अपरधातकी में, ऐरावत जानिये।
वर्तमान चौबीस, जिनेश्वर मानिये।।
तिनको वंदन करूँ, भक्ति उर लायके।
शुद्ध बुद्ध परमातम गुण चित ध्यायके।।१।।
श्रीमन् ‘साधित’ तीर्थंकर को, सुरपतिगण मिल वंदें।
जो इनको नित वंदन करते, अपने अघरिपु खंडे।।
नव क्षायिक लब्धी हेतू मैं, प्रभु को शीश नमाऊँ।
निज आतम अनुभव अमृत को, पीकर तृप्ती पाऊँ।।१।।
‘जिन स्वामी’ तीर्थंकर जग में, अनुपम हित उपदेशी।
प्रभु तुम नाम मंत्र ही जग में, रोग शोक दुख भेदी।।नव.।।२।।
‘स्तमितेन्द्र’ जिनेन्द्र विश्व में, परमानंद प्रदाता।
निश्चल मन से जो नित वंदें, वे पावें सुख साता।।नव.।।३।।
‘अत्यानंदधाम’ जिनवर जी, परमानंद सुख कर्ता।
सुर नर किन्नर सुरललनागण, वंदें भव दुख हर्ता।।नव.।।४।।
‘पुष्पोत्फुल्ल’ नाथ इस जग में, भविजन मन हरसावें।
सबको आत्यंतिक सुख हेतू, धर्मामृत बरसावें।।नव.।।५।।
श्री ‘मँडित’ जिनवर तीर्थंकर, श्री सर्वज्ञ कहाते।
शत इंद्रों से वंदित नितप्रति, जो वंदें सुख पाते।।नव.।।६।।
‘प्रहितदेव’ जिनदेव त्रिजगपति, धर्मचक्र के धारी।
दश धर्मों का करें प्रवर्तन, भविजीवन हितकारी।।नव.।।७।।
‘मदनसिद्ध’ सब काम क्रोध मद, माया लोभ नशाके।
परम सुखास्पद धाम लिया है, आठों कर्म जलाके।।
नव क्षायिक लब्धी हेतू मैं, प्रभु को शीश नमाऊँ।
निज आतम अनुभव अमृत को, पीकर तृप्ती पाऊँ।।८।।
श्री ‘हसदिंद्र’ जिनेश्वर सुखकर, विषय कषायजयी हैं।
मुनिगण उनके पदपंकज नमि, पावें मोक्षमही हैं।।नव.।।९।।
‘चंद्रपाश्र्व’ जिन अतुल चंद हैं, मुनिमनकुमुद विकासी।
जो नित वंदें भक्ति भाव से, पावें निजसुखराशी।।नव.।।१०।।
‘अब्जबोध’ तीर्थंकर जग में, भविजनकमल खिलाते।
जन्मजात बैरी प्राणी को, प्रेम पियूष पिलाते।।नव.।।११।।
‘जिनबल्लभ’ तीर्थंकर मुक्ती-ललना के वर माने।
सम्यग्दृष्टीजन उनको भज, निज-पर को पहचानें।।नव.।।१२।।
‘सुविभूतिक’ तीर्थंकर भवहर, त्रिभुवन विभव सनाथा।
भाक्तिकजन उनको वंदत हैं, नित्य नमाके माथा।।नव.।।१३।।
देव ‘कुकुद्भास’ तीर्थंकर, धर्मध्वजा फहराते।
जो जन वंदें भक्ति भाव से, आत्मसुधारस पाते।।नव.।।१४।।
‘नाथ सुवर्ण’ परम तीर्थंकर, वर्ण रहित अशरीरी।
जो उनके पदपंकज वंदें, होवें चरम शरीरी।।नव.।।१५।।
तीर्थंकर ’हरिवासक’ भवहर, भवि दुख शमन करे हैं।
हरि हर ब्रह्मा बुद्ध सूर्य शशि, तुम पद नमन करे हैं।।नव.।।१६।।
श्री ‘प्रियमित्र’ भविक जनगण के, मित्र परम उपकारी।
सुर ललनायें भक्तिभाव से, गावें गुण अविकारी।।नव.।।१७।।
भवहर ‘धर्मदेव’ तीर्थेश्वर, अविचल धाम विराजें।
सुर किन्नरियाँ वीणा लेकर, भक्ति के स्वर साजें।।नव.।।१८।।
श्री ‘प्रियरत’ तीर्थंकर लखते, तीन लोक त्रयकाला।
जो जन श्रद्धा से नित वंदें, उनके वे प्रतिपाला।।नव.।।१९।।
‘नंदिनाथ’ भवि को आनंदें, सुरगण उनको वंदें।
परम अतींद्रिय सौख्य पायके, भोगें परमानंदें।।नव.।।२०।।
‘अश्वानीक’ जिनेश्वर तुम हो, शम दम के अवतारी।
परमप्रशमसुख वे पा लेते, जो वंदें सुखकारी।।नव.।।२१।।
‘पूर्वनाथ’ सुख लिया अपूरब, क्षपक श्रेणि पर चढ़के।
निजभक्तों को भी सुख अनुपम, देते हैं बढ़ चढ़के।।नव.।।२२।।
‘पाश्र्वनाथ’ जिननाथ हमारे, सर्व दुखों के हर्ता।
सुर नर असुर सदा तुम वंदें, हो जाते शिव भर्ता।।नव.।।२३।।
‘चित्रहृदय’ जिन चित्र विचित्रित, पंच परावर्तन को।
कर समाप्त निज गुण विचित्र, सब पाया वंदूँ उनको।।नव.।।२४।।
वर्तमान चौबीस जिनेश्वर को नमूँ।
श्रद्धा भक्ति समेत सतत उनको नमूँ।।
वंदूँ शीश नमाय नमाऊँ भाल मैं।
ज्ञानमती हो पूर्ण तुरत खुशहाल मैं।।२५।।