-दोहा-
तीर्थंकर जिनकेवली, आस्रव बंध विमुक्त।
मन वच तन से नित नमूं, मोक्ष तत्त्व से युक्त।।१।।
-गीता छंद-
जय जय जिनेश्वरदेव, तीर्थंकर प्रभू जिनकेवली।
अर्हंत परमेष्ठी सकल, आस्रवरहित जिनकेवली।।
इनकी करूँ मैं वंदना, कर जोड़ नाऊं शीश को।
इनसे करूँ मैं प्रार्थना, शत-शत झुकाऊँ शीश को।।२।।
साता करम ही आस्रवे, ईर्यापथास्रव नाम ही।
हो केवली के इक समय, झड़ जाय नहिं हो बंध भी।।
आस्रव कहा जो सांपरायिक, सर्व जीवों में यही।
ये कर्म आठों बांधता, इससे भ्रमण जग में सही।।३।।
ये तीव्र मंद व ज्ञात अरु अज्ञात भावों से कहा।
निज शक्ति के कम या अधिक, से भेद नाना ले रहा।।
मिथ्यात्व पण अविरती, बारह तथा पंद्रह योग हैं।
पच्चिस कषायों से सहित, भावास्रवों के भेद हैं।।४।।
आठों करम में दर्श मोहनि, चरित मोहनि दो प्रमुख।
सम्यक्त्व औ चारित्र को, नाशें अत: ये दु:खप्रद।।
सम्यक्त्व दर्शन ज्ञान चारित्र, मोक्ष के कारण कहे।
अतएव दर्शनमोहनी हेतू से हम बचना चहें।।५।।
जिनकेवली को रोग हो, आहार भी लेकर जियें।
श्रुत में कहा है मांस भक्षण, साधुगण निर्लज्ज हैं।।
जिनधर्म में कुछ गुण नहीं, सुर देवियाँ बलि मांगते।
इस विधि कहें जो मूढ़जन, वे दर्शमोहनि बांधते।।६।।
जो केवली श्रुत संघ को, जिनधर्म सुर को दोष दें।
वे मोहनी दर्शन अशुभ को, बांधकर दु:ख भोगते।।
ये सब असत् अपवाद हैं, हे नाथ! मैं इनसे बचूँ।
सम्यक्त्व निधि रक्षित करूँ, हे नाथ! भव दुख से बचूँ।।७।।
क्रोधादि अशुभ कषाय का, उद्रेक जब अति तीव्र हो।
चारित्र मोहनि बंध हो, नहिं चरित धारण शक्ति हो।।
चारित्र मोह अनादि से, हे नाथ! निर्बल कर रहा।
मेरी अनंती आत्म शक्ती, छीनकर दु:ख दे रहा।।८।।
करके कृपा हे नाथ! अब, चारित्रमोह निवारिये।
चारित्र संयम पूर्ण हो, भवसिंंधु से अब तारिये।।
प्रभु आप ही पतवार हो, मुझ नाव भवदधि में फंसी।
अब हाथ का अवलंब दो, ना देर कीजे मैं दुखी।।९।।
इन आठ कर्मों में अधिक, बलवान एकहि मोह है।
इसके अट्ठाइस भेद हैं, बहु भेद सर्व असंख्य हैं।।
ये मोहनी ही स्थिती, अनुभाग बंध करे सदा।
ये मोहनी संसार का, है मूल कारण दु:खदा।।१०।।
सब आस्रवों के भेद इक, सौ आठ पापास्रव करें।
इस हेतु इक सौ आठ मणि की, जपसरा से जप करें।।
तुम नाम मंत्रों को सदा, जो भव्य जपते भाव से।
वे पाप आस्रव रोककर नित पुण्य संचें चाव से।।११।।
व्रत पाँच समिती पाँच गुप्ती, तीन दशविध धर्म है।
बारह अनूप्रेक्षा परीषह, जय कहे बाईस हैं।।
ये कर्म आस्रव रोकते, संवर करें मुनिजन धरें।
हे नाथ! इनको दीजिए, हम कर्म आस्रव परिहरें।।१२।।
जिनभक्ति संस्तुति मंत्र से, बहु पुण्य संपादन करें।
जिनभक्ति से बलभद्र चक्री, तीर्थकर पद भी धरें।।
जिनभक्ति से सब ऋद्धि सिद्धी, पाय शिवललना वरें।
जिनभक्ति से ही भक्त निज, आनंद अमृत रस भरें।।१३।।
हे नाथ! ऐसी शक्ति दो, मैं सर्व ममता छोड़ दूॅँ।
निज देह से भी होऊं निर्मम, सब परिग्रह छोड़ दूँ।।
निज आत्म से ममता करूँ, निज आत्म की चर्चा करूँ।
निज आत्म में तल्लीन हो, परमात्म की भक्ती करूँ।।१४।।
ऐसा समय तुरतहिं मिले, निजध्यान में सुस्थिर बनूँ।
उपसर्ग परिषह हों भले, निजतत्त्व में ही थिर बनूँ।।
निज आत्म अनुभव रस पियूँ, परमात्मपद की प्राप्ति हो।
निज ‘ज्ञानमति’ ज्योती दिपे, जो तीनलोक प्रकाशि हो।।१५।।
-दोहा-
जब तक नहिं परमात्मपद, तुुम पद में मन लीन।
एक घड़ी भी नहिं हटे, बनूं आत्म लवलीन।।१६।।