भवसंकट हर्ता पार्श्वनाथ! विघ्नों के संहारक तुम हो।
हे महामना! हे क्षमाशील! मुझमें भी पूर्ण क्षमा भर दो।।
यद्यपि मैंने शिवपथ पाया, पर यह विघ्नों से भरा हुआ।
इन विघ्नों को अब दूर करो, सब सिद्धि लहूँ निर्विघ्नतया।।१।।
वाराणसि नगरी धन्य हुई, धन धन्य हुए सब नर नारी।
हे अश्वसेननंदन ! तुम से, वामा माँ भी मंगलकारी।।
वैशाख वदी वह दूज भली, माता उर आप पधारे थे।
श्री आदि देवियों ने आकर, माता से प्रश्न विचारे थे।।२।।
शुभ पौष वदी ग्यारस तिथि थी, जब आए प्रभु साक्षात् यहां।
शैशव में सुर संग खेल रहे, अहि युग को दीना मंत्र महा।।
तव नागयुगल धरणेन्द्र तथा, पद्मावती होकर भक्त बने।
शुभ पौष वदी ग्यारस के दिन, प्रभु दीक्षा ले मुनि श्रेष्ठ बने।।३।।
तत्क्षण मनपर्ययज्ञानी हो, सब ऋद्धी से परिपूर्ण हुए।
इक समय सघन वन के भीतर, प्रभु निश्चल ध्यानारूढ़ हुए।।
कमठासुर ने उपसर्ग किया, अग्नी ज्वाला को उगल-उगल।
पत्थर फेंके मूसलधारा, वर्षायी आंधी उछल-उछल।।४।।
निष्कारण ही कमठासुर ने, दश भव तक बैर निकाला था।
प्रभु को दुख दे देकर उसने, खुद को दुर्गति में डाला था।।
प्रभु महा-सहिष्णु क्षमा-सिन्धु, भव-भव से सहते आये हैं।
तन से ममता को छोड़ दिया, नहिं विंâचित् भी घबराए हैं।।५।।
प्रभु क्षपक श्रेणि में चढ़ करके, मोहनी कर्म का नाश किया।
उस ही क्षण धरणीपति पद्मावती, आ करके बहुभक्ति किया।।
प्रभु को मस्तक पर धारण कर, ऊपर से फण का छत्र किया।
प्रभुवर ने तब उस ही क्षण में, वैवल्य श्री को वरण किया।।६।।
पृथ्वी से बीस हजार हाथ, ऊपर पहुँचे अर्हन्त बने।
इन्द्रों के आसन कांप उठे, प्रभु समवसरण गगनांगण में।।
वदि चैत्र चतुर्थी१ तिथि उत्तम, जब प्रभु में ज्ञान प्रकाश हुआ।
उस स्थल का उस ही क्षण से, ‘अहिच्छत्र’ तीर्थ यह नाम हुआ।।७।।
नव हाथ देह सौ वर्ष आयु, मरकतमणि सम आभाधारी।
अहि चिह्न सहित वे पाश्र्वप्रभो! मुझको हों नित मंगलकारी।।
श्रावण सुदि सप्तमि तिथि के दिन, सिद्धीकांता से प्रीति लगी।
मैं नमूं ‘ज्ञानमती’ तुम्हें सदा, मेरी हो सर्वंसहा मती।।८।।