अनेक वर्षों से हम सभी लोग पर्युषण महापर्व हमारी महान परम्परा अनुरूप मनाते चले आ रहे हैं। लेकिन परंपरा से हमारे जीवन में कोई परिवर्तन नहीं आ पा रहा है। यह भी सत्य है । क्रोध—मन— माया—लोभ—निरंतर जारी हैं व इन्हीं को निरंतर पुष्ट करने का कार्य हम पर्वों सहित ३६५ दिनों में करते रहते हैं। जिस तरह से हमारी आदत हो गई है, तदनुरूप यदि मैं कभी कहूं कि पर्युषण पर्व इन कषायों का पोषण और अधिक हो जाता है तो आश्चर्य की बात नहीं है। यह बात सभी पर लागू नहीं होती यह भी सत्य है। लेकिन बहुमत तो कषायों का है इसमें गलत कुछ भी नहीं। जब हमारे घर में किसी का विवाह हो, जन्म दिवस हो, छोटा सा त्यौहार ही क्यों न हो, घर में वंâवर सा आने वाले हो, हम कितने दिनों पूर्व से तैयारी करते हैं। किनको बुलाना है, क्या बनाना है, कौन—कौन से कपड़े कब किस वक्त पहनना है ? किसको क्या—क्या देना है।
भोजन— नाश्ता, सुबह—शाम, रात्रि आदि में क्या—क्या देंगे आदि समस्त तैयारियां हम महिनों पहले से करते हैं, लिपिबद्ध व कंप्यूटराईज्ड भी करवा लेते हैं। जिसे जिम्मेदारी सौंपी जाती है उससे कई बार टेली कर लेते हैं। जिसे जिम्मेदारी सौंपी जाती है उससे कई बार टेली कर लेते हैं। विकल्प (अल्टरनेटिव) भी तैयार रखते हैं। धर्मशाला की बुकिन्ग भी महिनों पहले से हो जाती है। जब छोटे से लौकिक कार्य की तैयारियां महीनों पहले से शुरू हो जाती है, जिसका जीवन में कोई महत्व नहीं, खा—खोया बह गया हो जाता है। फिर भी उन कार्यों में हमारी तैयारियां कितनी पुख्ता व सुव्यवस्थित कार्य योजना के साथ होती है। लेकिन पर्युषण महापर्व की तैयारियों के लिए कोई कार्य योजना बनाई है क्या? तो हमारे पास जवाब होता है पर्युषण की क्या तैयारियां करना वह तो हम बचपन से मानते रहे हैं और फिर पंहितजी, ब्रं. दीदी, भैया, महाराजजी जैसा कहेंगे वैसा कर लेंगे, हमेशा से तो करते आए हैं।सांस्कृतिक कार्यक्रमों के नाम पर जैन धर्म से विपरीत फूहड़ गीतों की धुनों पर बने तड़क—भड़क भरें संगीत के नृत्यों की प्रैक्टिस कई दिनों पूर्व प्रारंभ हो जाती है।
जिनका इस महापर्व से कोई लेना देना नहीं है मात्र भीड़ का मनोरंजन व प्रदर्शन ही इनका एकमात्र उद्देश्य है। फिर पुरस्कार लोभ का, न मिलने पर क्रोध, मंच पर सम्मान मान का, मायाचारी का तो जवाब नहीं। हमारी सारी क्रियाएं पर्युषण पर्व के उद्देश्य के विपरीत नजर आती है। प्रभावना के नाम पर अपनी भावनाओं को पुष्ट करना हमारी प्रवृत्ति बन गई है। पर्युषण पर्व में होने वाले तत्वार्थ सूत्र वाचन करने वाले विद्वान का परीक्षण वे लोग करते हैं जो णमोकार मंत्र का स्पष्ट उच्चारण व चत्तारि मंगलपाठ, सही ढंग से बोल नहीं पाते है। जिस पर्व को हम शाश्वत कहते हैं, उसकी शाश्वतता के मायने क्या हो यह भी हमें नहीं मालूम है। परंपरा के नाम पर हम झगड़ा तो कर सकते हैं लेकिन जिस धर्म में परम्परा है सबसे पहले शांति , समन्वय, सामंजस्य, अहिंसा, कषायों से बचाव उस पर हमारा कोई ध्यान नहीं, हमें परंपरा के संबंध में आचार्य श्री वर्धमानसागरजी के कथन को याद करना चाहिये अपनी छोड़ेगे नहीं दूसरों की तोड़ेगे नहीं। संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागरजी महाराज के परम शिष्य मुनि श्री क्षमा सागर जी महाराज के मुख से सुनी एक कहानी याद आती है।
एक व्यक्ति एक वैद्यराज के पास गया, वैद्यराज जी ने उसे शरीर की पुष्टि के लिए बादाम किशमिश खाकर, शुद्ध केशर, शुद्ध घी से बना हलुआ खाने के लिए कहा व उसकी बनाने की विधि व सेवन करने का समय आदि निश्चित कर दिया। उस व्यक्ति ने तीन—चार दिन तक वह हलुआ खाया पर उसे फायदा नहीं हुआ व उसे उसके स्वाद का आनंद भी नहीं आया, तो वह पुन: वैद्यराजजी के पास गया और बोलने लगा कि आपके हलुए में कोई स्वाद नहीं है। वह मुझसे खाया नहीं जाता। वैद्यराज ने पूछा कि सब सामग्री बुलाई है, शुद्ध है, बोला हां सभी ए ग्रेड है, बेस्ट मार्का है, वैद्यराज जी ने कहा कहीं कुछ गड़बड़ है इस सामग्री का हलुआ तो श्रेष्ठ, सुस्वादु व पौष्टिक होता है, व्यक्ति और अधिक मांगता है उन्होंने कहा कि चलो आपके घर चलना पड़ेगा वही देखेंगे। घर आए सभी सामग्री चेक की तो गड़बड़ पकड़ में आई । पूछा कि केशर यही डाली थी, बोले हां, तो वैद्यराज जी ने कहा कि यह शुद्ध केशर तुमने हींग की डब्बी में रख रखी है, इसलिए शुद्ध केशर भी हींग की गंध से संस्कारित होकर हलुए का स्वाद खराब कर रही है ।
तो मरीज बोला कि डिब्बी हींग की है, जब तक केशर साफ स्वच्छ डिब्बी में नहीं रखोगे तब तक हलुआ ठीक भी नहीं बनेगा, बेस्वाद रहेगा। बंधुओं कहानी तो समाप्त हो गई लेकिन बड़ी शिक्षा दे गई व हमारे मन में सहज कह रही होगी कि हींग की डिब्बी में कोई केशर रखता है क्या ? तो समझे हम सभी का यही हाल है हम सांसारिक कार्यों में तो चतुर बनना पड़ेगा हमारे मन में जो क्रोध—मान—माया लोभ की गंध भरी हुई है, हम उसी मन में क्षमा, मार्दव, ब्रह्मचर्य की शुद्ध केशर रखकर धर्म का हलुआ बनाकर पुष्ट होना चाहते है। इसलिए सारी सामग्री शुद्ध होते हुए जिसमें ये शुद्ध केशर रखना है वहां (मन) हमने कितनी गंदगी इकठ्ठी कर रखी है सोचिये ऐसे में धर्म हमें कैसे आनंद देगा ? सारी गड़बड़ वहीं (मन में) है। ये पर्युषण पर्व हमें इस गंदगी को साफ करने का संदेश देते हैं इसलिए इसकी तैयारी बहुत दिनों पहले से करनी होगी। गायत्री परिवार वाले एक गीत गाते हैं जो जैन नहीं है फिर भी उनकी इन लाईनों में कितनी सार्थकता है। तुमने आंगन (मन नहीं बुहारा, कैसे आएंगे भगवान, हर कोने कल्मष की लगी हुई है ढेरी, नहीं ज्ञान की किरण कही है हर कोठरी अंधेरी।। तो आईए इन पर्युषण पर्व में हम अपने मन की पवित्रता के लिए कषायों की गंध को साफ करें व पूर्वाग्रहो से मुक्त होकर जीवन जिए, मन में जो कषाय की ढेरी लगी हुई है उसे हटाये, ज्ञान की किरण जगाए व हमारे संतों के निम्नांकित वाक्य निरंतर ध्यान में रखें। बुखार के समय यदि ताकत की दवाई दे दी जाय तो बुखार ही ताकत से आयेगा। ठीक ऐसे ही विपरीत बुद्धि वालों को यदि प्रोत्साहन मिले तो उनका अहंकार ही बढ़ता है। आचार्य विद्यासागरजी रोज घर , दुकान, कार, जूते, कपड़े आदि सभी वस्तुओं की सफाई करते हो, मन की सफाई के लिए भी तो पांच—दस मिनिट निकालो। आचार्य विद्यानंदजी शरीर के प्रति राग किया इसका परिणाम यह है कि यह शरीर बार बार राख हुआ। आर्यिका पूर्णमती माताजी त्याग वह वस्तु जो व्यक्त पदार्थ का विकल्प न हो तथा त्यक्त पदार्थ के अभाव में अन्य वस्तु की इच्छा बिना ही सुन्दर है। क्षुल्लक गणेशप्रशाद वर्णी इस तरह हम हमारे मन में महापुरूषों के जिनागम के वाक्यों को मनन कर जीवन को सार्थक करें । अंत में गुरु मंत्र: खाली बोरी कभी भी सीधी खड़ी नहीं हो सकती। पर्युषण की शुभभावना सभी से अग्रिम क्षमा भाव सहित……..
जैन जनवाणी अगस्त, २०१४