(श्री विद्यानंदि स्वामि-विरचित)
पद्यानुवाद-(चौबोल छंद)
-पृथ्वी छंद-
जिनेन्द्र! गुण संस्तुतिस्तव मनागपि प्रस्तुता।
भवत्यखिलकर्मणां प्रहतये परं कारणं।।
इति व्यवसिता मतिर्मम ततोऽह-मत्यादरात्।
स्फुटार्थ-नयपेशलां सुगत! संविधास्ये स्तुतिम्।।१।।
हे जिनवर! गुण संस्तव तेरा, किंचित् भी गाया जाता।
अखिल कर्म के नाश हेतु है, कारण मुख्य ये विख्याता।।
इति निश्चित बुद्धी से मैं अति, आदरपूर्वक सुगत जिनेश!
प्रकट अर्थ नय से रोचक, संस्तुति रचना करता परमेश!।।१।।
मति-श्रुत-मथावधिश्च सहजं प्रमाणं हि ते।
तत: स्वय-मबोधि मोक्षपदवीं स्वयंभूर्भवान्।।
न चैतदिह दिव्यचक्षु-रधुनेक्ष्यतेऽस्मादृशां।
यथा सुकृतकर्मणां सकलराज्य-लक्ष्म्यादय:।।२।।
मति श्रुत अवधी प्रमाण ज्ञान, सहज जन्म से ही तुममें।
अत: स्वयं ही मोक्षमार्ग को, जाना आप स्वयंभू हैं।।
इस युग में हम जैसे मानव, नहिं त्रिज्ञान सहित दिखते।
यथा चक्रवर्त्यादिक लक्ष्मी, पुण्यवंत ही पा सकते।।२।।
व्रतेषु परिरज्यसे निरुपमे च सौख्ये स्पृहा।
बिभेष्यपि च संसृते-रसुभृतां वधं द्वेक्ष्यपि।।
कदाचि-ददयोदयो विगतचित्तको-ऽप्यंजसा।
तथापि गुरुरिष्यते त्रिभुव+नैक-बंधुर्जिन:।।३।।
व्रतगुण में अनुराग आपके, निरूपम सुख में इच्छा थी।
संसृति से भय, द्वेष जीव, वध, से भी तथा कदाचित भी।।
अदयोदय थानाथ! इस समय, मन से रहित आप फिर भी।
त्रिभुवनैक बान्धव जिन! तुमको, सब जनता गुरु मान रही।।३।।
तप: पर-मुपाश्रितस्य भवतोऽ-भवत्केवलं।
समस्तविषयं निरक्ष-मपुनश्च्युति स्वात्मजं।।
निरावरण – मक्रमं व्यतिकरा – दपेतात्मकं।
तदेव पुरुषार्थसार – मभिसम्मतं योगिनां।।४।।
परम ध्यान तप का आश्रय ले, केवलज्ञान को पाया है।
समस्त विषयग्राही स्वात्मोत्पन्न अतीन्द्रिय अच्युत है।।
निरावरण अक्रम व्यतिकर, आदिक दोषों से शून्य महान।
पुरुषार्थों में सारभूत है, वही सदा ऋषि गण को मान्य।।४।।
परस्परविरोधवद्-विविधभंगशाखाकुलम्।
पृथग्जनसुदुर्गमं तव निरर्थकं शासनम्।।
तथापि जिन! सम्मतं सुविदुषां न चात्यद्भुतम्।
भवंति हि महात्मनां दुरुदितान्यपि ख्यातये।।५।।
अस्ति नास्ति इति मिथ: विरोधी, विविध भेद शाखा संयुत।
अज्ञलोक को दुर्गम हे जिन! तव शासन है अर्थ रहित।।
फिर भी सद्विद्वज्जन समस्त, है आश्चर्य को क्या इसमें।
चूँकि महापुरुषों के दुर्वच, भी ख्याती पाते जग में।।५।।
सुरेन्द्र-परिकल्पितं बृह-दनर्ध्यसिंहासनम्।
तथातप-निवारणत्रय-मथोल्लस-च्चामरम्।।
वशं च भुवनत्रयं निरुपमा च नि:संगता।
न संगतमिदं द्वयं त्वयि तथापि संगच्छते।।६।।
सुरेन्द्र निर्मित अमूल्य सिंहासन, अनुपम तव हे जिनवर।
छत्रत्रय शोभे शिर ऊपर, ढुलते चौंसठ सितचामर।।
तथैव त्रिभुवन वश में है तव, औ नि:संगपना निरुपम्।
विरुद्ध दोनों बातें फिर भी, तुममें संगत हैं भगवन्।।६।।
त्वमिंद्रियविनिग्रह-प्रवणनिष्ठुरं भाषसे।
तपस्यपि च यातयस्य-नघदुष्करे संश्रितान्।।
अनन्य-परिदृष्टया षडसु-कायसंरक्षया।
स्वनुग्रहपरोऽ-प्यहो त्रिभुवनात्मनां नापर:।।७।।
इन्द्रियनिग्रह हेतु कुशल, निष्ठुर वाणी भी तुम कहते।
आश्रित जन को पाप रहित, दुष्कर तप में प्रेरित करते।।
हरि हर अगम्य षट्कायिक, प्राणी रक्षा कर अहो जिनेश!
स्वोपकार तत्पर फिर भी, त्रिभुवन के साथ! आप नहिं शेष।।७।।
ददास्यनुपमं सुखं स्तुतिपरे-ष्वतुष्यन्नपि।
क्षिपस्य-कुपितोऽपि च ध्रुव-मसूयकान् दुर्गतौ।।
न चेश! परमेष्ठिता तव विरुध्यते यद्भवान्।
न कुप्यति न तुष्यति प्रकृति-माश्रितो मध्यमाम्।।८।।
स्तुति कर्ता पर तुष्ट न हो, फिर भी अनुपम सुख देते हो।
निंदक पर भी क्रुद्ध न हो, निश्चित दुगति पहुँचाते हो।।
तथापि ईश! तव परमेष्ठिपना, विरुद्ध नहीं क्यों की।
मध्यम प्रकृती का आश्रय ले, क्रोध तोष नहिं करें कृती।।८।।
परिक्षपित-कर्मणस्तव न जातु रागाइयो।
न चेन्द्रिय-विवृत्तयो न च मनस्कृता व्यापृति:।।
तथापि सकलं जगद् युगपदंजसा वेत्सि च।
प्रपश्यसि च केवला-भ्युदितदिव्य-सच्चक्षुषा।।९।।
नष्ट घातिकर्मा जिन! तब राग द्वेषादिक कभी नहीं।
इन्द्रिय कृत व्यापार तथा, मन की चेष्टा भी रही नहीं।।
तथापि युगपत् सकल जगत, प्रत्यक्ष जानते हो भगवन्।
केवल बोध सुदिव्य चक्षु से, प्रकट देखते हो प्रतिक्षण।।९।।
क्षयाच्च रतिराग-मोहभय-कारिणां कर्मणाम्।
कषायरिपु-निर्जय: सकल-तत्त्वविद्योदय:।।
अनन्य-सदृशं सुखं त्रिभुवना-धिपत्यं च ते।
सुनिश्चितमिदं विभो! सुमुनि-संप्रदायादिभि:।।१०।।
राग मोह रति भयकारी, कर्मों के क्षय से जिनपुंगव।
कषायरिपुजित! सकल तत्त्वविद् अनन्यसदृश सुख है तव।।
तीनलोक मस्तक पर राजित, त्रिभुवन का साम्राज्य प्रभो।
श्रेष्ठ मुनीगण परंपरा से, निश्चित है तव विभव विभो!।।१०।।
न हींद्रियधिया विरोधि न च लिंगबुद्ध्या वचो।
न चाप्यनुमतेन ते तुनय-सप्तधा योजितम्।।
व्यपेत-परिशंकनं वितथकारणा-दर्शना-
दतोपि भगवंस्त्वमेव परमेष्ठिताया: पदम्।।११।।
इन्द्रियज्ञान अनुमान तथा, आगम प्रमाण से निर्बाधित।
सुनय सप्तभंगी से योजित, वचन आपके व्यपशंकित।।
असत्यकारण रागादिक जो, नहिं दिखते हैं जिन तुममे।
अत: प्रभो! परमेष्ठिपने के, पद को प्राप्त आप ही हैं।।११।।
न लुब्ध इति गम्यसे सकलसंग-संन्यासतो।
न चापि तव मूढता विगतदोषवाग्यद्भवान्।।
अनेकविध-रक्षणा-दसुभृतां न च द्वेषिता।
निरायुधतयापि च व्यपगतं तथा ते भयम्।।१२।।
सकलपरिग्रह त्यागी हो अतएव न लोभी हो सकते।
वचनदोष से रहित आप हैं, अत: मूढ़ नहिं हो सकते।।
गुप्त्यादिकविधि से जीवों की, रक्षा करते अत: न द्वेष।
आयुधरहित प्राकृतिक रूप् तव, अत: नहीं भय का लवलेश।।१२।।
यदि त्वमपि भाषसे वितथमेवाप्तोऽपि सन्।
परेषु जिन! का कथा प्रकृतिलुब्ध-मुग्धादिषु।।
न चाप्यकृत-कात्मिका वचनसंहति-र्दृश्यते।
पुनर्जनन-मप्यहो! नहि विरुध्यते युक्तिभि:।।१३।।
यदि प्रभु आप आप्त होकर भी, असत्यभाषी हो जावें।
पुन: नाथ! क्या कथा लुब्ध, मोही आदिक परकी पावें।।
मीमांसकवत् अपौरुषेया, वचन पद्धती नहिं दिखती।
पुनर्जन्म वचनों का युक्त्या, नहिं विरुद्ध जिन! अहो कहीं।।१३।।
सजन्म-मरणर्षि-गोत्र-चरणादिनाम-श्रुते-
रनेकपद – संहति – प्रतिनियामसंदर्शनात्।।
फलार्थि-पुरुषप्रवृत्ति-विनिवृत्ति-हेत्वात्मनां।
श्रुतेश्च मनुसूत्रवत्पुरुषकर्तृवैâव श्रुति:।।१४।।
श्रुतकर्ता ऋषि का जन्मादिक, गोत्र आचरण सुनते हैं।
सुप् तिडत पद रचना के क्रम, नियमित देखे जाते हैं।।
स्वर्गादिक फलार्थि जन की, प्रवृत्ति निवृत्ति के कारण भी।
मनूसूत्रवत् वेद शास्त्र में, अत: शास्त्र पूरुष कृत ही।।१४।।
स्मृतिश्च परजन्मन: स्फुट-मिहेक्ष्यते कस्यचित्।
तथाप्तवचनांतरान्-प्रसृतलोकवादादपि।।
न चाप्यसत उद्भवो न च सतो निमूलात्क्षय:।
कथं हि परलोकिना-मसुभृता मसत्तोह्यते।।१५।।
पूर्व जन्म संस्मरण किसी के, सचमुच देखा जाता है।
तथा आप्तवच से प्रसिद्ध, लोक रूढी वच से भी है।।
असत वस्तु का उद्भव सत का, मूल नाश नहिं हो सकता।
फिर क्या जीवों का परलोक, गमन भी असत ठहर सकता।।१५।।
न चाप्यसदुदीयते न च सदेव वा व्यज्यते।
सुरांगमदवत्तथा शिखिकलापवैचित्र्यवत्।।
क्वचिन्मृतकरंधनार्थपिठरादिके नेक्ष्यते।
कथं क्षितिजलादिसंगगुण इष्यते चेतना।।१६।।
महुआ प्रभृती वस्तु योग मदशक्तीवत, नहिं असत उदय!
अथवा चित्रित मोर पंखवत्, सत का व्यय भी होता नहिं।।
शव में पाकपात्र में भूत, चतुष्टय चेतन जन्म नहीं।
चार्वाक मत भूजलादि मिल, चेतन हो यह ठीक नहीं।।१६।।
प्रशांतकरणं वपुर्विगतभूषणं चापि ते।
समस्तजनचित्तनेत्र-परमोत्सवत्वं गतं।।
विनायुधपरिग्रहाज्जिन! जितास्त्वया दुर्जया:।
कषायरिपवोऽपरैर्न तु गृहीत-शस्त्रैरपि।।१७।।
प्रशांत इन्द्रिय देह आपका, भूषण वसन रहित फिर भी।
सकल जनों के चित्त नेत्र को, परमोत्सव के लिए सही।।
आयुधबिन भी हे जिन! जीते कषाय शत्रूगण तुमने।
शस्त्र सहित हरि हर भी जिनको, नहीं जीतने में क्षम हैं।।१७।।
धियां तरतमार्थवद् गतिसमन्वयान्वीक्षणाद्-।
भवेत्खपरिमाणवत्-क्वचिदिह प्रतिष्ठा परा।।
प्रहाणमपि दृश्यते क्षयवतो निमूलात्क्वचित्।
तथायमपि युज्यते ज्वलनवत्कषायक्षय:।।१८।।
अधिक अधिक गति से भी नहिं, आकाश माप हो सकता ज्यों।
तर तमता को देख यहाँ बुद्धी की कहीं अमितता त्यों।।
जल से अग्नि समूल नाशवत्, किसी जीव में कर्मों का।
सर्वनाश भी हो सकता है, अत: आप हैं कर्म-भिदा।।१८।।
अशेषविदिहेक्ष्यते सदसदात्म-सामान्यवि-
ज्जिन! प्रकृतिमानुषोऽपि किमुताखिलज्ञानवान्।।
कदाचिदिह कस्यचित्क्वचि-दपेतरागादिता।
स्फुुटं समुपलभ्यते किमुत ते व्यपेतैनस:।।१९।।
अस्ति नास्ति प्रभृतो वस्तूवित्, साधारण जन भी जग में।
अशेषवित् कहलाते फिर क्या, प्रभु सर्वज्ञ आप नहिं हैं ?।।
कहीं कदाचित् किसी जीव में, भाव विराग झलकता है।
फिर क्या सच्ची वीतरागता, कर्म रहित प्रभु में नहिं है।।१९।।
अशेषपुरुषादितत्तव – गतदेशनाकौशलं।
त्वदन्यपुरुषांतरानुचित-माप्ततालाञ्छनम्।।
कणाद-कपिलाक्षपादमुनि-शाक्यपुत्रोक्तय:।
स्खलंति हि सुचक्षुरादि-परिनिश्चितार्थेष्वपि।।२०।।
निज निज को सब आप्त मानकर, तत्त्व देशना कौशल को।
पाना चाहें नाथ! आपसम, नहिं पाते वे क्षमता को।।
कपिल कणाद अक्षपादादिक, मुनी शाक्यपुत्रादि वचन।
चक्षुज्ञान से निश्चितवस्तू, में भी होते सदा स्खलन।।२०।।
परैरपरिणामिक: पुरुष इष्यते सर्वथा।
प्रमाणविषयादितत्त्वपरिलोपनं स्यात्तत:।।
कषायविरहान्न चास्य विनिबंधनं कर्मभि:।
कुतश्च परिनिर्वृति: क्षणिकरूपतायां तथा।।२१।।
वैशेषिक मत पुरुष तत्त्व को सदा अपरिणामी माने।
नित्य वस्तु नहिं प्रमाण विषयक तत्त्वलोप हो अनजाने।।
सदा नित्य में कषाय भी नहिं, कर्मबंध नहिं, मोक्ष नहीं।
द्रव्य सर्वथा क्षणिक कहो तो दोष सभी आते ये ही।।२१।।
मनो विपरिणामकं यदिह संसृतिं चाश्नुते।
तदेव च विमुच्यते पुरुषकल्पना स्याद् वृथा।।
न चास्य मनसो विकार उपपद्यते सर्वथा।
ध्रुवं तदिति हीष्यते द्वितयवादिता कोपिनी।।२२।।
सांख्य कहे मन में क्रुधादि परिणाम तथा मन को संसार।
मन को ही हो मोक्ष अहो फिर पुरुष कल्पना ही बेकार।।
मन भी नित्य सर्वथा उसमें विकार नहिं है तव मत में।
नित्य अनित्य अगर मानों तो आपस में प्रतिरोध बने।।२२।।
पृथग्जनमनोनुकूल-मपरै: कृतं शासनम्।
सुखेन सुखमाप्यते न तपसेत्यवश्येन्द्रियै:।।
प्रतिक्षणविभंगुरं सकलसंस्कृतं चेष्यते।
ननु स्वमतलोकलिंगपरिनिश्चयैर्व्याहतम्।।२३।।
इन्द्रियलपंट अन्यजनों का शासन अज्ञों को मनहर।
सुाख् से ही सुख मिले न तप से इति बौद्धों के वाक्यप्रसर।।
प्रतिक्षण नश्वर सकलवस्तु यदि स्वमत घात होता निश्चित।
लोकविरोध तथा प्रमाण अनुमानादिक से भी बाधित।।२३।।
न संततिरनश्वरी न हि च नश्वरी नो द्विधा।
वनादिवदभाव एव यत इष्यते तत्त्वत:।।
वृथैव कृषिदानशीलमुनिवंदनादिक्रिया:।
कथंचिदविनश्वरी यदि भवेत्प्रतिज्ञाक्षति:।।२४।।
वनादिवत् संतति बौद्धों की नहिं अविनश्वर नहिं नश्वर।
नहिं उभय्ाात्मक वास्तव में है अभावरूपा कहें अगर।।
ख्ोती दान शील मुनि वंदन प्रभृति क्रिया व्यर्थ जग में।
कथंचित् अविनश्वर यदि माने स्वमत घातकर जैन बने।।२४।।
अनन्यपुरुषोत्तमो मनुजतामतीतोऽपि सन्।
मनुष्य इति शस्यते त्वमधुना नरैर्बालिशै:।।
क्व ते मनुजगर्भिता क्व च विरागसर्वज्ञता।
न जन्ममरणात्मना हि तव विद्यते तत्त्वत:।।२५।।
अनन्यपुरुषोत्तम! मानवता से अतीत हो भी जिनदेव।
अज्ञजनों से कहलाते हो ‘‘मनुष्य’’ इति संप्रति तुम एव।।
कहां तुम्हारी मनुज गर्भिता कहां विराग सर्वज्ञपना।
चूँकि देव! वास्तव में तुममें नहीं जन्म नहिं मरणपना।।२५।।
स्वमातुरिह यद्यपि प्रभव इष्यते गर्भतो।
मलैरनुपसंप्लुतो वरसरोजपर्त्रेऽबुवत्।।
हिताहितविवेक-शून्यहृदयो न गर्भेऽप्यभू:।
कथं तव मनुष्यमात्रसदृशत्वमाशंक्यते।।२६।।
यद्यपि मातुगर्भ से भगवन्! जन्म आपका माना है।
फिर भी मल से अलिप्तगर्भ में जल से कमलवत् जाना है।।
हित अरु अहित विवेक शून्य प्रभु नहीं गर्भ में भी थे आप।
अत: कथं तव मनुजमात्र से सदृशता की शंका नाथ।।२६।।
न मृत्युरपि विद्यते प्रकृति-मानुषस्येव ते।
मृतस्य परिनिवृतिर्न मरणं पुनर्जन्मवत्।।
जरा च नहि यद् वपुर्विमलकेवलोत्पत्तित:।
प्रभृत्यरुजमेकरूपमवतिष्ठते प्राङ्मृते:।।२७।।
साधारण जन इव हे भगवन्! मृत्यु आपकी नहीं कही।
मरकर परममोक्षपुर पहुँचे, पुनर्जन्मकृत मरण नहीं।।
केवलज्ञान उदय से तन में, वृद्धावस्था रही नहीं।
सिद्धिवधू वरने तक तनु तव, रोगादिक से रहित सही।।२७।।
परै: कृपणदेववैâ: स्वयमसत्सुखै: प्रार्थ्यते।
सुखं युवतिसेवनादिपरसन्निधिप्रत्ययम्।।
त्वया तु परमात्मना न परतो यतस्ते सुखं।
व्यपेतपरिणामकं निरुपमं ध्रुव स्वात्मजम्।।२८।।
सुखाभासरत कृपणदेव, इन्द्रियसुख को ही चाहे हैं।
युवति भोग मिष्टान्न प्रभृति पर, वस्तू उद्भव ही जो हैं।।
किन्तु आप हैं परमात्मा, नहिं पर से सुख की बात रही।
तव सुख निरुपम स्वात्मोत्पन्नं, ध्रुव शाश्वत आल्हादमयी।।२८।।
पिशाचपरिवारित: पितृवने नरीनृत्यते।
क्षरद्रुधिरभीषणद्विरदकृत्तिहेलापट:।।
हरो हसति चायतं कहकहाट्टहासोल्वणं।
कथं परमदेवतेति परिपूज्यते पंडितै:।।२९।।
रुधिर बिन्दु से भीषण हाथी, चर्म लपेटे क्रीडामय।
श्मशान में पिशाचवेष्टित मनभर नाच करें महादेव।।
कहकहाट्टमय अट्टहास से, खूब हसें नाचें कूदें।
‘‘परमदेवता’’ महादेव इति वैâसे पंडित जन पूजें।।२९।।
मुखेन किल दक्षिणेन पृथुनाखिल-प्राणिनाम्।
समत्ति शवपूतिमज्जरुधिरांत्रमांसानि च।।
गणै: स्वसदृशैर्भूशं रतिमुपैति रात्रिंदिवं।
पिबत्यपि च य: सुरां स कथमाप्तताभाजनम्।।३०।।
दक्षिण मुख से प्राणी के शव, रुधिर मांस मज्जाओ को।
अंत्री को भी जो नित खाता, वैâसे आप्त कहें उसको ?।।
अपने सदृश ही गण में जो, रात्रि दिवस प्रीती करता।
सुरापान अरु विषय भोग में, रमें देव क्या हो सकता ?।।३०।।
अनादिनिधनात्मकं सकलतत्त्वसंबोधनम्।
समस्तजगदाधिपत्यमथ तस्य संतृप्तता।।
तािा विगतदोषता च किल विद्यते यन्मृषा।
सुयुक्तिविरहान्न चास्ति परिशुद्धतत्त्वागम:।।३१।।
ईश हमारा सकल तत्त्ववित्, अनादि अनिधन ज्ञानी है।
भुवनत्रय के आधिपत्य से, उसके तृप्ती मानी है।।
सभी दोष से विरहित स्वामी, कहते जो यह सब मिथ्या।
नहिं सुयुक्ति नहिं परमागम से, ऐसा ईश कहा सकता।।३१।।
कमंडलुमृगाजिनाक्षवलयादिभिर्ब्रह्मण:।
शुचित्वविरहादिदोषकलुषत्वमभ्यूह्यते।।
भयं विघृणता च विष्णुहरयो: सशस्त्रत्वत:।
स्वतो न रमणीयता च परिमूढता भूषणात्।।३२।।
ब्रह्मा के भी कमण्डलु मृग छाला रुद्रमणी माला।
शुचिता नहीं अत: शुचिकारण, विद्यमान यह दोष बड़ा।।
हरि हर में आयुध होने से, भय निर्दयता सूचक है।
भूषण अलंकार से हरि हर, स्वत: असुन्दर मूरख हैं।।३२।।
स्वयं सृजति चेत्प्रज्ञा: किमित दैत्यविध्वंसनं।
सुदुष्टजननिग्रहार्थमिति चेदसृष्टिर्वरम्।।
कृतात्मकरणीयकस्य जगतां कृतिर्निष्फला।
स्वभाव इति चेन्मृषा स हि सुदुष्ट एवाऽऽप्यते।।३३।।
यदि सृष्टी को सजा स्वयं फिर, क्यों कर दैत्य विनाश किया।
दुष्ट विनिग्रह हेतु कहो दुष्टों, का क्यों कर सृजन किया।।
तथा सदा कृतकृत्य देव के, जग की रचना निष्फल है।
यदी कहो यह स्वभाव उसका, यही दोष तो बढ़कर है।।३३।।
प्रसन्नकुपितात्मना नियमतो भवेद्दु:खिता।
तथैव परिमोहिता भयमुपद्रुतिश्चामयै:।।
तूषापि च बुभुक्षया च न स संसृतिश्छिद्यते।
जिनेन्द्र! भवतोऽपरेषु कथमाप्तता युज्यते।।३४।।
जो प्रसन्न या क्रोधी हैं, निश्चित दु:ख उनको है तद्वत्।
गहन मोह, भय, आमय, उपसर्गादिक भी होते शाश्वत्।।
क्षुधा तृषादिक बाधा पीड़ित, नहिं उनके संसृति का नाश।
हे जिनेन्द्र! आपसे पर में, वैâसे आप्तपने की आश।।३४।।
कथं स्वयमुपद्रुता: परसुखोदये कारणं।
स्वयं रिपुभयार्दिताश्च शरणं कथं बिभ्यताम्।।
गतानुगतिवैâरहो त्वदपरत्र भत्तैâर्जनै।
रनायतनसेवनं निर हेतुरंगीकृतम्।।३५।।
स्वयं उपद्रव से पीड़ित जो, पर को वैâसे सुख देते।
रिपुभय ग्रसित स्वयं वो वैâसे, रक्षक हों भयभीतों के।।
गतानुगतिका भाक्तिक जन हा! देखा-देखी कर करके।
है आश्चर्य! नरक हेतू, सेवन अनायतन का करते।।३५।।
सदा हननघाताद्यनुमतिप्रवृत्तात्मनां।
प्रदुष्टचरितोदितेषु परिहृष्यतां देहिनाम्।।
अवश्यमनुषज्यते दुरितबंधनं तत्त्वत:।
शुभेपि परिनिश्चितस्त्रिविधबंधहेतुर्भवेत्।।३६।।
सदा जीव बध में कृतकारित अनुमति तथा शस्त्र का दान।
जीवों के दुश्चरितादिक के होने पर संतोष महान।।
जिनके पास दोष ये निश्चित पाप बंध उन्ाको होता।
शुभ कार्यों में कृतकारित अनुमोदनादि से शुभ होता।।३६।।
विमोक्षसुखचैत्यदानपरिपूजनाद्यात्मिका:।
क्रिया बहुविधासुभृन्मरणपीडना हेतव:।।
त्वया ज्वलितकेवलेन न हि देशिता: िंक तु ता:।
त्वयि प्रसृतभक्तिभि: स्वयमनुष्ठिता: श्राववैâ:।।३७।।
मोक्ष सौख्य के हेतू जिन-प्रतिमा पूजन दानादि क्रिया।
बहु विध प्राणि मरण पीडन कृत, का प्रभु नहिं उपदेश किया।।
किन्तु आपकी अति भक्ती से श्रावणगण शुभ कार्यों का।
अनुष्ठान करते रहते हैं, भव भयहारी धर्मों का।।३७।।
त्वया त्वदुपदेशकारि-पुरुषेण वा केनचित्।
कथंचिदुपदिश्यते स्म जिन! चैत्यदानक्रिया।।
अनाशकविधिश्च केशपरिलुंचनं चाथवा।
श्रुतादनिधनात्मका-दधिगतं प्रमाणांतरात्।।३८।।
हे जिन! तुमने या तव मत-उपदेशक गणधर देवों ने।
चैत्य दान पूजन आदिक विधि, ‘कथंचित्’ से उपदेशी हैं।।
केशलोच औ उपवासों का, भी वर्णन तथैव भगवन्।
अथवा अनादि अनिधन आगम, से इन सब विधि का वर्णन।।३८।।
न चासुपरिपीडनं नियमतोऽशुभायेष्यते।
त्वया न च शुभाय वा नहि च सर्वथा सत्यवाक्।।
न चापि दमदानयो: कुशलहेतुतैकांततो।
विचित्र-नयभंगजाल-गहनं त्वदीयं मतम्।।३९।।
प्राणी पीडा अशुभबंध कृत, नहीं सर्वथा तव मत में।
अथवा उसमें शुभ हो या नहिं, तथा न निश्चित सतवच में।।
पुण्य बंध एकांत दृष्टि से, दम अरु दान में नहिं जिनवर।
बहुविचित्र नय भंग जाल से, गहन आपका मत सुन्दर।।३९।।
त्वयापि सुखजीवनार्थ-मिह शासनं चेत्कृतं।
कथं सकलसंग्रह-त्यजनशासिता युज्यते।।
तथा निरशनार्द्ध-भुक्तिरसवर्जनाद्-युक्तिभि।
जितेन्द्रियतया त्वमेव जिन इत्यभिख्यां गत:।।४०।।
यदि सुखपूर्वक जीवन हेतू, शासन यहाँ किया तुमने।
फिर वैâसे सर्वस्व परिग्रह, त्याग धर्म तेरा जग में।।
तथैव अनशन अवमौदर्य, रस परित्याग आदि विधि से।
इन्द्रिय जीत आप ही ‘‘जिन’’ अन्वर्थ नाम पाया जग में।।४०।।
जिनेश्वर! न ते मतं पटकवस्त्र-पात्रग्रहो।
विमृश्य सुखकारणं स्वय-मशक्तवैâ: कल्पित:।।
अथायमपि सत्पथस्तव भवेद्वृथा नग्नता।
न हस्तसुलभे फले सति तरु: समारुह्यते।।४१।।
जिनेश! तव मत में रोमज, वस्त्रादि पात्र का नहीं ग्रहण।
सुख के कारण जान स्वयं, असमर्थ जनों ने किया सृजन।।
यदि यह भी शिवमार्ग बने, तव नग्न रूप दीक्षा हो व्यर्थ।
हस्त सुलभ फल वाला यदि तरु, कौन चढ़ेगा फल के अर्थ।।४१।।
परिग्रहवतां सतां भय-मवश्य-मापद्यते।
प्रकोपपरििंहसने न परुषानृतव्याहती।।
ममत्वमथ चोरतो स्वमनसश्च विभ्रांतता।
कुतो हि कलुषात्मनां परमशुक्लसद्ध्यानता।।४२।।
परिग्रही साधू को चोरादिक, से भय अवश्य होता।
हिंसा, क्रोध, कठोर अनृत, भाषण भी तथा रहे ममता।।
मन में भी आकुलता भ्रांती, होती रहती अत: प्रभो!।
कलुषित हृदयी जनको वैâसे, परमशुक्ल सद्ध्यान अहो।।४२।।
स्वभाजनगतेषु पेय-परिभोज्यवस्तुष्वमी।
यदा प्रतिनिरीक्षितार-तनुभृत: सुसूक्ष्मात्मिका:।।
तदा क्वचि-दपोज्झने मरणमेव तेषां भवे।
दथाप्यभि-निरोधनं बहुतरात्म-संमूर्च्छनं।।४३।।
निज भाजन में रखी पेय, भोज्यादिक लाई वस्तू में।
चिऊंटी आदिक सूक्ष्म जंतु, जीवित वा मृतक कभी दीखें।।
तब उनको यदि बाहर करते, निश्चित ही मर जावेंगे।
नहीं निकालें तदा बहुत, संमूर्छन जीव जनम लेंगे।।४३।।
दिगम्बरतया स्थिता: स्वभुज-भोजिनो ये सदा।
प्रमाद-रहिताशया: प्रचुरजीव-हत्यामपि।।
न बंधफलभागिनस्त इति गम्यते येन ते।
प्रवृत्त-मनुबिभ्रति स्वबलयोग्य-मद्याप्यमी।।४४।।
वस्त्र रहित हैं पाणिपात्र में, भोजी सदा प्रमाद रहित।
क्वचित् प्राणि वध भी हो उनसे, वो हैं ईर्यापथ में रत।।
प्रमाद विरहित होने से नहिं, कर्म बंध के भागी हैं।
चूँकि पूर्व मुनि सम संप्रति भी, श्रेष्ठ चरित के धारी हैं।।४४।।
यथागमविहारिणा-मशनपानभक्ष्यादिषु।
प्रयत्नपरचेतसा-मविकलेन्द्रिया-लोकिनाम्।।
कथंचि-दसुपीडनाद्-यदि भवेदपुण्योदया।
स्तपोपि वध एव ते स्वपरजीवसंतापनात्।।४५।।
आगम विहित विहार तथा, आहार विधी में नित जाग्रत।
प्रयत्नपूर्वक सूक्ष्म जीव, रक्षा में तत्पर हैं सतत।।
कथंचित् प्राणी पीड़ा से यदि, पापबंध मानें उनके।
पुन: आपका तप भी वध है, स्वपर जीव पीड़ा उससे।।४५।।
मरुज्ज्वलन-भूपय:सु नियमात्-क्वचिद् युज्यते।
परस्पर-विरोधितेषु विगतासुता सर्वदा।।
प्रमाद-जनितागतसां क्वचि-दपोहनंस्वागमात्।
कथं स्थितिभुजां सतां गगनवाससां दोषिता।।४६।।
पृथ्वी वायु जलाग्नि परस्पर, विरोध रखते हैं इनमें।
सदैव हिंसा किसी की सबसे, होती ही रहती जग में।।
मुनिजन के यदि प्रमादपूर्वक, दोष लगे प्रायश्चित है।
गगनवस्त्रधर सुस्थित भोजी, सन्मुनि वैâसे दोषी हैं।।४६।।
परैरनघ! निर्वृति: स्वगुणतत्त्वविध्वंसनं।
व्यघोषि कपिलादिभिश्च पुरुषार्थविभ्रंशनं।।
त्वया सुमृदितैनसा ज्वलितकेवलौघश्रिया।
ध्रुवं निरुपमात्म्कं सुख-मनंत-मव्याहतम्।।४७।।
हे निष्पाप! अन्य को मुक्ती, स्वगुण तत्व विध्वंस स्वरूप।
सांख्यों के पुरुषार्थ भ्रंशमय, पुरुष प्रकृति के भेद स्वरूप।।
किन्तु विशद केवलज्योति: प्रभु मृदितपाप जिन! मत में तव।
अनंत अव्याहत ध्रुव निरुपम, सौख्य युक्त सब जनको शिव।।४७।।
निरन्वय-विनश्वरी जगति मुक्ति-रिष्टापरै-
र्न कश्चिदिह चेष्टते स्वव्यसनाय मूढेतर:।।
त्वयाऽनुगुणसंहते-रतिशयोप-लब्ध्यात्मिका।
स्थिति: शिवमयी विभो! प्रवचने तव ख्यापिता।।४८।।
तथा बुद्ध ने मुक्ति निरन्वय, विनश्वरी जो कही अहो!।
कौन बुद्धिमन् स्वनाश हेतु, प्रवृत्ति वैâसे करे अहो।।
सम्यक्त्वादि गुणों की अतिशय, उपलब्धी होती जिसमें।
विभो! आपके मत मैं ऐसी, शिवमयि स्थिति मानी है।।४८।।
इयत्यपि गुणस्तुति: परमनिर्वृते: साधनी।
भवत्यलमतो जनो व्यवसितश्च तत्कांक्षया।।
विरंस्यति च साधुना रुचिरलोभलाभे सतां।
मनोभि-लषिताप्ति-रेव ननु च प्रयासावधि:।।४९।।
इतनी भी तव गुण संस्तुति जिन! परम मोक्ष की साधक है।
शिवेच्छु उद्योगी जन को बस, येही संतुष्टीप्रद है।।
पुन: लोभ बिन मुक्ति प्राप्ति हो, मुक्ती रुचि से वीरमते।
चूँकि सत्पुरुष मन अभिलाषित, प्राप्ती तक प्रयत्न करते।।४९।।
इति मम मतिवृत्या संहतिं त्वद्गुणाना-
मनिश-ममितशक्तिं संस्तुवानस्य भक्त्या।।
सुख-मनघ-मनंतं स्वात्मसंस्थं महात्मन्।
जिन! भवतु महत्या केवलं श्रीविभूत्या।।५०।।
इति मम अल्पबुद्धि से, अनंत शक्तीयुत तव गुण गण को।
भक्ति भाव से नितप्रति संस्तव, करते मुझ को सत्फल हो।।
हे परमात्मन्! अघ विरहित अनंत स्वात्मोद्भव सुख होवे।
केवल ‘ज्ञानमती’ महती, विभूति सह शाश्वतमय होवे।।५०।।