेतु प्रबलतर तेजोमय है, निर्वाण का मूल है, उपाधि रहित महान आनन्द और सुख को देने वाला है तथा भव के तिरस्कार को ध्वंस करने में निपुण है ऐसे इस ज्ञान को मैं नित्य पूजता हूँ।
शिखरिणी-अयं जीवो जीवत्यघकुलवशात् संसृतिवधू-
धवत्वं संप्राप्य स्मरजनितसौख्याकुलमति:।
क्वचिद् भव्यत्वेन व्रजति तरसा निर्वृतिसुखं
तदेकं संत्यक्त्वा पुनरपि स सिद्धो न चलति।।२१७।।
अर्थ-यह जीव पापसमूह (दोषसमूह) के वश होने से संसार रूपी वधू का पति होकर काम से जनित सुख से आकुल बुद्धि वाला होता हुआ जी रहा है। कभी भव्यत्व भाव के द्वारा शीघ्र ही निर्वाणसुख को प्राप्त कर लेता है तब उस एक सुख को छोड़कर पुन: कभी भी वह सिद्ध चलायमान नहीं होता है।
भावार्थ-भव्यत्व के विपाक से कर्मों के निमित्त से यह जीव संसार में दु:ख उठाता है पुन: यही जीव जब मुक्ति को प्राप्त कर लेता है तो पुन: इस संसार में कभी भी अवतार नहीं लेता है।
शिखरिणी– त्यजाम्येतत्सर्वं ननु नवकषायात्मकमहं
मुदा संसारस्त्रीजनितसुखदु:खावलिकरम्।
महामोहान्धानां सततसुलभं दुर्लभतरं
समाधौ निष्ठानामनवरतमानन्दमनसाम्।।२१८।।
अर्थ-संसाररूपी स्त्री से उत्पन्न होने वाले सुख और दु:खों के समूह को करने वाले नव नोकषाय रूप इन सभी को मैं हर्षपूर्वक छोड़ता हूँ जो कि ये महामोह से अंधे हुए जीवों के लिये सतत सुलभ हैं और सदा ही आनन्दरूप मन से सहित तथा समाधि में लीन हुए ऐसे महामुनियों के अतिशय दुर्लभ हैं।
भावार्थ-हास्य, रति, अरति आदि कषाय रूप परिणाम शुद्धोपयोगी साधुओं के पास फटकते भी नहीं हैं और मोही जीवों के पास हमेशा रहते हैं। ऐसे इन िंकचित् कषायरूप परिणामों को भी छोड़ने का उपदेश है।
मंदाक्रांता-शुक्लध्याने परिणतमति: शुद्धरत्नत्रयात्मा
धर्मध्यानेप्यनघपरमानन्दतत्त्वाश्रितेऽस्मिन्।
प्राप्नोत्युच्चैरपगतमहद्दु:खजालं विशालं
भेदाभावात् किमपि भविनां वाङ्मनोमार्गदूरम्।।२१८।।
अर्थ-निर्दोष, परमानंद तत्त्व के आश्रित ऐसे इस धर्मध्यान में अथवा शुक्लध्यान में जिसकी बुद्धि परिणमित हुई है वह शुद्ध रत्नत्रयात्मक जीव किसी एक अद्भुत विशाल और महान दुख समूहों से रहित तत्त्व को अतिशय रूप से प्राप्त कर लेता है, जो कि भेद के अभाव से संसारी जीवों के वचनमार्ग और मनोमार्ग से दूर है।
भावार्थ-शुद्ध रत्नत्रय से परिणत हुए जीव किसी एक अद्भुत तत्त्व को प्राप्त कर लेते हैं। वास्तव में वह तत्त्व संसारी जीवों के वचनों से भी परे है और मन के भी अगोचर है, केवल महासाधुओं को ही गम्य है।इस प्रकार से नियमसार की तात्पर्यवृत्ति टीका से उद्धृत कलश काव्य के भाषानुवाद रूप परम समाधि अधिकार नामक नवमां अधिकार समाप्त हुआ।