शुभ धातकी वर द्वीप में, पश्चिम दिशा में जानिये।
शुभ क्षेत्र ऐरावत अचल, मेरु के उत्तर मानिये।।
तिसमें हुए चौबीस तीर्थंकर अतीते काल में।
तिनकी करूँ मैं भक्ति नित, वंदूँ सदा खुशहाल मैं।।१।।
ज्ञाननेत्र से लोकते, लोक-अलोक समस्त।
चौबीसों जिनराज मम, शिवपथ करो प्रशस्त।।२।।
श्री ‘सुमेरु’ जिनराज, भव भय क्लेश निवारा।
परम अतीन्द्रिय सौख्य, पाय सकल गुण धारा।।
निजानंद सुख हेत, लिया आपका शरणा।
श्रद्धा भक्ति समेत, मैं वंदूँ तुम चरणा।।१।।
श्री ‘जिनकृत’ भगवान्, सकल करम क्षय कीने।
परमानंद प्रधान, निज अनुभव सुख लीने।।निजानंद.।।२।।
‘कैटभनाथ’ जिनेश, कर्मकलंक नशाया।
पहुँचे निज शिवधाम, अनुपम सुख को पाया।।निजानंद.।।३।।
‘प्रशस्त’ दायक नाथ, ध्यान प्रशस्त लगाके।
पाया शिवसुखधाम, कर्म समूल नशाके।।निजानंद.।।४।।
श्री ‘निर्दमन’ जिनेश, मृत्यू का मद हरके।
निज अनंत गुण खेत, फलित किया निज बल से।।निजानंद.।।५।।
‘कुलकर’ निजकुल सूर्य, मुनि मन कमल खिलाते।
परमामृत से पूर्ण, भवि अघ तिमिर भगाते।।निजानंद.।।६।।
‘वर्धमान’ भगवान्, भविजन हर्ष बढ़ाते।
सुर नर किन्नर वृन्द, तुम पद पुष्प चढ़ाते।।निजानंद.।।७।।
‘अमृतेंदु’ भगवान्, धर्मामृत बरसाते।
परमानंद निधान, सब जन मन हरषाते।।निजानंद.।।८।।
‘संख्यानंद’ जिनेश, ज्ञान सुधा रस झरना।
नित असंख्य जन आय, लिया तुम्हारी शरणा।।निजानंद.।।९।।
श्री ‘कल्पकृत’ नाथ, चतुर्गती भ्रम हरके।
शिवकांता के नाथ, हुए त्रिजग निधि वरके।।निजानंद.।।१०।।
श्री ‘हरिनाथ’ जिनेंद्र, हरि हर ब्रह्मा वंदें।
इंद्र नरेंद्र फणीन्द्र, सब मिल तुम पद वंदें।।निजानंद.।।११।।
‘बहुस्वामी’ जिननाथ, त्रिभुवन नाथ तुम्हीं हो।
जन्मव्याधि के हेतु, अनुपम वैद्य तुम्हीं हो।।निजानंद.।।१२।।
श्री ‘भार्गव’ भगवान्, परम धर्म के कर्ता।
जो वंदें धर ध्यान, हो जावें शिव भर्ता।।निजानंद.।।१३।।
‘सुभद्रस्वामि’ जिनदेव, भद्र जनों के स्वामी।
त्रिभुवन औ त्रयकाल, जानत अंतर्यामी।।निजानंद.।।१४।।
‘पविपाणि’ तीर्थेश, कर्म अचल को चूरा।
गुणमणिखान महान, सर्व गुणों को पूरा।।निजानंद.।।१५।।
देव विपोषित आप, भक्त जनों को पोषें।
मुनिगण तुम पद ध्याय, निजमन को संतोषें।।निजानंद.।।१६।।
‘ब्रह्मचारि’ जिनदेव, परम ब्रह्म कहलाते।
गणधर नित तुम ध्याय, स्वातमनिधि विकसाते।।निजानंद.।।१७।।
नाथ ‘असांक्षिक’ आप, समवसरण में सोहें।
संशय तमहर देव, सुर किन्नर मन मोहें।।निजानंद.।।१८।।
‘चारित्रेश’ जिनेश, पंचम चारित पाके।
पंचमगति का सौख्य, पाया जिन को ध्याके।।
निजानंद सुख हेत, लिया आपका शरणा।
श्रद्धा भक्ति समेत, मैं वंदूँ तुम चरणा।।१९।।
‘परिणामिक’ भगवान्, पंचमभाव लिया है।
पूर्ण शुद्ध परिणाम, कर शिव प्राप्त किया है।।निजानंद.।।२०।।
‘शाश्वतनाथ’ महेश, लोकशिखर पर राजें।
पुनर्जन्म नहिं लेत, शाश्वत काल विराजें।।निजानंद.।।२१।।
श्री ‘निधिनाथ’ जिनेंद्र, तुमको जो जन ध्यावें।
नवनिधि ऋद्धिसमेत, अनुपम सुख को पावें।।निजानंद.।।२२।।
श्री ‘कौशिक’ भगवान्, भविमन कुमुद विकासें।
जो ध्यावें मन लाय, निजपर भेद प्रकाशें।।निजानंद.।।२३।।
श्री ‘धर्मेश’ जिनेंद्र, धर्मचक्र के भर्ता।
सुर ललनायें नित्य, गुण गावें सुखभर्ता।।निजानंद.।।२४।।
त्रिभुवन पति त्रिभुवन मस्तक पर, जाकर के सुस्थिर राज रहे।
त्रयकालिक गुण पर्यायों युत, संपूर्ण पदारथ जान रहे।।
वर पंच कल्याणक के स्वामी, चौबीसों तीर्थंकर जग में।
मैं वंदूँ ज्ञानमती पूरो, पाऊँ अविचल शाश्वत सुख मैं।।२५।।