अर्थ अनर्थों का मूल है। किं किंचनमिति तर्क:, अपुनर्भवकामिनोऽथ देहेऽपि। संग इति जिनवेरन्द्रा:, निष्प्रतिकर्मत्वमुद्दिष्टवन्त:।।
जब अरहंत भगवान ने मोक्षाभिलाषी को ‘शरीर भी परिग्रह है’ कहकर देह की उपेक्षा करने का उपदेश दिया है, तब अन्य परिग्रह की बात ही क्या है ? न स: परिग्रह उक्तो, ज्ञातपुत्रेण तायिना। मूर्च्छा परिग्रह उक्त:, इति उक्तं मर्हिषणा।।
ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ने (वस्तुगत) परिग्रह को परिग्रह नहीं कहा है। उन मर्हिष ने मूच्र्छा को ही परिग्रह कहा है। जो संचिऊण लच्छिं धरणियले संठवेदि अइदूरे। सो पुरिसो तं लच्छिं पाहाण सामाणियं कुणदि।।
जो मनुष्य लक्ष्मी का संचय करके पृथ्वी के तल में उसे गाड़ देता है, वह मनुष्य उस लक्ष्मी को पत्थर के तुल्य कर देता है। बाहिरसंगा खेत्तं वत्थं धणधण्णकुप्पभंडाणि। दुपयचउप्पय जाणाणि चेव सयणासणे य तहा।।
क्षेत्र (खेत या जमीन), वास्तु (मकान), धन, धान्य, वस्त्र, मसाले, दोपाये (नौकर—चाकर), चौपाये (पशु—धन) वाहन और शयन—आसन (सोने—बैठने के साधन), ये दस बाहरी परिग्रह हुआ करते हैं। मिच्छत्तवेदरागा तहेव हासादिया य छद्दोसा। चत्तारि तह कसाया चउदस अब्भंतरा गंथा।।
मिथ्यात्व, वेदों (स्त्री, पुरुष, नपुंसक की अनुभूति) में राग, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और चार कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ), ये चौदह आंतरिक परिग्रह हुआ करते हैं।