पांचों व्रतों में कोई भी एक व्रत करके उद्यापन में समवसरण विधान करना है या प्रत्येक अपने—अपने व्रत के विधान करना है। तीर्थंकर भगवंतों की सभी केवलज्ञान भूमि के या किसी एक के दर्शन अवश्य करना है।भगवान ऋषभदेव ने प्रयाग में दीक्षा ली है, प्रयाग में ही उन्हें केवलज्ञान हुआ है। भगवान नेमिनाथ ने गिरनार में दीक्षा ली है वहीं गिरनार में ही उन्हें केवलज्ञान हुआ है। भगवान पार्श्वनाथ ने वाराणसी—अपनी जन्मभूमि में दीक्षा ली हैं एवं उन्हें अहिच्छत्र में केवलज्ञान हुआ है। भगवान महावीर ने अपनी जन्मभूमि कुण्डलपुर में ही दीक्षा ली है पुन: जृंभिका—‘जमुही’ में केवलज्ञान हुआ है वह तीर्थ भी बन गया है। शेष सभी तीर्थंकरों को अपनी—अपनी जन्मभूमि में ही केवलज्ञान हुआ है। इन केवलज्ञान भूमियों के दर्शन करना। जिनप्रतिमा प्रतिष्ठा कराकर समवसरण में या मंदिर में विराजमान कराना। तीर्थंकरों के परिचय की पुस्तकें छपाकर बांटना आदि यथाशक्ति उद्यापन करना चाहिये।इन व्रतों का फल इस लोक में सुख, शांति, समृद्धि व रोग, शोक की हानि है तथा परम्परा से आत्मा में केवलज्ञान की प्राप्ति होना है।