जिसका राग प्रशस्त है, अंतर में अनुकंपा की वृत्ति है और मन में कलुष भाव नहीं है, उस जीव को पुण्य का आस्रव होता है। पुण्यमपि य: समिच्छति, संसार; तेन ईहितो भवति। पुण्यं सुगतिहेतु:, पुण्यक्षयेण एव निर्वाणम्।।
जो पुण्य की इच्छा करता है, वह संसार की ही इच्छा करता है। पुण्य सुगति का हेतु (अवश्य) है, किन्तु निर्वाण तो पुण्य के क्षय से ही होता है। वरं व्रततपोभि: स्वर्ग:, मा दु:खं भवतु निरये इतरै:। छायाऽऽतपस्थितानां, प्रतिपालयतां गुरुभेद:।।
(तथापि) व्रत व तपादि के द्वारा स्वर्ग की प्राप्ति उत्तम है। इनके न करने पर नरकादि के दु:ख उठाना ठीक नहीं है क्योंकि कष्ट सहते हुए धूप में खड़े रहने की अपेक्षा छाया में खड़े रहना ही अच्छा है। (इसी न्याय से लोक में पुण्य की सर्वथा उपेक्षा उचित नहीं।) समत्तेण सुदेण य विरदीए सकायणिग्गहगुणेहिं जो परिणदो सो पुण्णो।
सम्यक्त्व, श्रुतज्ञान, व्रतरूप परिणाम तथा कषाय—निग्रह रूप गुणों से परिणत आत्मा पुण्य पुरुष है। तम्हा मंद—कसाया हेऊ पुण्णस्स ण हि वंछा।
पुण्य की इच्छा करने से नहीं बल्कि कषायों के क्षीण (भावों के शुद्ध) होने से पुण्य अर्जित हुआ करता है।