वक्ता की अभिव्यक्ति उसकी वाणी में निहित है । कौन क्या है— इसका पता उसकी वाणी से चल जाता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने विचारों की अभिव्यक्ति चाहता है और उसके लिए शब्दों और भाषा का चयन करता है । वह उन्हीं शब्दों को चुनता है , जिनके माध्यम से उसके भावों की अभिव्यक्ति हो सके। वे शब्द ही वक्ता के व्यक्तित्व को कह देते हैं। जैसे कमल को पंक छू भी नहीं सकता उसी प्रकार उत्तम वक्ता की जिव्हा को अपशब्द स्पर्श नहीं कर पाते। सरल, विमल जलाशय को जैसे राजहंस पक्षी घेर लेते हैं, उसी प्रकार उत्तम वक्ता शिष्ट एवं संस्कारयुक्त शब्दराशि का प्रयोग करता है। वक्ता उन शब्द पक्षियों के पंखों पर अपनी भावराशि को विराजमान कर श्रोताओं के देश को भेजता है । उन शब्दों में वक्ता का हृदय छिपा रहता है , उसके सामथ्र्य का संकेत मिलता है कहा है कि—
कुलप्रसूतस्य न पाणिपदमं, न जारजातस्य शिरोविषाणम् ।
सत्कुल में उत्पन्न व्यक्ति की हथेली में कमल नहीं होता और अकुलीन के मस्तक पर शृ्रंग (सींग) नहीं उगता। किंतु जब—जब वह वाणी बोलता है, तब—तब (उन वचनों से) उसकी जाति और कुल का प्रमाण मिल जाता है। वाणी के मूल में वाण निहित है। जिस प्रकार व्याघ्र बाण से पक्षियों की हिंसा कर देता है, उसी प्रकार अपने कुल और जाति को प्रमाणित करता हुआ कोई जब हृदय को आघात पहुंचाने वाली वाणी का प्रयोग करता है , तो उसके कुल—शील आदि का परिचय स्वत: श्रोता को मिल जाता है। वक्ता की कसौटी लोक है। बड़े—बड़े शास्त्र धुरन्दर भी लोक व्यवहार का परिज्ञान न होने से असफल सिद्ध हो जाते हैं। वक्ता को नित्य ही लोकजीवन के सम्पर्वक में आना होता है। वह अपनी वाणी के रूप में सदैव लोक के मानस नेत्रों में रहता है। जो मनुष्य मूक रहता है, उसके विषय में आलोचना करने वाले चाहे न मिलें किंतु जो बोलता है, उसके बारे में अपनी राय कायम करने में लोग नहीं चूकते क्योंकि मौन रहने वाला अपने व्यक्तित्व को कूर्म (कछुये) के समान प्रच्छन्न (निगूढ़) रखता है, इसलिए उसके सुन्दर या विकृत अंगों पर लोकदृष्टि नहीं जा पाती किंतु बोलने वाला अपने अभ्यन्तर को व्यक्त करता रहता है। अत: उसके विषय में अपना मत, मन्तव्य स्थापित करना सहज हो जाता है। धारावाहिकता वक्ता के गुणों में प्रथम है। किसी विषय पर बोलते समय बीच—बीच में रुकना, विषयान्तर होना या कहते हुये विषय को बार—बार दोहराना, पिष्टपेषण करना अथवा विषय की क्रमबद्धता को स्थिर नहीं रख पाना—ये वक्ता के दोष हैं। यदि विषय के अनुकूल भाषा नहीं बोली जाएगी, तो समझ में ना आने के कारण श्रोता विरक्त हो जाएंगे। यह दोष श्रोताओं का नहीं, वक्ता का होगा। जब तक सुनने वाले सभासद विषय को नहीं समझ पावें, तब तक वक्ता का ही दोष मानना होगा। वक्ता के आवश्यक गुणों में श्रोताओं का अध्ययन सम्मिलित है। सभा का विषय क्या है ? श्रोता कैसे हैं ? किस भाषा में निपुण हैं? किस विषय को सुनना पसन्द करते है ? इन सबको जानकर हित, मित, मधुर शब्दों में अपने वक्तव्य को प्रस्तुत करने वाला कभी असफल नहीं हो सकता और इसके विपरीत श्रोताओं की रूचि एवं बौद्धिक स्तर को न समझने वाला व्यक्ति अनेक शास्त्रों में निपुण होने पर भी सभामंच को स्थिर नहीं रख सकता। सफल वक्ता की सभा में शान्ति रहती है । श्रोताओं के समूह जैसे लोहा, चुम्बक की ओर खींचता है, वैसे खिंचे चले जाते आते है। उनकी सारी इन्द्रियां उस समय श्रोत्रेन्द्रिय में आकर बैठ जाती हैं। जो धर्मकथा कहने के लिए सभामंच को अलंकृत करे उस मुनि को विद्वान् समस्त शास्त्रों के हृदय को जानने वाला, लोक मर्यादाओं को समझने वाला, किसी प्रकार की आशा न रखने वाला, प्रतिभावान, इन्द्रियसंयमी और प्रश्न के पूर्व ही उसके उत्तर को भलीभांति देखा हुआ होना चाहिए। साथ ही वह प्रश्नों की बौछार में विचलित होने वाला न हो, अधिकार सहित सभा पर नियन्त्रण रखने में कुशल हो, सभा का हृदय जीतने वाली मिठास से बोलता हो, पर लांछन न करते हुए अपनी बात का समर्थक हो और अक्षरों का रक्षक हो, उसे ही सभा में बोलने का आशीर्वाद आचार्य ने दिया है। जैसे अन्न को सूप से फटककर उसमें से भूसा दूर करके ही उपयोग में लिया जाता है, उसी प्रकार अपशब्द को प्रयोग में न लाते हुए जो बोलता है, वह वाणी की प्रतिष्ठा करता है । कल्पवृक्ष के समान वाणी उसे फलदायिनी होती है। लोग उसे मधुरभाषी कहते हैं। मिष्टवाणी को कौन नहीं चाहता ? लोक कल्याणी भाषा हर कोई सुनना चाहता है और जो इस विशिष्ट वाणी की उपासना करता है, वह लोक को वश में करने की क्षमता रखता है। पं.दौलतरामजी ने छहढाला में भाषासमिति— प्रकरण में लिखा है—
जग सुहितकर सब अहितहर , श्रुतिसुखद सब संशय हरै।
भ्रमरोगहर जिनके वचन, मुखचंद्र तै अमृत झरै।।
मधुरभाषित लोक— वशीकरण का अमोघ मंत्र है। बहुत से लोग उपदेश को भी कठोर शब्दों में सुनना पसन्द नहीं करते। इसीलिए उपदेश की कटुता को मृदु करने के लिए व्याख्याता बीच—बीच में मन को आकर्षित और प्रपुल्ल करने वाली सूक्तियों और कथाओं का आश्रय लेते हैं। जैसे कुनैन की गोलियों को चीनी में लपेटकर देने से उनकी कड़वाहट प्रतीत नहीं होती, ऐसे ही उपदेशवाणी को भी मधुर, संयत और आह्लादक धर्म से विभूषित करना अधिक उपादेय सिद्ध होता है । जिस प्रकार लोकरंजन राजा की विशेषता होती है ,उसी प्रकार सभारंजन वक्ता के प्रभुत्व की पहचान है। सभासदों की रूचि को न पहचान कर किसी नितान्त व्यक्तिगत, रूखी अथवा मूलविषय से हटकर चर्चा को विस्तार देने से श्रोता ऊबकर उठने लगते हैं या परस्पर बातचीत करने लग जाते है। अत: सभायोग्य वाणी को पहचानना वक्ता का आवश्यक गुण है। संसार का उद्धार करने की अभिलाषा लेकर लोकहितकारी सन्त वक्ता तो बहुत ढूंढने पर मिलते हैं। उन्हीं के उपदेश श्रवण से प्राणियों का हित होता है, अहित दूर होकर कल्याण मार्ग के दर्शन होते हैं। प्राचीन काल में अनेक आचार्यों ने परिभ्रमण करते हुए अपनी समर्थ सम्यक् जिनवाणी से लोक में धर्मप्रभावना की है। उन्होंने अपनी वाणी—सामथ्र्य से लोक को उत्तम—परिणामी बनाया है और मोक्षमार्ग से परिचित किया है। भव्य श्रोता उनकी वाणी के रथ पर आरूढ़ होकर धर्म के नन्दनवन में पहुंच जाते हैं । ऐसे वक्ताओं में आचार्य समन्तभद्र और आचार्य अकलंकदेव का नामोल्लेख विशेष रूप से किया जाता है। करहाटक के राजा को उसकी विद्वत्परिषद में आचार्य समन्तभद्र ने चुनौती भरे स्वर में कहा— पहले मैंने पाटलिपुत्र में जयभेरी बजाई, फिर मालव , सिंधु, ठक्क (ढाका) देश, कांचीपुर और विदिशा में वादभिक्षा के लिए घूमा। हे राजन् ! अब मैं भटों से युक्त, विद्या से उत्कट तथा अल्पविस्तार वाले करहाटक नगर में आ पहुंचा हूँ। मैं सर्वत्र निद्र्वंद्व, सिंहवृत्ति से वाद करने के लिए विचरण कर रहा हूँ । धर्म प्रभावना के लिए आचार्य अकलंकदेव ने बौद्धों से शास्त्रार्थ कर उन्हें पराजित किया था। श्री एम.एस. रामस्वामी आयंगर ने अपनी पुस्तक स्टडीज इन साउथ इंडियन जैनिज्म में लिखा है— समन्तभद्र एक बहुत बड़े जैन धर्म—प्रचारक थे, जिन्होंने जैन— सिद्धांतों और जैन—आचारों को दूर—दूर तक विस्तार के साथ फैलाने का उद्योग किया है।जहां कहीं वे गये, उन्हें दूसरे सम्प्रदायों की तरफ से किसी भी विरोध का सामना नहीं करना पड़ा। आचार्य समन्तभद्र को दिग्विजय जैसी यह सफलता बिना किसी विरोध के मिल सकी, इसमें उनकी निरभिमान , मधुर तथा लोकोपकार— परायण की भावना से अनुप्राणित अनुपम वादशैली परम सहायक रही। अक्षरबोध कराने वाला शिक्षक शिशु छात्र को अ, आ. इत्यादि सिखाता है और अनेक बार अभ्यास करते हुए विद्यार्थी पर झुंझला जाता है किन्तु अभी अक्षरबोध सीखता हुआ बालक शिक्षक के समान द्रुतगति से वर्णमाला कैसे लिखे ? वत्तृत्वसिद्धि के लिए भी इसी प्रकार छात्रावस्था से निकलकर गुरु बनते दीर्घकाल लगता है। इच्छित विषय पर अर्थपूर्ण शब्दों का ज्ञान बड़ी तप: साधना से हो पाता है । चन्द्रमा भी चाहने पर एक ही दिन में सोलह कलावाला नहीं हो सकता । कला शब्द का अर्थ ही भाग, अंश, खण्ड इत्यादि है। प्रतिदिन कलासंयुक्त वक्ता चन्द्रमा के समान पहले दिन कुमुदिनी को खिलाता है और पर्वदिवस आते—आते वह महासमुद्रों के मानस को उद्वेलित कर देता है । इसी क्रम से साधुवक्ता भी अपनी वाणी से परिपक्व होकर ही जनसमुद्र को प्रसन्न,तरंगित कर सकता है। जैसे समुद्र में कल्लोल उठाने की कला चन्द्रमा को ज्ञात है, उसी प्रकार जनमानस को भावविभोर करने का कौशल अच्छे वक्ता को सिद्ध होता है। वह शब्दों के अन्त:करण को पहचानता है । किस समय, कौन शब्द श्रोताओं के हृदय को विकसित कर सकता है और कौन — सा शब्द विरक्त कर सकता है, इसे वह अच्छी तरह पहचानता है ।
इसी गुण के साथ श्रोता समरस हो जाते हैं। जो इस तत्व को नहीं जानते हैं, वे सफलता से वंचित रहते हैं। प्रवचन का प्रारंभ और समाप्ति निर्धारित समय पर होना आवश्यक है नहीं तो लोग देर तक आयेंगे अथवा नहीं आयेंगे।यदि सूचित किये हुए समय से विलम्ब कर प्रवचन आरंभ करेंगे, तो श्रोता घर से ही देरी से चलेंगे और ठीक समय पर समाप्त न करेंगे, तो नित्य के काम काजी आदमी दूसरे दिन आने में रूचि नहीं रखेंगे। आज के व्यस्त युग में घड़ी को कार्यक्रम से मिलाना सफलता का प्रथम पाठ है। श्रोताओं को विश्वास होना चाहिए कि वक्ता नियत समय पर व्याख्यान आरंभ कर देंगे, चाहे हम पहुंचे या न पहुँचें। तब वे पहुंचने लगेंगे। जब किसी स्थान पर अनेक दिनों तक बोलना पडे, वहां वक्ता को संचित ज्ञानकोष की पहचान होती है। ऐसे स्थानों पर अवसरवादी नहीं, स्वाध्यायी टिक सकता है । जैसे मौलिश्री वृक्ष प्रतिदिन बासी पुष्पों को गिराकर नये—नये पुष्प शाखाओं पर खिलाता रहता है, उसी प्रकार सदवक्ता श्रोताओं के सम्मुख नितनूतन ज्ञानसामग्री उपस्थित करता है। कमल सूखता नहीं, क्योंकि उसका मूलपानी में है और श्रेष्ठ वक्ता विषय, शब्द और नये कथन के लिये दीन नहीं होता क्योंकि उसका मूल ज्ञानार्णव (ज्ञानरूपी समुद्र) में है। ऐसे वक्ता नित्य ही अपूर्व बोलते हैं, सदा ही उनका स्तर ऊँचा रहता है और उनकी वाणी से मोह एवं अज्ञान— अंधकार नष्ट हो जाते है। सदवक्ता लोकमानस में व्याप्त निराशा, अनुत्साह, मोह और मिथ्यात्व को दूर कर उसमें उत्साह , ज्ञान और सम्यक्तव की प्रतिष्ठा करता है । उसके प्रत्येक पद से विश्वास की ध्वनि निकलती है, आत्मचेतना के छंद गूंजते हैं, विवेक और धर्मानुराग के भाव प्रकट होते हैं। श्रेष्ठ वक्ता की वाणी जनमानस के पापरूपी कीचड़ को धोने के लिए धर्मरूपी झरने के समान है और कायर हृदयों में भी ओजस्विता भरने वाली है। जैसे कमल पर गिरती हुई सूर्य की प्रखर किरणें उसे खिला देती है, उसी प्रकार गुरु भव्यजनों को यदि प्रकरणवश कठोर शब्दों में भी कहें, तो उसमें भी उनका विकास है । गुरु के वचनों को सुनकर जीवन धन्य हो जाता है । मरणशील अमर बन जाता है। उनका तप, संयम और चारित्र शंकाओं को टिकने नहीं देता। भाषा समिति का पालन करने से श्रमण—मुनियों की वाणी प्रभावशाली होती है । कन्नड़ भाषा में एक कवि ने कहा है— कालदोष से नमक का क्षरत्व नष्ट हो सकता है , कर्पूर काला हो सकता है विंâतु श्रमण— मुनियों के वचन कभी कठोर नहीं हो सकते । वास्तव में सत्यमहाव्रत का पालन करने वाले त्यागी अल्पभाषिता से अपने वचनों की प्रमाणिकता के लिए विख्यात हैं। यद्यपि वे हित मित और सारवचन ही बोलते है किंतु अपेक्षा भेद से किसी को अमृत और किसी को करेला के समान प्रतीत होते हैं। सूर्य की किरणें तो वे ही हैं, जो कमलवन को विकसित करती हैं, किंतु कुमुद मुरझा जाता है और उलूक की आँख अंधकार से घिर जाती है। यहां ग्राहकभेद से परिणामभेद हो जाता है । आचार्य समन्तभद्र की वत्तृता से धर्माभिरूचियुक्त जनमानस तो प्रसन्न गदगद हो जाता था किंतु वे ही वचन कुमतिशालियों पर व्रजपात के समान थे। जिसके मुख में मधुरता का अक्षयस्रोत है, वह भी यदि कटुवादी है, तो मानो हाथ के मीठे फलों को छोड़कर वह खट्टे फलों को खाता है । साधु वक्ता अपनी वाणी से श्रोताओं को सम्यक्तव की ओर ले जाता है । स्वयं सन्मार्गी होकर दूसरों को उसी पथ का पथिक बनने की प्रेरणा देता है। परोपदेश पाण्डित्यम् उसका धर्म नहीं । सन्त तुकाराम का कथन है— जो जैसा बोलता है और वैसा ही चलता है, तो उसके चरण वन्दन—योग्य हैं , क्योंकि बोलना सरल है, परंतु चलना (आचरण करना) कठिन है। वक्ता के व्याख्यान से लाभ उठाने वाले श्रोताओं में कुछ राजहंस पक्षी के समान होते हैं, जो सार—ग्रहण के लिए अपने अवधान के चंचुपुटों को तत्पर रखते हैं । कुछ कच्ची ईंट के समान भी होते हैं ।
पानी बरसा तो गीली हो गई और सूर्य की किरणें लगीं कि सूखकर सख्त, जैसी पहले थी वैसी ही हो गई, पानी के असर से बेभान। सभा में बैठे, तो भावप्रवाह में ऐसे बहे कि कभी रोये और कभी हँसने लगे। बाहर निकले, मुँह धोया और वैसे ही कूटस्थ । श्मशान — वैराग्य के समान। परन्तु इन दोनों से भिन्न तीसरे श्रोता तो छलनी या कंघी के समान हैं, जो व्याख्यान के उत्तम अंश को भी ग्रहण नहीं कर पाते । बेचारों के पल्ले में तुष या मैल ही रह पाता है। कमल—भरे तालाब में उन्हें कीचड़ ही हाथ लगता है। सम्यक् वक्ता को हित—ाqमतभाषी होकर परमार्थ का पथ संकेत कर देना पर्याप्त है। तुलसी मीठे वचन तें, सुख उपजत चहुं ओर