प्रस्तुत आलेख में प्राचीन साहित्य में उपलब्ध पर्यावरण संरक्षण विषयक सन्दर्भों को संकलित करने के उपरान्त जैन गृहस्थों एवं मुनियों की चर्या (जीवन पद्धति) से होने वाले पर्यावरण संरक्षण की चर्चा की गई है।
‘विश्व भरण पोषण करे जोई, ताकर भरत असो होई’
अर्थात् जो राष्ट्र/देश विश्व को ज्ञान—विज्ञान, दर्शन—आध्यात्म, गणित, अहिंसा, विश्वशांति, विश्वमैत्री, पर्यावरण सुरक्षा, परस्परोपग्रहो जीवनाम् , वसुधैव कुटुम्बकम् सर्वजीवसुखाय—सर्वजीवहिताय, राजनीति, कानून, समाज व्यवस्था, अभ्युदय—नश्रेयस् आदि सर्वोदयी सिद्धान्त/सूत्र देकर विश्व का मरण—पोषण करे उसे भारत कहते हैं। इसीलिये तो भारत को विश्व गुरु, सोने की चिडिया, घी—दूध की नदी बहाने वाला देश कहा गया है। भारत के तीर्थंकर, बुद्ध ऋषि, मुनि आदि महान् आध्यात्मिक वैज्ञानिकों ने अध्याात्मिक अनन्त ज्ञान से अखिल विश्व के समस्त तत्वों के समस्त रहस्यों को समग्रता से, पारदर्शिता से, परिज्ञान करके विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया। ये सत्य/ तथ्य वैश्विक एवं त्रैकालिक होने से सदा सर्वदा सर्वत्र नित्य नूतन, नित्य पुरातन, समायिक, प्रासांगिक जीवन्त हैं। वे प्राकृतिज्ञ होने के कारण प्रकृति की सुरक्षा—संवृद्धि सम्बन्धी उनका ज्ञान भी उपरोक्त प्रकार का है। भारतीय ज्ञान—विज्ञान, संस्कृति, अध्यात्मिका के साथ—साथ वैश्विक—/प्राकृतिक होने के कारण भारतीय परम्परा में अखिल जीव जगत् एवं सम्पूर्ण प्रकृति की सुरक्षा—सम्वृद्धि सब से महत्वपूर्ण अंग है। इसीलिए तो भारत में विश्व को स्वकुटुम्ब रुप में स्वीकार किया है।
अयं निज:परो वेत्ति भावना लघुचेतसाम्।
उदार पुरुषाणां तु वसुधैव स्वेकुटुम्बकम्।।
चाणक्य नीतिक्षुद्र, संकुचित भावना युक्त व्यक्ति में अपना—पराया का निकृष्ट भेदभाव रहता है, परन्तु उदारमना सम्पूर्ण विश्व को अपना परिवार मानता है, जिससे व्यक्ति विश्व के प्रत्येक जीव को अपने परिवार का एक सदस्य मानकर सबके साथ मैत्री, प्रेम, उदारता, समता का व्यवहार करता है। इसको ही विश्व बन्धुत्व, सर्वत्मानुभुत कहते हैं। यह है धर्म का सार, अहिंसा का आधार, विश्व शांति का अमोघ उपाय, पर्यावरण सुरक्षा के परम्परागत सार्वभौम शाश्वतिक, सर्वोत्कृष्ट तरीके। जैन आचार्य ने कहा भी है—
जीव जिणवर से मुणहि जिणवर जीव मुणहि।
ते समभाव परट्ठियार लहु णिव्वाणं लहइ।।
परमात्म प्रकाशजो जीव को जिनवर एवं जिनवर को जीव मानता है, वह परम साम्य भाव में स्थिर होकर अति शीघ्र निर्वाण पद को प्राप्त करता है। यह है
सर्वोत्कृष्ट, साम्यवाद, गणतंत्रवाद, समाजवाद,
लोकतंत्रवाद,—पर्यावरण सुरक्षा।
प्राणा यथात्मनोऽभीष्टा: भूतानिमति ते तथा।
आत्मौपम्येन मन्तव्यं बुद्धिमद् भिर्महात्माभि:।।
महाभारत अनुशासन पर्व २७५/१९
जैसे मानव को अपने प्राण प्यारे हैं, उसी प्रकार सभी प्राणियों को अपने—अपने प्राण प्यारे हैं। इसलिये जो लोग बुद्धिमान और पुण्यशाली हैं, उन्हें चाहिये कि वे सभी प्राणियों को अपने समान समझें। यथा
अहं तथा एते, यथा एते तथा अहं। अत्तानं उपमं कत्वा, न हनेय्य न घातये।।
सुनिपात ३—३—२७
जैसा मैं हूँ वैसे ये हैं तथा जैसे ये हैं, वैसा में हूँ—इस प्रकार आत्म सदृश्य मानकर न किसी का घात करें न करायें।
सव्वे तसन्ति दण्ड़स्य सव्वेसिं जीवितं पियं। अत्तानं उपमं कत्वा, न हनेय्य न घातेय।।
धम्मपद १०/१
सब लोग दण्ड से डरते हैं, मृत्यु से भय खाते हैं। दूसरों को अपनी तरह जानकर न किसी को मारें और न किसी को मारने की प्रेरणा करें।
यो न हन्ति न घातेति, न जिनाति न जापते।
मित्तं सो सव्वभूतेषु वेरं तस्स न केनचीति।।
इतिबुत्तक, पृ.२०
जो न स्वयं किसी का घात करता है, न दूसरों से करवाता है, न स्वयं किसी को जीतता है, न दूसरों को जीतवाता है, वह सर्व प्राणियों का मित्र होता है, उसका किसी के साथ वैर नहीं होता। आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत। मनुस्मृति जो कार्य तुम्हें पसन्द नहीं है, उसे दूसरों के लिये कभी मत करो।
माध्यस्थ भावं विपरीत वृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव।।
भावना द्वात्रिंशतिका
हे भगवान! मेरा प्रत्येक जीव के प्रति मैत्री भाव रहे, गुणीजनों में प्रमोद भाव रहे, दुखीजनों के लिए करुणाभाव रहे, दुर्जनों के प्रति मेरा माध्यस्थ भाव (साम्यभाव रहे। आत्मवत्परत्र कुशल वृत्ति चिन्तनं शक्तिस्त्याग तपसी च धार्मधिगमोपाया:।नीतिवाक्यामृत अपने ही समान दूसरे प्राणियों का हित (कल्याण) चिंतवन करना, शक्ति के अनुसार पात्रों को दान देना और तपश्चरण करना ये धर्म प्राप्ति के उपाय हैं।
सम्पूर्ण जीव जगत् सुखी, निरोगी, भद्र, विनयी, सदाचारी रहें। कोई भीक कभी भी थोड़े से दु:ख को प्राप्त न करे।
शिवमस्तु सर्वजगत: परहित निरता भवन्तु भूतगणा:।
दोषा प्रयान्तु नाशं, सर्व सुखी भवतु लोक:।।
जैन आचार्यसम्पूर्ण विश्व मंगलमय हो, जीव समूह परहित में निरत रहें, सम्पूर्ण दोष विनाश को प्राप्त हो जावें, लोक में सर्वदा सम्पूर्ण प्रकार से सुखी रहे।
मा कार्षीत् कोऽपि पापनि, माचभूत कोपिदु:खत:।
मुच्यतां जगदप्येषां, मति मैत्रीं निगद्यते।।
जैन आचार्यकोई भी पाप कार्य को न करें, कोई भी दु:खी न रहें, जगत् दु:ख कष्ट वैरत्व से रहित हो जावें , इसी प्रकार की भावना को मैत्री भावना कहते हैं।
कायेन, मनसा वाचा सर्वेष्वपि च देहिषु।
अदु:ख जननी वृत्तिं मैत्री, मैत्रीविदां मता।।
जैन आचार्यकाय, मन, वचन, से सम्पूर्ण जीवों के प्रति ऐसा व्यवहार करना जिससे दूसरों को कष्ट न पहुँचे इसी प्रकार के व्यवहार को मैत्री व्यवहार कहते हैं। पूज्यपाद स्वामी ने भी विश्व कल्याण के लिये जो भावना के सूत्र दिये हैं, वे निम्नप्रकार हैं—
जैनेन्द्रं धर्मचव्रं प्रभवतु सततं सर्व सौख्यं प्रदायि।।
शांति भक्तिसम्पूर्ण प्रजा क्षेम, कुशल होवें, धार्मिक राजा (नेता) शक्ति सम्पन्न होवें, समय-समय पर इन्द्रदेव (बादल) सुवृष्टि करें रोग नाश को प्राप्त होवें। दुर्भिक्ष, चोरी, डवैâती, आतंकवाद, दु:ख, कलह, अशान्ति, एक क्षण के लिये भी इस जीव जगत् में न रहें। सब जीवों को सुख प्रदान करने वाले जिनेन्द्र भगवान् का धर्मचक्र (क्षमा, अहिंसा, दया , सत्य, मैत्री, संगठन आदि) सतत् प्रवत्र्तमान रहे। उपनिषद्द में भी किसी जीव के प्रति धृणा न करके प्रेम करने के लिये कहा गया है—
यस्तु सर्वाणि भूतानि, आत्मन्येवानुपश्याति।
सर्वभूतेषु चात्मानं, ततो न विजुगुप्सते।।
उपनिषदजो अन्तर्निरीक्षण के द्वारा सब भूतों (प्राणियों) को अपनी आत्मा में ही देखता है और अपनी आत्मा को सब भूतो में, वह फिर किसी से घृणा नहीं करता है। पर्यावरण सुरक्षा का श्रेष्ठ एवं ज्येष्ठ तरीका— भावशुद्धि ‘जो पिडे सो ब्रह्माण्डे’ स्वदोषशान्त्या विहितात्म शान्ति’ आदि भारत के महानतम सूत्रों में अन्तरंग—बहिरंग, व्यक्ति—समूह, पिण्ड—ब्रह्माण्ड की शुद्धता—सुरक्षा—संवृद्धि के उपाय बताये गये हैं। भाव—अशुद्धि के कारण जीव में अन्धश्रद्धा, हिंसा, अब्रह्मचर्य, असावधानी आदि दोष उत्पन्न होते हैं, जिससे समस्त प्रकार के प्रदूषण पैâलते हैं तथा पर्यावरण को प्रदूषित करते हैं। अशुद्ध भाव से शरीर की विभिन्न ग्रन्थियों से जो रासायनिक स्राव निकलता है वह शरीर, मन, इन्द्रियों को अस्वस्थ्य, दुर्बल, प्रदूषित बनाता है तथ जो अशुद्ध भावनात्मक तंरगे निकलती हैं वे तरंगे भी अदृश्य/ सूक्ष्म परन्तु प्रभावशाली रूप से पर्यावरण को प्रदूषित करती हैं। अभी तक वैज्ञानिक पर्यावरणविदों ने जो जल, मृदा, वायु, शब्द आदि प्रदूषणों के बारे में शोध—बोध, प्रचार—प्रचार किया है वे सब अत्यन्त स्थूल, उथला है। इनके द्वारा प्रतिपादित पर्यावरण सुरक्षा के उपाय भी स्थूल, उथले अवैशिक, अशाश्वतिक हैं, परन्तु भारतीय महान् महान् आध्यात्मिक वैज्ञानिकों द्वारा प्रतिपादित भावात्मक प्रदूषण तथा उससे जायमान समस्त प्रदूषण एवं पर्यावरण सुरक्षा के उपाय शाश्वतिक सार्वभौम हैं। निम्न पंक्तियों में हम परम्परागत पर्यावरण सुरक्षा के तरीकों के बारे में संक्षिप्त प्रकाश डाल रहे हैं—
१. अहिंसा से पर्यावरण संरक्षण—‘अहिंसा परमोधर्म:’ ‘अहिंसत्वं च भूतानाममृततत्वाय कल्पते’ ‘अहिंसा परमं सुखमं’ ‘जिओ और जीने दो’आदि सूत्र भारत के परम्परागत पर्यावरण संरक्षण के तरीकों को बताते हैं। इन सूत्रों से सिद्ध होता है कि जीवों की सुरक्षा ही परम धर्म है, अमृत है, परमब्रह्म है, परम सुख स्वरूप है। जैन धर्मानुसार (१) पृथ्वीकायिक, (२) जलकायिक, (३) अग्निकायिक, (४) वायुकायिक, (५) वनस्पतिकायिक आदि एकेन्द्रिय स्थावर जीव हैं तथा लट आदि द्वि इन्द्रिय चींटी आदि त्रि इन्द्रिय मक्खी आदि चतुरिन्द्रिय तथा मनुष्य, पशु—पक्षी, मछली आदि पंचेन्द्रिय त्रस जीव हैं। इन सबको क्षति न पहुँचाना अहिंसा है। भारतीय परम्परागत में जो वृक्ष, नदी, पर्वत, अग्नि, जल, सूर्य, पृथ्वी आदि की पूजा की जाती है उसका मुख्य उद्देश्य इन सबकी सुरक्षा—संवृद्धि है। जैन मुनि समस्त प्रकार की हिंसा से निवृत्त होते हैं यथा— ‘ पढमें महव्वदे सव्वं भंते! पाणादिवादं पच्चक्खामि जावजीवं, तिविहेण— मणसा, वयसा, काएण, से ए— इंदिया वा, वे —इंदिया वा, चु—इंदिया वा, ते इंदिया वा, पंचिन्दिया वा, पुढविकाइए वा, आउकाइए वा, तेउकाइए वा, वाउकाइए वा, वणप्फदिकाइए वा, तसकाइए वा, अंडाइए वा, उब्भेदिमे वा, उववादिमे वा तसे, थावरे वा, बादरे वा, सुहुमें वा, पाणे वा, भूदे वा, जीवे वा, सत्ते वा, पज्जत्ते वा, अपज्जतत्ते वा, अविचउरासीदि जोणि पमुह सदसहस्सेषु , णेव सयं पाणादिवादिज्ज, णो अण्णोहिं पाणे आदिउवादावेज्ज, अण्णेहिं पाणे अदिवादिज्जंतो वि ण समणुमणिज्ज। तस्स भंते! अइचारं पडिक्कमामि, णिंदामि, गरहामि अप्पाणं बोस्सरामि। पुव्वचिणं भंते। जं पि मए रागस्स वा, दोसस्स वा, मोहस्स वा, वंसगदेण सयं पाणे आदिवादाविदे, अण्णेहिं पाणे अदिवादाविदे, अण्णेहिं पाणे अदिउवादिज्जंते वि समणुमण्णिदे तं वि।’ (बहत् प्रतिक्रमण) हे भगवान्! प्रथम महाव्रत में सम्पूर्ण जीवों के धात का मैं आजीवन के लिये तीन प्रकार से अर्थात् मन, वचन, काय से त्याग करता हूँ। एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय, पंचइन्द्रिय जीव तथा कार्य की अपेक्षा पृथ्वी पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक एवं वनस्पतिकायिक और त्रस कायिक जीव, अंडज, पोतज, जरायिक, रसायिक, संस्वेदिम, सम्मूच्र्छिम, उदभेदिम, उपपादिम, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, विकलत्रय, वनस्पतिकायिक, पंचेन्द्रिय जीव एवं पृथ्वीकाय से वायुकायिक पर्यन्त पर्याप्त, अपर्याप्त और ८४ लाख योनियों के प्रमुख जीवों के प्राणों का घात न स्वयं करे, प्राणों का घात न दूसरों से करावें अभवा प्राणों का घात करने वाले न अन्य की अनुमोदना करे। हे भगवन्! उस प्रथम महाव्रत में तत् सम्बन्धी अतिचारों का त्याग करता हूँ, अपनी निन्दा करता हूँ, गर्हा करता हूँ। हे भगवन्! अतीत काल में उपार्जित जो भी मैंने राग—द्वेष से अथवा मोहों के वशीभूत होकर उपर्युक्त जीवों में से किसी भी जीव के प्राणों का घात स्वयं किया ओ, प्राणों का घात अन्य से कराया हो अथवा प्राणों का घात स्वयं क्रिया हो, प्राणों का घात अन्य से कराया हो अथवा प्राण का घात करवाने वाले अन्य जीवों की अनुमोदना की होती उन सर्वदोषों का मैं त्याग करता हूँ। मुनि के समान गृहस्थी तो सभी प्रकार की हिंसा का त्याग नहीं कर सकता है परन्तुं यथायोग्य अहिंसा अणुव्रत का पालन करता है। अनावश्यक किसी भी जीव को नहीं सताता है। यथा—
भुखनन—वृक्षमोटन, शाड् वलदलनां ऽम्बुसेचवादीनि। निष्कारणं न कुर्यात् दलफल— कुसुमोच्चयानापि च।।
भूमि को खोदना, वृक्ष को उखाड़ना, घास, पत्ते तोड़ना, पानी ढ़ोलना, सिंचन करना आदि कार्य निष्कारण नहीं करना चाहिये। आदि शब्द से अन्य भी जितने निष्कारण, अप्रयोजन कार्य हैं, उन्हें भी नहीं करना चाहिये। किसी भी कार्य को अनावश्यक करना अनर्थ—दण्ड रूप हिंसा है।
२. अपरिग्रह से पर्यावरण के संरक्षण — ‘‘सादा जीवन — उच्च विचार’भारत की एक महान परम्परा है। इससे व्यक्ति का व्यक्तित्व महान् , पवित्र, उदार, उदात्त तो बनाता ही हैं, उसके साथ—साथ पर्यावरण सुरक्षा में भी महान् योगदान मिलता है। उच्च विचार के कारण यह किसी भी जीव को या विश्व के किसी भी घटक को क्षति नहीं पहुँचाता है। आडम्बर पूर्ण भौतिक सम्पन्नता युक्त विलासमय जीवन के लिये व्यक्ति को अधिक भौतिक साधन—धन, सम्पत्ति चहिये और इसके लिये उसे दूसरे मनुष्य का शोषण एवं पर्यावरण का दोहन करना होगा यथा वनस्पति, जल, खनिज की आवश्यकता पड़ती है। इसके लिये प्रकृति को दोहन एवं शोषण होता है जिसके कारण प्रकृति का संतुलन बिगड़ता है। फैक्ट्री आद से जो धुआँ, गन्दा पानी, अपशिष्ट आदि निकलता है उससे जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण होता है। इसलिये भारतीय परम्परा में गृहस्थ लोग सीमित परिग्रह (अपरिग्रह अणुव्रत) रखते हैं। तथा साधु—सन्त समस्त परिग्रह त्याग कर देते हैं। दिगम्बर जैन साधु तो अन्य परिग्रह के साथ—साथ समस्त प्रकार के वस्त्र का भी त्याग कर देते हैं।
३. ब्रह्मचर्य से पर्यावरण संरक्षण— जनसंख्या वृद्धि से खाद्य समस्या, निवास समस्या के साथ—साथ मनुष्य से उत्सर्जित मल—मूत्र, अपशिष्ट आदि से जल, वायु, मृदा प्रदूषण होता है। सघन—जन बस्ती के कारण प्राण वायु की कमी होती है। कृत्रिम गर्मी बढ़ती है। यातयात के लिये प्रयोग में आने वाले यान—वाहनों से वायु प्रदूषण, शब्द प्रदूषण भी बढ़ता है। इसीलिए भारत में साधु—संत तो पूर्ण ब्रह्मचर्य में रहते हैं। गृहस्थ भी ब्रह्मचर्य अणुव्रत का पालन करते हैं।
४. निव्र्यसन से पर्यावरण संरक्षण —भारत में नैतिकपूर्ण सादा, उच्च आदर्शमय स्वस्थ जीवन जीने के लिये मद्य, मांस, शिकार, चोरी, जुआ, वेश्यागमन, परस्त्री सेवन त्यागरूपी जीवन निव्र्यसन जीवन होता है। मद्य सेवन से भाव प्रदूषण होता है। मद्य तैयार करने मेंं जल, वायु प्रदूषण भी होता है। माँस भक्षण करने से जीवों की हत्या होती है, शारीरिक, मानिसिक स्वास्थ्यखराब होता है।जलचर जीव की हत्या से जल प्रदूषण, पक्षी की हत्या से वायु प्रदूषण एवं स्थलचर जीवों की हत्या से स्थल प्रदूषण बढ़ता है। इसी प्रकार ऐसे ही दोष शिकार व्यसन में हैं। परस्त्रीगमन, वेश्यागमन से शारीरिक, मानसिक रोग के साथ—साथ सामाजिक प्रदूषण होता है। इस प्रकार चोरी, जुआ से भी मानसिक प्रदूषण, आर्थिक प्रदूषण एवं सामाजिक प्रदूषण होता है। तम्बाकू, बीड़ी सिगरेट, अफीम, गांजा आदि के सेवन भी मद्य व्यसन में सम्मिलित हैं। इससे भी आर्थिक, शारीरिक, मानसिक प्रदूषण होता है।
५. समितियों से पर्यावरण की सुरक्षा —सावधानीपूर्वक जीवों की सुरक्षा करते हुए स्वकर्तव्यों का पालन करना समिति है। ईया समिति में सूर्य के प्रकाश में जीवों की रक्षा करते हुए चलने का विधान है। भाषा समिति में हित—मित प्रिय वचन बोले जाते हैं इससे शब्द प्रदूषण,परस्पर कषायरूपी प्रदूषण नही होता है। एषणा समिति में शुद्ध सात्विक शाकाहार, फलाहार, जलाहार, दुग्धाहार का सेवन होता है, जिससे जीवों की हत्या नहीं होती और शारीरिक मानसिक रोग भी नहीं होता है। आदान निक्षेपण समिति में हर वस्तु की देखभाल कर जीवों की सुरक्षा करते हुए उसका उपयोग करना है। उत्सर्ग समिति में नगर, ग्राम, रास्ता, पशु—पक्षी के निवास, वृक्ष, बगीचे, जीव—जन्तु से रहित निर्जन एकान्त ,गह्या स्थान में मल—मूत्र, गन्दगी, अपशिष्ट का विसर्जन करना होता है। इसस ग्राम आदि में प्रदूषण, गन्दगी, जीवाणु नहीं फैलते हैं। इसे पर्यावरण की सुरक्षा, स्वच्छता होती है।
आचार्य कनकनदी
दिगम्बर जैन धर्म संघ में दीक्षित आचार्य, धर्मदर्शन सेवा संस्थान, ५५, रवीन्द्र नगर, उदयपुर—३१३००३ (राज.)