पुण्यात् सुखं न सुखमस्ति विनेह पुण्यात्,
बीजाद्विना न हि भवेयुरिह प्ररोहा:।
पुण्यं च दानदमसंयमसत्यशौच-
त्यागक्षमादि शुभचेष्ठितमूलमिष्टम्।।
पुण्यात् सुरा सुरनरोरग भोगसारा:,
श्रीरायुरप्रमितरूपसमृद्धयो धी:।
साम्राज्यमैन्द्रमपुनर्भवभावनिष्ठम्,
आर्हन्त्यमन्त्यरहिताखिल सौख्यमग्रयम्।।
इस संसार में पुण्य से ही सुख प्राप्त होता है। जिस प्रकार बीज के बिना अंकुर उत्पन्न नहीं होता उसी प्रकार पुण्य के बिना सुख नहीं हो सकता। दान देना, इंद्रियों को वश में करना, संयम धारण करना, सत्य बोलना, लोभ नहीं करना और क्षमाभाव धारण करना आदि शुभ चेष्टाओं से अभिलषित पुण्य की प्राप्ति होती है। सुर, असुर, मनुष्य और नागेन्द्र के अभिलषित भोग, लक्ष्मी, दीर्घायु, अनुपमरूप, समृद्धि, उत्तम वाणी, चक्री का साम्राज्य, इन्द्रपद जिसे पाकर फिर संसार में जन्म नहीं लेना पड़ता, ऐसा अरहंत पद और अंतरहित समस्त सुखदायी श्रेष्ठ निर्वाणपद, इन सभी की प्राप्ति एक पुण्य से ही होती है।