स्वास्थ्य और जीवन का पर्यावरण के साथ घनिष्ठ संबंध है। पर्यावरण नि:सर्ग है, प्रकृति है। पर्यावरण, प्रकृति का एक ऐसा रक्षा कवच है जो मानव के विकास में सार्थक पृष्ठभूमि का काम करता है। प्रकृति की सुरक्षा हमारी गहन अिंहसा और आत्म—संयम की परिचायिका है। प्रकृति का प्रदूषण पर्यावरण के असंतुलन का और असंतुलन, अव्यवस्था और भूचाल का प्रतीक है। अत: प्राकृतिक संतुलन बनाये रखना हमारा धर्म है, कर्तव्य है और आवश्यकता भी। अन्यथा विनाश के कगारों पर हमारा जीवन बैठ जायेगा और कटी हुई पतंग के समान डगमगाने लगेगा। यह ऐतिहासिक और वैज्ञानिक सत्य है।
हमारे यहाँ प्रारंभ में पर्यावरण संरक्षण की समस्या नहीं थी। चारों दिशाओं में हरे—भरे खेत, घने जंगल, कल—कल करती नदियां, जड़ी—बूटियों से भरे पर्वत आदि सभी कुछ प्राकृतिक सुषमा का बखान करते थे। हमारा प्राचीन साहित्य इसी प्रकृति की सुरम्य छटा के वर्णन से आपूर है। उसमें व्यक्ति की भद्र प्रकृति और उसकी पापभीरूता का भी दिग्दर्शन होता है।
वनस्पति जगत को कल्पवृक्ष कहकर प्रकृति का जो सम्मान यहाँ किया गया है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। अवतारों और जैन तीर्थंकरों के चिन्ह पशु—पक्षियों में से ग्रहण किये गये हैं। प्राचीन मूर्तिकला, स्थापत्यकला तथा मुद्राओं पर अशोक, कदम्ब, पीपल आदि वृक्षों के चित्र भी इसी के प्रमाण हैं। बसंत ऋतु में रंग बिरंगे मनमोहक, पुष्प, ग्रीष्म ऋतु का तपता हुआ वायु मंडल, वर्षा ऋतु की लहलहाती धरती और शीत ऋतु की सुहावनी रातें भला कौन भूल सकता है?
प्राचीन ऋषियों—महर्षियों और आचार्यों ने इस प्राकृतिक तत्व को न केवल भलीभाँति समझ लिया था बल्कि उसे उन्होंने जीवन में उतारा भी था। वे प्रकृति के रम्य प्रांगण में स्वयं रहते थे, उसका आनंद लेते थे और वनवासी रहकर स्वयं को सुरक्षित रखने के लिए प्रकृति की सुरक्षा किया करते थे। वैदिक ऋषि—महर्षि, महावीर और बुद्ध जैसे महापुरुषों के जीवन की अनेक घटनायें प्रकृति की छत्र—छाया में घटित हुई हैं।
कालांतर में उन वृक्षों की पूजा का विधान रचकर उनकी सुरक्षा का प्रबंध धर्म मान लिया गया। पीपल (बोधिवृक्ष) ज्ञान प्रकाशक है,ग्राम गोष्ठी और व्याकुल पथिक के लिए आश्रय दाता है। वटवृक्ष भी ज्ञान और समृद्धि का प्रतीक है। अशोक वृक्ष ने सीताजी को आश्रय दिया था, इस बात को हम सभी जानते हैं। वृक्षों की उपयोगिता के कारण वे अनेक जनश्रुतियों के भी केन्द्र बन गये। जनश्रुतियों की चर्चा से अधिक महत्व यहाँ वृक्षों के संरक्षण का है।
इधर कुछ वर्षो से पर्यावरण संतुलन काफी डगमगा गया है। बढ़ती हुई आबादी तथा आधुनिक औद्योगिक मनोवृति ने पर्यावरण को बुरी तरह प्रदूषित कर दिया है। जंगल के जंगल कटते चले जा रहे हैं। सामर्थ्य के बाहर खेतों से खाद्यान्न पैदा करने का प्रयत्न किया जा रहा है। कीटनाशक दवाओं और रासायनिक खादों के प्रयोग से खाद्य सामग्री दूषित होती जा रही है, शुद्ध पेय जल कम होता जा रहा है।
वन्य पशु—पक्षी लुप्त से हो रहे हैं। कालिदास जैसे महाकवियों के वन—उपवन, अरण्य आज अदृश्य से होते जा रहे हैं। पर्यावरण के असंतुलित हो जाने से ऋतुचक्र में बदलाव आया। भीषण बाढ़ का प्रकोप बढ़ा, वैंâसर, हृदयाघात, मानसिक तनाव, रक्त चाप जैसे विघातक रोगों की संख्या बढ़ी, शुद्ध हवा, पानी मिलना मुश्किल सा हो गया, गंगा—नर्मदा जैसी नदियों की पवित्रता पर प्रश्नचिन्ह लग गया।
प्रकृति प्रदत्त सभी वनस्पतियाँ हम—आप जैसी सांस लेती हैं कार्बनडाय—आक्साइड के रूप में और सांस छोड़ती हैं आक्सीजन के रूप में। यह कार्बन—डाय—ऑक्साइड पेड़—पौधों के हरे पदार्थ द्वारा सूर्य की किरणों के माध्यम से फिर आक्सीजन में बदल जाती है। इसलिए बाग—बगीचों का होना स्वास्थ्य के लिए अत्यावश्यक है।
पेड़—पौधों की यह जीवन प्रक्रिया हमारे जीवन को संबल देती है, स्वस्थ हवा और पानी देकर आह्वान करती है, जीवन को संयमित और अिंहसक बनाये रखने का। सारा संसार इन जीवों से भरा हुआ है और हर जीव का अपना—अपना महत्व है। उनके अस्तित्व की हम उपेक्षा नहीं कर सकते। उनमें भी सुख—दुख के अनुभव करने की शक्ति होती है। उनका संरक्षण हमारा नैतिक उत्तरदायित्व है।
इसी तरह हमारे चारों ओर की भूमि, हवा और पानी हमारा पर्यावरण है। आज के भौतिक वातावरण में, विज्ञान की चकाचौंध में हम अज्ञानवश अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिए अपने प्राकृतिक वातावरण को दूषित कर रहे हैं। हमने वन—उपवन को नष्ट—भ्रष्ट कर ऊँची—ऊँची अट्टालिकायें बना लीं, बड़े—बड़े कारखाने स्थापित कर लिए, जिनसे हानिकारक रसायनों, गैसों का निर्झरण हो रहा है, उपयोगी पशु—पक्षियों और कीड़ो—मकोड़ों को समाप्त किया जा रहा है।
वाहनों आदि से ध्वनि प्रदूषण, कारखानों की सारी गंदगी कूड़ा—कचड़ा आदि जलाशयों में बहा देने जैसे जल—प्रदूषण और गैसों से वायु—प्रदूषण हो रहा है। सारी प्राकृतिक संपदा को हम अपने क्षणिक लाभ के लिए असंतुलित करने के दोषी बन रहे हैं। कुछ प्रदूषण प्रकृति से होता है पर उसे प्रकृति ही स्वच्छ कर देती है। जैसे—पेड़, पौधों की कार्बन—डाई—आक्साइड सूर्य की किरणों से साफ होकर आक्सीजन में बदल जाती है।
वैज्ञानिकों ने अपने अनुसंधान के आधार पर यह स्पष्ट किया है कि अलग—अलग तरह के पेड़—पौधों की पत्तियाँ विभिन्न गैसों आदि के जहर, धूल आदि से जूझकर पर्यावरण को स्वच्छ रखती है। जंगल कट जाने से वर्षा कम होती है, हवा बदल जाती है, सूखा पड़ता है, बाढ़ आती है, गर्मी अधिक होती है, यदि हमने पर्यावरण की सुरक्षा अब भी नहीं की तो पर्यावरण जहरीला होकर हमारे जीवन को तहस—नहस कर देगा।
शाकाहार और वन—सम्पदा एक दूसरे से अभिन्न है। वृक्ष—वध ही पर्यावरण की हत्या है। वृक्ष—पादप और लतायें शाकाहार के सृजन में महत्त्वपूर्ण भूमिका रखती हैं। पृथ्वी—हरा भरा ग्रह, शस्य श्यामल और सुजलाम्— सुफलाम् की संज्ञा, इन्हीं वन—सम्पदा के कारण है। सघन वन, जहाँ मेघोें को अपने पास बुलाकर भूमि को सिंचन का वरदान देते हैं, वहीं वनोपज औषधियां आदि मधुर रस देते हैं।
कल्पवृक्ष की अवधारणा जीव—संस्कृति का श्रेष्ठ अवदान है वृक्ष ही तो कल्पवृक्ष हैं, क्योकि उनसे जीवन की अनिवार्य आवश्यकतायें पूरा करती हैं। सदियों से वन, मानव व पशु—पक्षियों के जीवन से जुड़ा हुआ है। वन जल व मृदा का भी संरक्षण करता है। वायुमण्डलीय तापक्रम, आर्द्रता, वर्षा का नियंत्रण, बाढ़ की रोकथाम, तूफानी हवाओं से बचाव और वन्य प्राणियोें के संरक्षण में वनों का अपरिमित महत्त्व है।
इस प्रकार वन पर्यावरण संतुलन में एक अहम् भूमिका का निर्वाहन करते हैं, क्योंकि पर्यावरण संतुलन का समीकरण तभी गड़बड़ा जाता है जब वर्षा अभाव, असमय वर्षा या अनावृष्टि हो, अन्न का अकाल तथा रेगिस्तान का प्रसार, धरती की ताप वृद्धि तथा धरती के पादप वृक्षों का सर्वनाश हो।
अमेरिका में जंगल की २६ करोड़ एकड़ भूमि को मांसाहार उत्पादन के लिये नष्ट किया गया। एक सर्वेक्षण के अनुसार वहाँ एक एकड़ भूमि में २००० कि.ग्रा. आलू उत्पन्न होता है, वहीं केवल १२५ कि.ग्रा. गौमांस ही उत्पन्न हो पाता है। एक एकड़ भूमि में जितना शाकाहार उत्पन्न होता है वहाँ उतने गौमांस के लिये सात एकड़ भूमि की आवश्यकता होती है।
भारत में पर्यावरणीय संतुलन बनाये रखने के लिये कुल क्षेत्रफल का कम से कम ३३.३ प्रतिशत वनों से आच्छादित होना चाहिये। लेकिन वनों की बेहताशा कटाई से यह क्षेत्रफल लगभग २० प्रतिशत (७ करोड़ एकड़) रह गया है। इससे न केवल पर्यावरण का संतुलन बिगड़ रहा है वरन ईंधन की समस्या भी उत्पन्न हो गई है। साथ ही भू-संरक्षण, भूस्खलन एवं मरुस्थलीकरण जैसे परिस्थितिकरण विक्षोभ के कारण लाखों टन उपजाऊ मिट्टी प्रतिवर्ष क्षरित हो जाती है।
वनस्पति जनित आहार में दीर्घजीविता के तत्त्व विद्यमान होते हैं। वृक्ष स्वयं इसके जीते जागते उदाहरण हैं। जैसे कुरुक्षेत्र (हरियाणा) का ज्योतिसर स्थित वटवृक्ष लगभग ५ हजार वर्षों से यथावत है। इसी प्रकार आस्ट्रेलिया के क्वान्सलेण्ड नगर में १२ हजार साल पुराना मेक्रोजामिया जाति का वृक्ष है। जिसने मनुष्य के प्राचीन रूप से लेकर वर्तमान रूप तक देखा है।
वनों के सफाया होने से जीव—जन्तुओं की अनेक प्रजातियाँ विलुप्त होती जा रही हैं। सन् १६०० से अबतक लगभग १२० स्तनधारियों की तथा २२५ पक्षियों की प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं। और २०वीं सदी के अन्त तक लगभग ६५० वन्य प्राणियों की प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर हैं।
दिशा—दृष्टि से दूर पड़ा हुआ व्यक्ति ‘‘जीवो जीवस्य भोजनम्’’ मानकर स्वयं की रक्षा के लिए दूसरे का अमानुषिक वध और शोषण करता है। अपनी प्रशंसा, सम्मान, पूजा, जन्म—मरण मोचन तथा दुख—प्रतिकार करने के लिए वह अज्ञानतापूर्वक शस्त्र उठाता है और सबसे पहले पृथ्वी और पेड़—पौधों पर प्रहार करता है जो मूक हैं, प्रत्यक्षतया कुछ कर नहीं सकते। परन्तु ये मात्र मूक हैं इसलिए चेतनाशून्य हैं और निरर्थक हैं, यह सोचना वस्तुत: हमारी अज्ञानता है।
उनकी चेतना सतत मूर्छित और बाहर से लुप्त भले ही लग रही हो पर उन्हें हमारे अच्छे—बुरे भावों का ज्ञान हो जाता है और शस्त्रच्छेदन होने पर कष्ट की अनुभूति भी होती है। डॉ. जगदीशचन्द्र वसु एवं न्यूयार्क के प्रसिद्ध वैज्ञानिक क्ल्यू बेकस्टर ने अपने प्रयोगों के आधार पर सिद्ध किया है कि पौधों में भी भाव बोध—शक्ति है, भले ही वे मूक अवस्था में हो। आंतरिक भावों में पवित्रता बनाये रखने के लिए इनका संरक्षण आवश्यक है।
जल को प्रदूषित करने में कागज, स्टील, शक्कर, वनस्पति घी, रसायन उद्योग, चमड़ा—शोधन, शराब उद्योग, वस्त्र—रंगाई उद्योग बहुत सहायक सिद्ध हो रहे हैं। सैप्टिक टैंकों और मलवाहक पाइपों के हिसाब से भी जल प्रदूषित हो रहा है यह दूषित जल निश्चित ही हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।
पीलिया और पोलियो जैसे वायरस रोग, दस्त, हैजा, टायफाइड जैसे वैक्टीरिया रोग और सूक्ष्म जीवों व कृमियों से उत्पन्न होने वाले रोग दूषित—प्रदूषित जल के उपयोग से ही होते हैं। एक बूंद पानी में हजारों जीव रहते हैं, यह वैज्ञानिक तथ्य है। आज के प्रदूषित पर्यावरण में नदियों और समुद्रों का जल भी उपयोगिता की दृष्टि से प्रश्नचिन्ह खड़ा कर देता है। खाड़ी—युद्ध के संदर्भ में समुद्र में गिराये हुए तेल से समुद्री जीवों व्ाâा अस्तित्व खतरे में पड़ गया और उसमें रहने वाले खाद्य शैवाल (काई) लवण आदि उपयोगी पदार्थ दूषित हो गये। अनेक जल संयंत्रों के खराब होने का भी अंदेसा हो गया था।
स्वचालित वाहनों और औद्योगिक संसाधनों से निकलने वाली गैसों से वायुमंडल तेजी से दूषित हो रहा है। विषाक्त धुँआ और गैस मनुष्य के फेफड़ों में जाकर स्वास्थ्य पर कुठाराघात करती है। खाँसी, दमा, सिलिकोसिस, तपैदिक, वैंâसर आदि बीमारियाँ वायु—प्रदूषण से ही हो रही है।
मोटर—वाहनों, कल—कारखानों आदि का तीव्र शोर पर्यावरण को अपनी कम्पनों द्वारा दूषित करता है जिससे मनुष्य की श्रवण—शक्ति प्रभावी होती है और वे बहरे हो जाते हैं। इतना ही नहीं, शोर से उनका हृदय और मस्तिष्क भी कमजोर हो जाता है। शोर से अनिद्रा, सिर दर्द, तनाव, चिड़चिड़ाहट और झुंझलाहट भी बढ़ती है। इससे रोगियों को स्वस्थ होने में देर लगती है और कभी—कभी तो अधिक शोर रोगियों की मृत्यु का भी कारण बन जाता है।
सन् १९०५ में नोबिल पुरस्कार विजेता राबर्ट कोच ने ध्वनि प्रदूषण के बारे में कहा था कि एक दिन ऐसा आयेगा जब मनुष्य को स्वास्थ्य के सबसे बड़े शत्रु के रूप में निर्दयी ‘‘शोर’’ से संघर्ष करना पड़ेगा। यह ध्वनि—प्रदूषण उद्योग धंधों, मशीनों, परिवहन और मनोरंजन के साधनों द्वारा उत्पन्न हो रहा है जिसे संयमित किया जाना परमावश्यक है क्योंकि इसका दुष्प्रभाव पेड़—पौधों, जीव—जन्तुओं और प्राकृतिक संपदा पर पड़ता है।
रेडियोधर्मी प्रदूषण भी हो रहा है—अणु, परमाणु, हाइड्रोजन बमों आदि के परीक्षणों से। यह प्रदूषण वनस्पति को बुरी तरह प्रभावित करता है। भूमि की उर्वराशक्ति को नष्ट करता है और सारे वातावरण को विषैला बना देता है। हीरोशिमा और नागासाकी इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। हमारे सामने एक उदाहरण और है भोपाल गैस कांड का।
ऊर्जा का यदि सही उपयोग किया जावे तो वह मानव के विकास में बहुत सहायक सिद्ध हो सकती है। कोयला, तेल, गैस, बिजली, भाप, पेट्रोल, डीजल आदि ऊर्जा के ही रूप हैं, जिनसे हम अपनी सुविधाओं को जुटाते हैं। इसका ताप पर्यावरण संतुलन को बिगाड़ता है। रेडियोधर्मी विकरण से त्वचा जल जाती है। यह न तो दिखाई देती है, न इसमें कोई गंध होती है पर शरीर पर घातक प्रभाव छोड़ती है।
इसी तरह ओजोन गैस हमारे लिए एक जीवनदायिनी शक्ति है जो रसायनिक क्रियाओं के द्वारा सूर्य की पराबैंगनी किरणों के विषैले विकिरण को पृथ्वी तक आने ही नहीं देती। परन्तु पिछले दो दशकों में हमने आधुनिकता की अंधी दौड़ में क्लोरो—फ्लोरो कार्बन का प्रचुर उत्पादन किया है जिससे ओजन की छतरी में विशाल छिद्र हो चुके हैं और उसका क्षरण प्रारंभ हो गया है। फलत: प्रदूषण के कारण भयानक रोगों को हमने आमंत्रित कर लिया है।
इसके बावजूद आवश्यकता को ध्यान में रखकर अमेरिका ने क्लोरों—फ्लोरो कार्बन का उत्पादन पुन: प्रारंभ कर दिया है। १ जनवरी १९८७ में कनाडा के मांट्रियल शहर में ४८ देशों ने एक समझौता किया जिसमें उसके उत्पादन पर नियंत्रण का प्रस्ताव था। भारत सहित चीन, ब्राजील, दक्षिण कोरिया आदि राष्ट्रों ने इस समझौते पर हस्ताक्षर करने से अपनी असमर्थता व्यक्त की, इस तर्क के साथ कि उक्त घातक रसायनों के लिए अमेरिका ही सर्वाधिक उत्तरदायी है।
वायु प्रदूषण के साथ—साथ भूमि प्रदूषण भी आजकल बढ़ता जा रहा है। कृषि में रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशक दवाइयों के प्रयोग का दुष्प्रभाव भूमि पर पैदा होने वाले खाद्यान्न, फल, सब्जियों आदि पर पड़ता है और हमारे भोजन को दूषित कर देता है। कीटनाशक डी. डी. टी. और बी. एच.सी. की विषाक्त तो अब और भी बढ़ गई है।
जिन कीटाणुओं पर इनका प्रयोग किया जाता है, उनमें अब निरोधक क्षमता बढ़ गयी है इससे इन दवाओं का असर उन पर कम हो गया है। पर हमारे खान—पान में इन दवाओं से प्रभावित जो वनस्पतियाँ आ रही हैं उनसे केंसर, मस्तिष्क—रुधिर व हृदय रोगों में वृद्धि हुई हैं
यह एक विश्वजनीन सत्य है कि पदार्थ में रूपान्तरण प्रक्रिया चलती रहती है। ‘सदद्रव्यलक्षणम्’ और ‘उत्पाद— व्यय—ध्रौव्ययुक्तं सत्’ सिद्धान्त सृष्टि संचालन के प्रधान तत्व है। रूपांतरण के माध्यम से प्रकृति में संतुलन बना रहता है। पदार्थ पारस्परिक सहयोग से अपनी जिन्दगी के लिए ऊर्जा एकत्रित करते हैं और कर्म सिद्धान्त के आधार पर जीवन के सुख—दुख के साधन संजो लेते हैं।
प्राकृतिक संपदा को असुरक्षित कर, उसे नष्ट—भ्रष्ट कर हम अपने सुख—दुख की अनुभूति में यथार्थता नहीं ला सकते। अप्राकृतिक जो भी होगा, वह मुखौटा होगा, दिखावा के अलावा और कुछ नहीं। प्रकृति का हर तत्व कहीं न कहीं उपयोगी होता है। यदि उसे उसके स्थान से हटाया गया तो उसका प्रतिफल बुरा भी हो सकता है।
आर्थिक विकास एवं तीव्र औद्योगीकरण दोनों परस्पर पर्यायार्थक शब्द हो गये हैं। जनसंख्या की वृद्धि के साथ—साथ आर्थिक विकास भी आवश्यक हो गया और फलत: उद्योगों की स्थापना होने लगी। उद्योग के क्षेत्र में दो घटक होते हैं—उत्पादक और उपभोक्ता। दोनों की वृत्तियों से पर्यावरण प्रभावित होता है।
उपभोक्ता क्रमश: आरामदायक और विलासिता संबंधी वस्तुओं को खरीदता है और उत्पादक उसका शोषण कर अधिक से अधिक पैसा अर्जित करने का प्रयत्न करता है। फलत: दोनों के बीच विषाक्त वातावरण बन जाता है और अनैतिकता घर कर जाती है।
जनसंख्या वृद्धि का यह भी एक कुपरिणाम हुआ है कि वनों को काटकर खेती की जाने लगी है। उत्पादन बढ़ाने वाले आधुनिक रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग होने लगा है जिससे नैसर्गिक उत्पादन क्षमता में हृास हुआ है और पर्यावरण पर कुप्रभाव पड़ा है। आबादी जैसे जैसे बढ़ेगी, वस्त्र, आवास और अन्न की समस्या भी उत्पन्न होगी। इस समस्या का समाधान करने के लिए एक ओर वनों को और भी काटना शुरू हो जायेगा तो दूसरी और जीव—हिंसा की प्रवृत्ति बढ़ेगी।
पर्यावरण का संबंध मात्र प्राकृतिक संतुलन से नहीं है बल्कि आध्यात्मिक और सामाजिक वातावरण को परिशुद्ध और पवित्र बनाये रखने के लिए भी किया जाता है। संक्षेप में कहा जाय तो धर्म ही पर्यावरण का रक्षक है और नैतिकता उसका द्वारपाल। आज हमारे देश में चारों ओर नैतिकता और भ्रष्टाचार सुरसा की भाँति बढ़ रहा है।
चाहे वह राजनीति का क्षेत्र हो या शिक्षा का, धर्म का क्षेत्र हो या व्यापार का, सभी के सिर पर पैसा कमाने का भूत सवार है, माध्यम चाहे वैâसा भी हो। इससे हमारे सारे सामाजिक संबंध तहस—नहस हो गये हैं। भ्रातृत्व और प्रतिवेशी संस्कृति किनारा काट रही है, आहार का प्रकार मटमैला हो रहा है, शाकाहार के स्थान पर अप्राकृतिक खान—पान स्थान ले रहा है। मिलावट ने व्यापारिक क्षेत्र को सड़ी रबर की तहर दुर्गंधित कर दिया है।
अर्थलिप्सा की पृष्ठभूमि में बर्बरता बढ़ रही है। भौतिक वासनाओं की पूर्ति में हम अपनी आध्यात्मिक संस्कृति को भूल बैठे हैं। मानसिक, वाचिक और कायिक क्रियाओं के बीच समन्वय समाप्त हो गया है। हमारी धार्मिक भावनायें मात्र बाह्य आचरण का प्रतीक बन गयी हैं। परिवार का आदर्श जीवन समाप्त हो गया हैं
ऐसी विकट परिस्थिति में पर्यावरण का यह बाह्य और आंतरिक असंतुलन धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक क्षेत्र में जबरदस्त क्रांति लायेगा। यह क्रांति अहिंसक हो तो निश्चित ही उपादेय होगी, पर यह असंतुलन और बढ़ता गया तो खूनी क्रांति होना भी असंभव नहीं।
जहाँ एक दूसरे समाज के बीच लम्बी—चौड़ी खाई हो गयी हो, एक तरफ प्रासाद और दूसरी तरफ झोपड़ियाँ हो, एक और कुपच और दूसरी ओर भूख से मृत्यु हो तो ऐसा समाज बिना वर्ग—संघर्ष के कहाँ रह सकता है ? सामाजिक क्षमता और वर्ग संघर्ष की व्यथा—कथा को दूर करने के लिए अहिंसक समाज की रचना और पर्यावरण की विशुद्धि एक अपरिहार्य साधन है। यही मानव धर्म है, यही हमारी नैतिकता है। सभी धार्मिक ग्रंथ प्रत्यक्ष—परोक्षरूप से मन को शुभ भावों की ओर ले जाने का मार्ग प्रशस्त करते हैं जिससे पर्यावरण संतुलन कायम रहे।
उपर्युक्त पर्यावरण प्रदूषण के भयानक दुष्परिणामों से बचने के लिए यह अब आवश्यक है कि हम प्रदूषण स्रोतों को नियंत्रित करें, वनीकरण और वृक्षारोपण संबंधी चिपको आंदोलन जैसे कल्याणकारी कदमों को स्वीकार करें। औद्योगिक विकास को रोके बिना प्रदूषित पदार्थों को कुशलतापूर्वक निस्तारित करने की योजना बनायें, रासायनिक अवशिष्ट पदार्थों को जल में न बहाकर उनको खाद आदि जैसे उपयोगी पदार्थ में परिवर्तित करें, जनसंख्या को नियंत्रित करें, आध्यात्मिकता का वातावरण बनायें, शाकाहार का प्रचार—प्रसार करें और पर्यावरण प्रदूषण की समस्याओं को दूर करने के लिए जनचेतना को जाग्रत करें और लोगों को समझायें कि शुद्ध पर्यावरण ही हमारा जीवन है।
उस पर छाने वाले हर संकट की काली बदली हमारे लिए खतरे की घंटी है। अत: हम प्रकृति से अपने महनीय जीवन की कीमत पर खिलवाड़ न करें और पर्यावरण को स्वस्थ और संतुलित बनाये रखने के लिए नि:स्वार्थ होकर विकास के हर कदम को तर्क और विवेक की कसौटी पर भलीभाँति कसें, ताकि भावी पीढ़ी पर्यावरण प्रदूषण के शिकार से बच सके।
प्रकृति वस्तुत: जीवन की परिचायिका है। पतझड़ के बाद बंसत और बंसत के बाद पतझड़ आती है। दु:ख के बाद सुख और सुख के बाद दु:ख का चक्र एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। वनस्पति और प्राणी जगत प्रकृति के अभिन्न अंग हैं। उनकी सौन्दर्य—अभिव्यक्ति जीवन की यथार्थता है। बसंतोत्सव हमारे हर्ष और उल्लास का प्रतीक बन गया है। कवियों और लेखकों ने उसकी उन्मादकता को पहचाना है, सरस्वती की वंदना कर उसका आदर किया है और हल जोतकर जीवन के सुख का संकेत दिया है।
जैनागमों में मूलत: स्थावर और त्रस ये दो प्रकार के जीव हैं। स्थावर जीवों में चलने—फिरने की शक्ति नहीं होती, ऐसे जीव पांच प्रकार के होते हैं—
१. पृथ्वीकायिक, २. अपकायिक (जलकायिक) ३. वनस्पतिकायिक ४. अग्निकायिक और ५. वायुकायिक।
दो इन्द्रियों से लेकर पाँच इन्द्रियों वाले जीव त्रस कहलाते हैं। जैन शास्त्रों में जीवों के भेद—प्रभेदों का वर्णन विस्तार से मिलता है जो वैज्ञानिक दृष्टि से भी खरा उतरा है।
वैज्ञानिक अनुसंधान के फलस्वरूप हम यह जानते हैं कि पर्यावरण का असंतुलन िंहसाजन्य है और यह िंहसा तब तक होती रहती है जब तक हमें आत्मबोध न हो। आत्म तुला की कसौटी पर कसे बिना व्यक्ति न तो दूसरे के दु:ख को समझ सकता है और न उसके अस्तित्व को स्वीकार कर पाता है। यह अस्तित्व बोध अिंहसात्मक आचार—विचार की आस्था का आधार स्तम्भ है। अिंहसा के चार मुख्य आधार स्तम्भ है—आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद और क्रियावाद। प्राकृतिक पर्यावरण और नैतिक पर्यावरण, दोनों की सुरक्षा के लिए इन चारों मापदंडों का पालन करना आवश्यक है। इन चारों की पृष्ठभूमि में अिंहसा—दर्शन प्रहरी के रूप में खड़ा रहता है।
स्थावर जीवों में भी प्राणों का स्पन्दन है, उनकी चेतना सतत मूर्छित और बाहर से लुप्त भले ही लग रही हो पर उन्हें हमारे अच्छे बुरे भावों का ज्ञान हो जाता है और शस्त्रच्छेदन होने पर कष्टानुभूति भी होती है। भगवती सूत्र में तो यह कहा है कि पृथ्वीकायिक जीव आक्रांत होने पर वृद्ध पुरुष से कहीं अधिक अनिष्टतर वेदना का अनुभव करता है।
इतिहास यह बताता है कि पृथ्वी के गर्भ में करोड़ों साल पहले के जीवों का रूप छिपा है जो फासिल्स (जीवाश्म) के रूप में हमें प्राप्त हो सकता है। पृथ्वी के निरर्थक खोदने से उनकी टूटने की संभावना हो सकती है और साथ ही पृथ्वी के भीतर रहने वाले जीवों के वध की भी जिम्मेदारी हमारे सिर पर आ जाती है।
इसी तरह जलकायिक जीव होते हैं जिनकी िंहसा न करने के लिए हमें सावधान किया गया है। क्षेत्रीय निमित्त से जल में कीड़े उत्पन्न होने को तो सभी ने स्वीकार किया है पर जल के रूप में उत्पन्न होने वाले जीवों की स्वीकृति जैन दर्शन में ही दिखाई देती है। इसीलिए वहाँ जल गालन और प्रासुक जल सेवन को बहुत महत्व दिया गया है। साथ ही यह भी निर्देश है कि जो पानी जहाँ से ले आयें, उसकी बिलछावनी धीरे से उसी में छोड़नी चाहिए ताकि उसके जीव न मर सकें। ‘‘पानी पीजे छानकर, गुरु कीजे जान कर’’ कहावत स्वच्छ पानी के उपयोग का समर्थन करती है।
अग्नि में भी जीव होते हैं जिन्हें हम मिट्टी, जल आदि डालकर प्रमादवश नष्ट कर डालते हैं। वायुकायिक जीव भी इसी तरह हम से सुरक्षा की आशा करते हैं। वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा आज सर्वाधिक बड़ी समस्या बनी हुई है। पेड़—पौधों को काटकर आज हम उन्हें व्यर्थ ही जलाते चले जा रहे हैं। वे मूक—बधिर अवश्य दिखाई देते हैं पर उन्हें हम आप जैसी कष्टानुभूति होती है। वनस्पतिकायिक जीव भी हम जैसे ही श्वासोच्छ्वास लेते हैं। शरद्, हेमन्त, वसंत, ग्रीष्म आदि सभी ऋतुओं में कम से कम आहार ग्रहण करते हैं। कि तुलसी जैसे सभी हरे पौधे, हरी घास और बाँस आदि परोपकारी वनस्पतियां हमारे जीवन के निर्माण की दिशा में बहुविध उपयोगी है।
भवनों में भित्ति—चित्रों पर प्राकृतिक चित्रों को उकेरकर उन्हें जन—जीवन से समरस किया गया है। वनस्पति और पशुजगत की उपयोगिता दिखाई गई है दावानल से पर्यावरण प्रदूषण, चारित्रिक पतन से सामाजिक प्रदूषण समुद्र प्रदूषण (नवम् अध्याय) और मल्लि प्रतिमा में कचड़े के भर देने उत्पन्न दुर्गन्धजन्य प्रदूषण की ओर संकेत मिलते हैं (आठवां अध्याय) मण्डप को लीप—पोत कर साफ रखना तथा नगर की गलियों को तरह—तरह के पुष्पों से सजाकर उन्हें सुगन्धित द्रव्यों से पर्यावरण प्रदूषण बचाना भी यहाँ उल्लेखनीय है।
पर्यावरण प्रदूषण की इस भीषणता का अंदाज हमारे जैनाचार्यों को बहुत पहले ही हो गया था। जैनागमों में जिस भयंकर अकाल, बाढ़ आदि का वर्णन मिलता है वह स्वयं इस तथ्य का प्रतीक है कि जैनधर्म की अिंहसा की पृष्ठभूमि में पर्यावरण सुरक्षा का भाव रहा होगा और पर्यावरण के प्रदूषण की भयावहता का ध्यान रखकर वनस्पति जगत ही नहीं बल्कि समूचे पृथ्वी, अप, तेज, वायु में रहने वाले जीवों के अस्तित्व की पैरवी की और उनकी िंहसा से लोगों को विरक्त किया। आज के वैज्ञानिक अनुसंधान ने भी इस तथ्य पर अपनी सील लगा दी कि स्थावर जीवों में भी भावग्रहण की शक्ति है।
स्थावर जीवों के समान त्रसकायिक जीवों की उपयोगिता को स्पष्ट करते हुए उनकी भी जीवन रक्षा का उपदेश जैनागमों में मिलता है। पशु—पक्षी समुदाय की सुरक्षा में जैनधर्म की निश्चित ही अहं भूमिका रही है। इतना ही नहीं, वनस्पति जगत और पशु—पक्षी जगत से तीर्थंकरों के चिन्हों को ग्रहण किया जाना भी उनके प्रति मां की ममता को प्रस्थापित करना है और ७२ कलाओं और १६ स्वप्नों में प्रकृति जगत को स्थान देना उसके महत्व को स्वीकार करना है।
पर्यावरण का प्रथमत: दृश्य संबंध हमारे शरीर से है। जैनाचार्यों ने अपने ग्रंथों में ऐसे अनेकों रोगों की चर्चा है जो पर्यावरण के असंतुलित हो जाने से हमारे शरीर को घेर लेते हैं और मृत्यु की ओर हमें धकेल देते हैं। संधिता, साइटिका, लकवा, मिर्गी, सुजाक, पायरिया, क्षय, केंसर, ब्लडप्रेशर आदि जैसे रोगों का मुख्य कारण कब्ज है और गलत आहार—विहार तथा श्रम का अभाव है।
शुद्ध शाकाहार प्राकृतिक आहार है और संयमित—नियमित भोजन रोगों के निदान, उत्तम स्वास्थ्य और मन की खुशहाली का मूल कारण है। मांसाहार एक ओर जहाँ मानसिक क्रियाओं को असंतुलित करता है वहीं वह शरीर को भी बुरी तरह प्रभावित करता है इसीलिए धर्माचार्यों ने अिंहसा की परिधि में शाकाहार पर ब्ाहुत जोर दिया है और उन पदार्थों के सेवन का निषेध किया है
जो किसी भी दृष्टि से िंहसाजन्य हैं, इसलिए प्राकृतिक चिकित्सा अिंहसात्मक साधना के लिए सर्वाधिक अनुकूल चिकित्सा है। बारह व्रतों का परिपालन त्रिगुप्तिओं से विषय—वासनाओं का संयमन और पंच समितियों से व्यवहारिक िंहसा से बचने के उपायों का निदर्शन पर्यावरण की सुरक्षा तथा व्यक्ति के आध्यात्मिक संकल्प की पूर्ति का सक्षम उदाहरण है।
इसी कारण समग्ररूप में पर्यावरण पर यदि िंचतन किया जाये तो समूचा जैनधर्म हमारे सभी प्रकार के पर्यावरणों को अहिंसात्मक ढंग से संतुलित करने का विधान प्रस्तुत करता है और वैयक्तिक तथा सामाजिक शांति के निर्माण में स्थायित्व की दृष्टि से नये आयामों पर विचार करने को विवश करता है।