पिंड अर्थात् आहार की शुद्धि को पिंडशुद्धि कहते हैं। उद्गमदोष, उत्पादन दोष, एषणा दोष, संयोजनादोष, प्रमाणदोष, इंगालदोष, धूमदोष और कारणदोष ऐसे पिंडशुद्धि के आठ दोष हैं। इन दोषों से रहित ही पिंडशुद्धि होती है। इन दोषों के आठ भेद के उत्तर भेद छ्यालीस होते हैं। एषणा समिति में भी कहा है कि साधु छ्यालीस दोष और बत्तीस अन्तरायों को टालकर दिन में एक बार खड़े होकर अंजलिपुट में श्रावकों द्वारा विधिवत् दिये गये आहार को ग्रहण करता है। अध:कर्म दोष-यह दोष गृहस्थाश्रित है, इसमें पंचसूना होती है अत: षट्जीव निकाय की विराधना होने से यह महादोष कहलाता है अर्थात् स्वयं आरम्भ आदि के द्वारा भोजन को बना लेना अध:कर्म दोष है। यह दोष इन छ्यालीस दोषों से अलग ही होने से मुनियों द्वारा सर्वथा त्याज्य है। छ्यालीस भेद-उद्गम के १६, उत्पादन के १६, एषणादोष के १०, संयोजना, अंगार, प्रमाण, धूम। उद्गमदोष के १६ भेदों के नाम-औद्देशिक, अध्यधि, पूति, मिश्र, स्थापित, बलि, प्रावर्तित, प्राविष्करण, क्रीत, प्रामृष्य, परिवर्त, अभिघट, उद्भिन्न, मालारोहण, आच्छेद और अनीशार्थ। औद्देशिकदोष-पाखण्डी, श्रमण आदि के उद्देश्य से बनाया हुआ आहार लेना। अध्यधि’-पकते हुए अन्नादि में संयत को देखकर तंदुल आदि अधिक डाल देना। पूति-प्रासुक में अप्रासुक मिश्र अथवा प्रासुक से ही मिश्र, जैसे-नया चूल्हा, बर्तन आदि में भोजन बनाकर संकल्प किया कि पहले साधु को देकर ही मैं प्रयोग में लूँगा, यह पूति दोष है। मिश्र-अन्न प्रासुक है फिर भी पाखंडियों के साथ या गृहस्थों के साथ मुनियों को देना। स्थापित-पात्र से भोजन निकालकर स्वगृह अथवा अन्यगृह में स्थापित किया हुआ आहार। बलिदोष-यक्ष, नाग, कुलदेवता आदि के चढ़ाने के लिए बनाये हुए भोजन को आहार में देना। प्राभृत-आहार काल से अतिरिक्त काल में हानि या वृद्धि करके दिया हुआ आहार। प्रादुष्कार-आहार के उपयुक्त पात्र को भस्मादि से मांजना, भोजन या पात्र को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना आदि। क्रीततर दोष-मुनि के घर में आने पर श्रावक अपने सचित्त या अचित्त वस्तु को ले जाकर अन्य श्रावक को देकर आहार लाकर साधु को देवे वह क्रीत दोष है। ऋण (प्रामृष्य)-मुनि के घर में आने पर श्रावक अन्य किसी से उधार में लाकर जो आहार देवे उसे ऋण दोष कहते हैं। परावर्त-अन्य श्रावकों को अपना चावल आदि देकर अच्छे चावल आदि लाकर मुनि को देना। अभिघट-सरल पंक्ति से तीन अथवा सात घरों से आये हुए भात, लड्डू आदि साधु के ग्रहण करने योग्य हैं किन्तु इस पंक्तिक्रम से विरुद्ध लाये हुए आहार का लेना अभिघट दोष है। उद्भिन्न-ढक्कन से बंद अथवा लाख आदि मुद्रित ऐसे पात्रों में रखे हुए जो औषधि, घी, लड्डू आदि पदार्थ हैं, उन्हें उसी समय खोलकर देना। मालारोहण-नसैनी (सीढ़ी) से चढ़कर दूसरे मंजिल आदि की वस्तु को लाकर उसी समय देना। अच्छेद्य-‘यदि यतियों को आहार नहीं दोगे तो तुम्हारा धन आदि लूट लेंगे’, ऐसा राजादि द्वारा डर दिखाये जाने पर आहार देना। अनीशार्थ-जिस अन्न लड्डू आदि का अप्रधान अर्थ कारण है, उनका आहार देना अथवा दानपति के द्वारा जिसका निषेध किया गया है, ऐसा आहार ग्रहण करना। ये दोष श्रावकों के निमित्त से साधु को लगते हैं इसलिए उद्गम कहे जाते हैं। उत्पादन दोष के १६ भेदों के नाम-धात्री दोष, दूत, निमित्त, आजीव, वनीपक, चिकित्सा, क्रोधी, मानी, मायावी, लोभी, पूर्वस्तुति, पश्चात् स्तुति, विद्या, मंत्र, चूर्णयोग और मूलकर्म। धात्री दोष-धाय के सदृश बालक का पोषण संरक्षण आदि करके आहार लेना। दूत-अन्य ग्राम आदि जाते समय किसी का संदेश कहकर आहार लेना। निमित्त-स्वर, व्यंजन आदि निमित्तों से शुभ-अशुभ फल बताकर आहार लेना। आजीव-जाति, कुल, शिल्प आदि को बताकर दाता को प्रसन्न कर आहार लेना। वनीपक-दाता के अनुकूल वचन बोलकर आहार लेना अर्थात् यदि दाता ने पूछा कि ब्राह्मण, भिक्षुक आदि को भोजन देना दान पुण्य है या नहीं? तब उसके अभिप्राय को देखकर ‘पुण्य’ ऐसा कह देना। चिकित्सा-औषधि आदि से दाता को खुश करके आहार लेना। क्रोधादि कषाय-क्रोध, मान, माया या लोभ इन कषायों को करके आहार उत्पादन करना, ये इन चार कषायों के निमित्त से चार दोष होते है। पूर्व संस्तुति-‘तू दानी है, कीर्तिमान है’ इत्यादि रूप से दाता की प्रशंसा करके आहार लेना। पश्चात् स्तुति-आहार लेने के बाद दाता की प्रशंसा करना। विद्या-विद्या आदि का प्रलोभन देकर आहार ग्रहण करना। मंत्र-मंत्र का प्रलोभन देकर आहार ग्रहण करना। चूर्णदोष”’-अंजन चूर्ण आदि देकर भोजन ग्रहण करना। मूलकर्म दोष”’-अवश को वश करने का उपाय बताकर आहार ग्रहण करना। ये उत्पादन आदि सोलह दोष साधु के द्वारा किये जाने से उत्पादन कहलाते हैं।एषणा दोष के दस भेदों के नाम और लक्षण शंकित-यह भोजन अध:कर्म से उत्पन्न हुआ है या नहीं? इत्यादि शंका करके आहार लेना। म्रक्षित-घी, तेल आदि लिप्त हाथ से या लिप्त कलछी से दिया हुआ आहार लेना। निक्षिप्त-सचित्त पृथ्वी, जल आदि पर रखा हुआ आहार लेना। पिहित”’-अप्रासुक अथवा प्रासुक ऐसे बड़े आच्छादन हटाकर आहार लेना। संव्यवहरण-आदर से या डर से आहार देते समय वस्त्र आदि को खींचकर आहार देवेद्ध सो ले लेना। दायक-अशुद्ध दाता से, सूतक-पातक दोषों से दूषित जन से, दूध आदि पिलाती हुई स्त्री से या नपुंसक से आहार लेना। उन्मिश्र-अप्रासुक द्रव्य से मिश्र आहार लेना। अपरिणत-अग्न्यादि से अपक्व आहार या लवंग आदि से परिणत नहीं हुए जलादि का आहार लेना। लिप्त-गेरु आदि से लिप्त पात्र से या हाथ से दिये हुए आहार को लेना या अप्रासुक जलादि से गीले हाथ और पात्र से आहार लेना। छोटित-हाथ से बहुत सा दूध आदि गिराते हुए या अरुचिकर वस्तु को हाथ से गिराते हुए आहार लेना। ये अशन के दस दोष हैं, जो हाथ में आये हुए भोजन से संबंध रखते हैं इसलिए अशन दोष कहलाते हैं। संयोजना दोष-आहार और दान के पदार्थ मिश्रित कर देना अथवा ठंडा आहार उष्ण पान आदि से मिश्रित करना। अतिमात्र (अप्रमाण) दोष-उदर के दो भाग पदार्थ से एवं एक भाग पेय पदार्थ से पूरित करना चाहिए तथा एक भाग खाली रखना चाहिए तभी आलस्य के बिना स्वाध्याय आदि क्रियाएँ निर्विघ्न होती हैं। इसका उल्लंघन करके अतिमात्र में भोजन करना ये दोष है। अंगार दोष-अति लम्पटता से भोजन करना अंगार दोष है। धूम दोष-अपने को इष्ट नहीं ऐसे पदार्थों की मन में निन्दा करता हुआ आहार ग्रहण करना धूमदोष है। इस प्रकार से १६ उद्गम के, १६ उत्पादन के, १० एषणा के और संयोजना, अप्रमाण, अङ्गार और धूम ये ४६ दोष पिंडशुद्धि के कहलाते हैं। साधुओं को इन दोषों से रहित आहार ग्रहण करना चाहिए।
अन्तराय के ३२ भेद
१. काक नामक अन्तराय-मुनि आहार के लिए जा रहे हों या खड़े हों, ऐसे समय यदि काक बक, श्येन आदि पक्षी शरीर पर मलमूत्र कर दें तो यह काक अन्तराय होता है।
२. अमेध्य-अपवित्र विष्ठादिक से पादादिक का लिप्त हो जाना।
३. छदि-आहार के लिए खड़े हुए मुनिराज को वमन हो जाना।
४. रोधन-‘आहार के लिए तुम नहीं जा सकते’ ऐसा कहना।
५. रुधिर-भोजन के समय अपने अथवा अन्य के चार अंगुल प्रमाण रक्त बहता हुआ देखना।
६. अश्रुपात-दु:ख से अपने अथवा पर के आँखों से अश्रु का बहना।
७. जान्वध: परामर्श-घुटने के नीचे यदि हाथ से स्पर्श हो जावे।
८. जानूपरिव्यतिक्रम-घुटने के ऊपर के स्थान को उल्लंघन करके जाना।
९. नाभ्यधोनिर्गमन-नाभि के ऊपर के स्थान को उल्लंघन करके जाना।
१०. प्रत्याख्यात सेवना-त्याग की हुई वस्तु का आहार में ग्रहण कर लेना।
११. जन्तुवध-अपने सामने मार्जारादि के द्वारा चूहा वगैरह का वध हो जाना।
१२. काकादि पिंडहरण-कौवे आदि पक्षी के द्वारा मुनि के हाथ का ग्रास हरण हो जाना।
१३. ग्रासपतन-भोजन करते समय साधु के हाथ से ग्रास गिर जाना।
१४. पाणिजन्तुवध-हस्तपात्र में यदि कोई चिंवटी आदि प्राणी आकर स्वयं मर जाये।
१५. मांसादिदर्शन-मांस, मद्य और मरे हुए पंचेन्द्रियों का शरीर दिख जाना।
१६. पादान्तर प्राणिनिर्गमन-आहार लेते समय दोनों पावों के बीच से पंचेन्द्रिय जीव चूहा आदि का निकलना।
१७. देवाद्युपसर्ग-देवों, तिर्यञ्चों आदि द्वारा उपसर्ग का होना।
१८. भाजनसम्पात-देने वाले के हाथ से पात्र का गिर जाना।
१९. उच्चार-आहार के समय अपने उदर से विष्टा आदि का निकलना।
२०. प्रस्रवण-आहार के समय मूत्र आदि का निकलना।
२१. अभोज्यगृहप्रवेश-आहार के लिए निकलने पर चाण्डालादि के गृह में प्रवेश हो जाना अथवा सूतकपातक आदि से सहित श्रावकों के यहाँ आहार के लिए जाना।
२२. पतन-भ्रम, मूच्र्छा, थकावट आदि से गिर जाना।
२३. उपवेशन-आहार के समय साधु यदि बैठ जावे।
२४. सदंश-कुत्ता, बिल्ली वगैरह के द्वारा काट जाना।
२५. भूमिस्पर्श-सिद्ध भक्ति हो जाने के बाद भूमि का हाथ से स्पर्श हो जाना।
२६. निष्ठीवन-कफ, थूक आदि का मुनि द्वारा जमीन पर किया जाना।
२७. करेणविंचित्ग्रहण-आहार के समय मुनि भूमि से कुछ उठा ले।
२८. उदरकृमिनिर्गमन-पेट से कृमि का निकलना।
२९. अदत्तग्रहण-नहीं दी हुई वस्तु का ग्रहण करना।
३०. प्रहार-अपने ऊपर अथवा अन्य के ऊपर प्रहार करना।
३१. ग्रामदाह-यदि गाँव में आग लग जावे उस समय अन्तराय है।
३२. पादेन विंचित् ग्रहण-भूमि पर से किसी वस्तु को पैर से उठा लेना। ये ३२ अन्तराय बतलाये गये, इनके अतिरिक्त चाण्डालादि स्पर्श, कलह, इष्टमरण, साधर्मिक संन्यास पतन, प्रधान मरण आदि इन अन्तरायों का भी पालन करना चाहिए। इन अन्तरायों के अतिरिक्त १४ मल दोष माने गये हैं, उनका स्पष्टीकरण- नख, रोम, जन्तु (विकलत्रय का मृत कलेवर), अस्थिर कण (जौ, गेहूं, आदि का अवयव), कुण्डक (शालि आदि के अन्दर का अवयव), पूय (पीव), रक्त, चर्म, मांस, बीज, फल, कंद, मूल ये चौदह मल माने गये हैं। इनमें कोई महामल है और कोई अल्पमल है। रक्त, मांस, अस्थि, चर्म, पीव ये महादोष हैं। आहार में इनके दर्शन से सर्व आहार त्याग करके प्रायश्चित्त भी कर लेना चाहिए। द्वीन्द्रिय आदि विकलत्रय का शरीर और बाल यदि आहार में दीख पड़े तो आहार त्याग कर देना चाहिए। नख दीख पड़े तो आहार त्याग के साथ अल्प प्रायश्चित्त कर लेना चाहिए। अंकुरोत्पन्न धान्य, कण, कुण्ड, बीज, कंद, फल और मूल, इनको अन्न से अलग कर आहार ग्रहण कर सकते हैं। मुनिजन छह हेतुओं से आहार ग्रहण करते हैं-
वेदना-क्षुधा की वेदना मिटाने के लिए। वैयावृत्य-अपनी और अन्य की वैयावृत्ति करने के लिए। क्रियार्थ-सामायिक आदि आवश्यक क्रियाओं का निर्विघ्न पालन करने के लिए।
संयमार्थ-तेरह प्रकार के संयम का पालन करने के लिए।
प्राणचिन्ता-प्राणों की रक्षा आहार बिना असंभव है और प्राणों के बिना-आयु के बिना रत्नत्रय सिद्धि नहीं हो सकती।
धर्मचिन्ता-आहार के बिना दशधर्मादि का पालन कैसे होगा? ऐसा सोचकर उपर्युक्त छह कारणों से मुनि आहार ग्रहण करते हैं।
आहार त्याग के कारण-आकस्मिक व्याधि या पीड़ा हो जाने से, उपसर्ग आ जाने से आहार का त्याग कर देते हैं। ब्रह्मचर्य की रक्षा हेतु, प्राणि दया हेतु, अनशन तपश्चरण हेतु और संन्यास के काल में मुनि नि:स्पृह होकर आहार का त्याग कर देते हैं। वास्तव में बल, आयु के लिए साधु आहार नहीं लेते हैं किन्तु स्वाध्याय, संयम और ध्यान की सिद्धि के लिए ही साधु आहार ग्रहण करते हैं। नवकोटि से विशुद्ध, श्रावकों द्वारा नवधाभक्ति से दिये गये आहार को अन्तराय आदि टाल कर लेते हैं।