प्र- उपमान किसे कहते हैं ? उतर-जो राशि एक-दो आदि गणना के दवारा न कही जा सकने के योग्य होने से केवल उपमा के दवारा ही कही जाती हैं, उसे उपमान कहते हैं “ उपमान के आठ भेद होते हैं- १. पल्य २. सागरोपम ३. सूच्यंगुल ४. प्रतरांगुल ५. घनांगुल ६. जगत्छ्रेंणि ७. लोकप्रतर ८. लोक विशेष नोट – पल्य आदि का प्रमाण जानने के लिए निम्नलिखित बातों का जानना आवश्यक है “ प्र- परमाणु किसे कहते है ? उ-जो सुतीक्ष्ण शस्त्र से भी छेदन-भेदन और मोड़ने में असमर्थ होता है, जल-आग आदि से नाश को प्राप्त नहीँ होता, एक रस, एक गन्ध, एक रूप और दो स्पर्श गुणों से युक्त होता है; शब्द का कारण है किन्तु स्वयं शब्दरूप नहीं है, आदि-मध्य और अन्त से रहित है, बहुप्रदेशी होने से अप्रदेशी है, इन्द्रियों के द्वारा जानने के अयोग्य है, जिसका विभाग नहीं हो सकता, उस द्रव्य को परमाणु कहते हैं “ प्र- पुद्गल किसे कहते हैं ? उ-जो परमाणु अन्तरंग-बहिरंग कारणों से वर्ण, गन्ध , रस और स्पर्श गुणों के द्वारा स्कन्ध की तरह पूरण और गलन अर्थात वृद्धि-हानि को प्राप्त होता रहता है, उसे पुद्गल कहते हैं “ अनंतानंत परमाणुओं के स्कन्ध का नाम अवसन्नावसन्न है “ उससे सन्नासन, तृटरेणु, त्रसरेणु, रथरेणु, उत्तम भोगभूमि के मनुष्य के बाल का अग्रभाग, मध्यम भोगभूमि के मनुष्य के बाल का अग्रभाग, जधन्य भोगभूमि के मनुष्य के बाल का अग्रभाग, कर्मभूमि के मनुष्य के बाल का अग्रभाग, लीख, सरसों, जौ, और अंगुल ( उत्सेधांगुल ) ये बारह भी एक दुसरे से आठ-आठ गुने जानना “ अंगुल के तीन भेद हैं “ १. उत्सेधांगुल २. प्रमाणांगुल ३. आत्मांगुल पूर्वोक्त क्रम से उत्पन्न हुआ अंगुल ही उत्सेधांगुल है “ उत्सेधांगुल से माप ने योग्य पदार्थ नारकी, तिर्यंच, मनुष्य, और देवोके शरीर, भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी, और कल्पवासी देवों के नगर, और निवासस्थान आदि के माप का कथन किया जाता है “
प्रमाणांगुल का विवरण
उत्सेधांगुल से पांचसौ गुना प्रमाणांगुल होता है “ विशेष- यह प्रमाणांगुल भरतक्षेत्र में अवसर्पिणी कालके प्रथम चक्रवर्ती का आत्मांगुल होता है “ प्रमाणांगुल से मापने योग्य पदार्थ – द्वीप, समुद्र, पर्वत, वेदी, नदी, कुण्ड, जगती, क्षेत्र, आदि के प्रमाण का कथन किया जाता है “
आत्मांगुल का विवरण
भरत और ऐरावत क्षेत्र के मनुष्यो का अपने-अपने वर्तमानकाल में जो अंगुल होता है वह आत्मांगुल है आत्मांगुल से मापने योग्य पदार्थ – झारी, कलश, दर्पण, धनुष, ढोल, जुआ, शय्या, गाडी, हल, मूसल, शक्ति, भाला, सिंहासन, बाण, पासे, नाली, चमर, दुन्दुभि, आसन, छत्र, मनुष्यों के निवास, नगर, उद्यान आदिके प्रमाण का कथन किया जाता है
योजन का प्रमाण
छह अंगुल का एक पाद दो पाद = एक वितस्ति दो वितस्ति = एक हाथ दो हाथ = एक किष्कु दो किष्कु = एक दण्ड अथवा चार हाथ = एक दण्ड, ( दण्ड को धनुष भी कहते है ) दो हजार दण्ड = एक कोस चार कोस = एक योजन पल्य के तीन भेद है – १. व्यवहार पल्य २. उद्धार पल्य ३. अद्धा पल्य
व्यवहार पल्य का वर्णन –
प्रमाणांगुल से निष्पन्न योजन प्रमाण चौड़ा और गहरा गोल गड्ढा करो ” उसे उत्तम भोगभूमि के मेढ़े के युगल के जन्मसे एक दिन से लेकर सात दिन के रोमों के अग्रभागों को, जिनकी लम्बाई -चौड़ाई अग्रभाग के समान हो, पृथ्वी के स्तर तक अत्यन्त ठसाठस भर दो ” इन रोमाग्रों में -से एक-एक रोम सौ-सौ वर्ष के बाद निकालने पर जितना काल होता है , वह सब व्यवहार[[पल्य]] का काल है “
विशेष नोट- व्यवहार पल्य में कितने रोम होते है उन रोमों की संख्या- ४१३,४५२६३०३,०८२०३१७,१९२०००००००००००००००००० ” अर्थात चार सौ तेरह कोड़ाकोड़ी कोड़ाकोड़ी कोड़ाकोड़ी पैंतालीस लाख छब्बीस हजार तीन सौ तीन कोड़ाकोड़ी कोड़ाकोड़ी कोड़ी,आठ लाख बीस हजार तीन सौ सतरह कोड़ाकोड़ी कोड़ाकोड़ी,सतहत्तर लाख उनचास हजार पांचसौ बारह कोड़ाकोड़ी कोड़ी, उन्नीस लाख बीस हजार कोड़ाकोड़ी प्रमाण होते हैं “ व्यवहार पल्य के रोमों की संख्या निकालनेकी विधि- व्यास एक योजन , उसका वर्ग भी एक योजन , उसे दससे गुणा करने पर दस योजन प्रमाण परिधि होती है ” इसका वर्गमूल १९\६ होता है ” इसमें व्यास के चतुर्थ भाग से गुणा करने पर क्षेत्रफल १९\६ १\४ = १९\२४ होता है ” इसको गहराई में एक योजन से गुणा करने पर घनफल भी १९\२४ होता है “ एक योजन = आठ हजार धनुष एक धनुष = छियानवे अंगुल एक प्रमाणांगुल = पांचसौ व्यवहारान्गुल एक व्यवहारांगुल = आठ यव एक यव = आठ जू एक जू = आठ लीख एक लीख = कर्मभूमिज मनुष्य के आठ बालाग्र कर्म.मनुष्यके एक बालाग्र = जघन्य भोगभूमिज मनुष्य के आठ बालाग्र ज. भो.मनुष्य के एक बालाग्र = मध्यम भोगभूमिज मनुष्य के आठ बालाग्र म. भो. मनुष्य के एक बालाग्र = उत्कृष्ट भोगभूमिज मनुष्य के आठ बालाग्र होते हैं घनराशिके गुणाकार घनात्मक ही होते हैं “ अतः इन सबका गुणाकार घनरूप करने के लिए उन्नीस का चौवीसवाँ भाग लिखकर उसके आगे आठ हजार आदि तीन-तीन बार रखकर परस्पर गुणा करना चाहिए – १६\२४ – ८००० ” ९६ “५०० ” ८ “८ “८ “८ “८ “८” ८ ” ८००० ” ९६ ” ५०० “८ “८ “८ “८ “८ “८ “८ ” ८००० “९६ “५०० “८ “८ “८ “८ “८ “८ “८ “ सो गुणाकारों मे राशि के अर्धखंड विधान के अनुसार और लघुकरण के द्वारा गुणा करने पर जो लब्ध प्राप्त हुआ वही उपर्युक्त व्यवहार पल्य के रोमों की संख्या हैं –
उद्धार पल्य –
पुनः इन एक-एक रोमाग्र का असंख्यात करोड़ वर्षो के जितने समय होते हैं, उतने-उतने खण्ड करने पर दूसरे उद्धार पल्य के रोमाग्रो की संख्या होती हैं “ इतने ही इसके समय होते हैं –
अद्धा पल्य-
इन उद्धार पल्य के रोम खंडो में-से भी प्रत्येक खण्ड के असंख्यात वर्ष के जितने समय हैं, उतने खण्ड करो ” जो प्रमाण हो, उतने ही अद्धा पल्य के रोम खण्ड हैं ” इसके समयों का प्रमाण भी उतना है , क्योंकि प्रतिसमय एक-एक रोम निकालने पर जितने समय में वह रिक्त हो , उतना ही अद्धा पल्य का काल है “ अर्थसंदृष्टि के अनुसार पल्य की संहनानी ( चिह्न ) प है “ प्रथम पल्य से रोम संख्या , दूसरे से द्वीपसमुद्रों की संख्या और तीसरे से कर्मों की स्थिति आदि जानी जाती है “