अर्थ — यदि पर को दु:ख उत्पन्न कराने में नियम से पाप बन्ध होता है और पर को सुख उत्पन्न कराने से नियम से पुण्य का बन्ध होता है ऐसा एकान्त सिद्धान्त मान लिया जावे तब तो अचेतन पदार्थ विषकंटादि तथा दुग्ध, अमृतादि को भी पाप और पुण्य बन्ध होना चाहिये। अथवा कषाय रहित महामुनि को भी बन्ध होना चाहिए क्योंकि ये भी पर के सुख दु:ख में निमित्त देखे जाते हैं। मतलब जब पर में सुख दु:ख का उत्पादन ही पुण्य पाप का एक मात्र कारण है ऐसा माना जावेगा तो दूध, मलाई तथा विष, कंटक, शस्त्र आदि अचेतन पदार्थ जो दूसरों को सुख दु:ख उत्पन्न कराने में कारण बनते हैं उनको भी पुण्य और पाप का बन्ध क्यों नहीं हो जावेगा ? यदि आप कहें कि अचेतन को पुण्य पाप का बन्ध होना कोई भी नहीं मानते हैं, किसी के पैर में कांटा चुभने से उसे दु:ख होता है इतने मात्र से काँटे को कोई पापी नहीं कहता और न पापरूप फलदायक कर्म परमाणु ही उसे कांटे से चिपकते हैं। इसी प्रकार दूध मलाई आदि बहुतों को आनन्द प्रदान करते हैं किन्तु उनके भी पुण्य कर्मों का बन्ध नहीं होता। अतएव पर में सुख दु:ख उत्पन्न कराने मात्र से पुण्य पाप का बन्ध मानना ठीक नहीं है। यदि आप कहें कि चेतन ही बन्ध के योग्य है अचेतन नहीं तो फिर कषाय रहित वीतरागी मुनियों के भी बन्ध होने लगेगा वे भी अनेक प्रकार से दूसरों के सुख दु:ख में कारण बनते हैं। उदाहरण के लिये देखिये। साधु किसी को मुनिदीक्षा देते हैं, उपवासादि कराते हैं उनके सम्बन्धियों को और उपवास करने वालों को दु:ख तो होता है। पूर्ण सावधानी के साथ ईर्यापथ से चलते हुये भी कभी—कभी अचानक कोई जीव कूदकर पैर तले दबकर मर जाता है।
कायोत्सर्ग पूर्वक ध्यानावस्था में स्थित होने पर भी यदि कोई जीव उड़कर आकर उनके शरीर से टकरा जाता है और मर जाता है तो इस तरह से उस जीव के बाधक होने से मुनि दु:ख के कारण बनते हैं, र्नििजत कषाय ऋद्धि धारी वीतरागी साधुओं के शरीर के मात्र से अथवा उनके शरीर को स्पर्श की हुई वायु के लगने से ही रोगी जन निरोगी हो जाते हैं और यथेष्ट सुख का अनुभव करते हैं ऐसे और भी अनेक प्रकार हैं जिनमें वे दूसरों के सुख दु:ख के कारण बनते हैं। यदि दूसरों के सुख दु:ख का कारण बनने से ही आत्मा में पुण्य पाप का आस्रव होता है तो फिर ऐसी हालत में वे कषाय रहित साधु पुण्य पाप के बन्धन से कैसे बच सकेंगे? और यदि वीतरागी के भी बन्ध होता ही रहेगा तब तो किसी को कभी भी मोक्ष की व्यवस्था ही नहीं बन सकेगी किन्तु बन्ध का कारण तो आगम में कषायें कही गई हैं ‘‘कषाय मूलं हि सकलं बंधनं’’ ‘‘सकषायत्वाज्जीव: कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बंध:’’। इस नियम के अनुसार तो कषाय रहित जीव को बन्ध नहीं होना चाहिये। अन्यथा जब अकषायी साधु भी बन्ध को प्राप्त होने लगेंगे तब मोक्ष किसको होगी ? यदि आप कहें कि वीतरागी मुनियों के मनोभिप्राय नहीं है अत: पर में सुख दु:ख उत्पन्न करने मात्र से ही उन्हें बन्ध नहीं होता है तब तो पर में सुख दु:ख उत्पन्न करने मात्र से ही पुण्य पाप का बन्ध होता है यह एकान्त कहाँ रहा ? लोक व्यवहार में भी ऐसे अनेकों उदाहरण देखे जाते हैं कि मनोभिप्राय के बिना दूसरों में सुख दु:ख उत्पन्न करने मात्र से ही अच्छा बुरा नहीं कहा जा सकता है।
जैसे डाक्टर सुख पहुँचाने के अभिप्राय से पूर्ण सावधानी के साथ रोगी के फोड़े का ऑपरेशन करता है, फोड़े को चीरते समय रोगी को कुछ अनिवार्य दु:ख भी पहुँचाता है किन्तु इस प्रकार से पर में दु:ख पहुँचाने के कारण डाक्टर को पाप बन्ध न होकर पुण्य का ही बन्ध होता है। वेश्या व्यभिचारियों को सुख उत्पन्न कराती है किन्तु पाप का ही बन्ध करती है न कि पुण्य का। इसलिये पर में सुख दु:ख उत्पन्न करने मात्र से पुण्य पाप का बन्ध सिद्ध नहीं हुआ।
अब कोई स्व में सुख दु:ख को पाप पुण्य का बन्ध होता है इस प्रकार का एकान्त स्वीकार करते हैं उनका भी समाधान किया जाता है—
अर्थ — यदि कोई कहे कि अपने में दु:ख को उत्पन्न करने से पुण्य एवं सुख के उत्पन्न करने से पाप होता है तब तो, वीतरागी मुनि त्रिकाल योग कायक्लेश उपवासादि अनुष्ठान से अपने में दु:ख उत्पन्न करते हैं तब उन्हें पुण्य बन्ध होता रहेगा और फल स्वरूप कभी भी मुक्ति नहीं मिल सकेगी। तथा विद्वान् मुनि तत्व ज्ञान से सन्तोष लक्षण सुख की उत्पत्ति अपने में करते हैं इनको भी पाप का बन्ध होने लगेगा। यदि आप कहें कि वीतराग मुनि और विद्वान मुनि को आसक्ति या इच्छा नहीं है अत: ये पुण्य पाप से नहीं बंधते हैं, तब तो अपने में दु:ख उत्पन्न करने से पुण्य एवं सुख उत्पन्न करने से पाप का बन्ध होता है ऐसा एकान्त कहाँ रहा ?कोई तो बेचारे पुण्य पाप सम्बन्धी दोनों के एकान्तों की अलग—अलग मान्यता में दोष देखकर दोनों ही सिद्धान्तों को स्वीकार कर लेते हैं। कोई तो घबराकर पुण्य पाप तत्व को अवाच्य ही कह देते हैं—
अर्थ — स्याद्वाद न्याय के विद्वेषी अन्य मतावलम्बियों के यहाँ परस्पर सापेक्ष मान्यता न होने से दोनों को स्वीकार करना परस्पर विरुद्ध ही है। एवं जो तत्व को अवाच्य करते हैं वे भी स्ववचन विरोधी ही हैं।
अब जैनाचार्य स्वयं पुण्य पाप की निर्दोष व्यवस्था बताते हुये स्याद्वाद की सिद्धि करते हैं—
विशुद्धि संक्लेशांगं चेत्, स्वपस्थं सुखासुखं।
पुण्यपापास्रवौ युक्तौ न चेद् व्यर्थस्तवार्हत:।।९५।।
अर्थ — विशुद्धि के निमित्त से होने वाले सुख अथवा दु:ख चाहे स्वयं में हों चाहे पर में हो चाहे उभय में हों वही पुण्यास्रव का हेतु है तथा संक्लेश के निमित्त से होने वाला सुख अथवा दु:ख चाहे वह स्व में हो चाहे पर में हो उभय में हो वही संक्लेश ही पापास्रव का हेतु है और यदि विशुद्धि तथा संक्लेश दोनों में से कोई न रहे तब तो हे भगवन्! केवल पर में सुख दु:ख उत्पन्न करने से या स्व में सुख दु:ख उत्पन्न करने मात्र से कर्मबन्ध नहीं हो सकता वह तो व्यर्थ ही है। यहाँ संक्लेश से अभिप्राय आर्त रौद्रध्यान के परिणामों से है और विशुद्धि शब्द से धर्म शुक्लध्यान से धर्म शुक्ल रूप परिणाम समझना चाहिये। यहाँ विशुद्ध परिणाम प्रशस्त माने गये हैं एवं संक्लेश परिणाम अप्रशस्त माने गये हैं। विशुद्धि के कारण, विशुद्धि के कार्य और विशुद्धि के स्वभाव को ‘‘विशुद्धि अंग’’ कहते हैं तथा संक्लेश के कारण संक्लेश के कार्य एवं संक्लेश के स्वभाव को संक्लेशांग कहते हैं। अपने में हो चाहे पर में, सुख उत्पन्न हो या दु:ख, यदि विशुद्धि अंग को लिये हुये है तब तो वह पुण्य रूप शुभ बन्ध का हेतु होता है और यदि संक्लेश का अंग रूप है तब तो पापबन्ध का हेतु होता है अन्यथा नहीं। ‘‘मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा: बन्ध हेतव:’’ इस सूत्र के द्वारा मिथ्यादर्शन, अविरति प्रमाद, कषाय और योग ये बन्ध के कारण ही संक्लेश के कारण हैं।
हिंसादि क्रिया रूप कार्य संक्लेश कार्य हैं एवं आर्त रौद्रध्यान रूप परिणाम संक्लेश स्वभाव है। उसी प्रकार से सम्यग्दर्शनादि विशुद्धि के कारण हैं, धर्मध्यान, शुक्लध्यान उसके स्वभाव हैं और विशुद्ध परिणाम उसके कार्य हैं।
इन तीनों सूत्रों के द्वारा शुभकायादि व्यापार को पुण्याश्रव का हेतु और अशुभकायादि व्यापार को पापास्रव का हेतु बताया गया है। वह कथन भी इस ‘‘समन्तभद्र स्वामि के कथन के अभिप्राय से विरुद्ध नहीं है क्योंकि विशुद्धि और संक्लेश के कारण, कार्य और स्वभाव के द्वारा विशुद्ध परिणाम और संक्लेश परिणाम की व्यवस्था बन जाती है। आर्तध्यान के इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग, वेदना और निदान नाम के चार भेद हैं। तथा रौद्रध्यान के हिंसानन्दी, मृषानन्दी, चौर्यानन्दी और परिग्रहानन्दी ऐसे चार भेद हैं। तथा संक्लेश के अभावरूप धर्मध्यान के भी आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय ये चार भेद हैं। शुक्लध्यान के पृथक्त्ववितर्क, एकत्व वितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति एवं व्युपरतक्रियानिवृत्ति नाम के चार भेद है। आर्तरौद्रध्यान तो संसार के हेतु हैं और धर्म तथा शुक्लध्यान मोक्ष के हेतु माने गये हैं क्योंकि सम्यग्दर्शनादि परिणाम रूप धर्म शुक्ल ध्यान से ही आत्मा में स्थिरता आती है। सारांश यह निकला कि यदि हमारे परिणाम संक्लेश रूप हैं तो चाहे पर में सुख उत्पन्न हो चाहे दु:ख किन्तु पापकर्म का आस्रव हमें अवश्य ही हो जाता है।
उसी प्रकार से यदि हमारे परिणाम विशुद्धि रूप हैं तो चाहे पर में सुख हो या दु:ख अथवा अपने में सुख हो चाहे दु:ख अथवा अपने सुख हो चाहे दु:ख किन्तु पुण्य कर्मों का ही आस्रव होता है। पुन: धीरे धीरे विशुद्धि बढ़ते—बढ़ते जब यह जीव कषाय रहित हो जाता है तब पुण्य पाप का बन्ध समाप्त हो जाता है केवल संवर निर्जरा होती है और पूर्ण संवर निर्जरा से मोक्ष हो जाती है। पहले गुणस्थान से लेकर दशवें तक कषाय का अस्तित्व होने से कर्मबन्ध होता रहता है क्योंकि स्थिति और अनुभाग बन्ध में कषाय ही हेतु है और ये ही दो बन्ध दु:खदायी हैं शुभ अशुभ फल देने वाले हैं। इसके बाद ११ वें से तेरहवें गुणस्थान तक योग के निमित्त से प्रकृति और प्रदेश बन्ध होता है जिसकी स्थिति न पड़ने से वह कार्यकारी नहीं है। चौदहवें गुणस्थान में बन्ध के पाँचों ही (मिथ्यादर्शनादि) कारणों का अभाव हो जाने से सर्वथा बन्ध का अभाव होकर मोक्ष हो जाता है। अत: संक्लेश परिणामों से (कारण, कार्य स्वभावों से) बचते रहना चाहिये और परिणामों को सदैव निर्मल विशुद्ध धर्मध्यान रूप बनाते रहना चाहिये इसी से शुक्ल ध्यान की सिद्धि होकर कर्मों का नाश हो सकेगा ।
अब आचार्य सप्तभंगी की प्रक्रिया का अच्छा दिग्दर्शन कराते हैं—
(१) कथंचित् स्वपर में स्थित सुख दु:ख पुण्यास्रव के हेतु हैं क्योंकि विशुद्धि के अंग स्वरूप है।
(२) कथंचित् स्वपर में स्थित सुख दु:ख पापास्रव के हेतु हैं क्योंकि संक्लेश के अंग स्वरूप है।
(३)कथंचित् स्वपर में स्थित सुख दु:ख पुण्यास्रव और पापास्रव के हेतु हैं क्योंकि क्रम से विशुद्धि और संक्लेश हेतु विवक्षित हैं।
(४) कथंचित् स्वपर में स्थित सुख दु:ख अवक्त्व्य हैं क्योंकि दोनों हेतु एक साथ कहे नहीं जा सकते हैं।
(५) कथंचित् स्वपर में स्थित सुख दु:ख पुण्यास्रव के हेतु और अवक्तव्य है क्योंकि क्रम से विशुद्धि हेतु और एक साथ दोनों को नहीं कह सकते हैं।
(६) कथंचित् स्वपर में स्थित सुख दु:ख पापास्रव के हेतु एवं अवक्तव्य हैं क्योंकि क्रम से संक्लेश हेतु और एक साथ न कह सकने की विवक्षा है।
(७) कथंचित् स्वपर में स्थित सुख दु:ख पुण्यास्रव, पापास्रव के हेतु और अवक्तव्य हैं क्योंकि क्रम से विशुद्धि, संक्लेश परिणाम होना और एक साथ दोनों को कह न सकना ये दोनों बातें क्रम और युगपत् से विवक्षित हैं।
इस सप्तभङ्गी प्रक्रिया के द्वारा हम किसी बात का एकान्त हठाग्रह नहीं पकड़ते हैं और कथंचित् रूप अनेकान्त पद्धति से वस्तु तत्व को अच्छी तरह से समझ लेते हैं और विशेष समझने के लिये अष्टस्रहस्री आदि ग्रंथो का अवलोकन करना चाहिये।