जिसमें चेतना नहीं हो अर्थात् जिसमें जानने, देखने की शक्ति नहीं हो, वह अजीव द्रव्य है। इसमें कोई प्राण नहीं होते हैं। यद्यपि अजीव द्रव्यों में देखने व जानने की शक्ति नहीं होती है, मगर इसका यह अर्थ नहीं है कि उनमें अन्य कोई गुण या शक्ति नहीं है क्योंकि गुणों व धर्मों से रहित कोई वस्तु होती ही नहीं है। जैन आगम में अजीव द्रव्य के पांच भेद किये गये हैं-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल।
‘‘पुद्गल’’ दो शब्दों से बना है। ‘‘पुद्’’ का अर्थ है-पूर्ण होना या मिलना और ‘‘गल’’ का अर्थ है-गलना या बिछुड़ना। जो पूरण व गलन स्वभाव वाला है अथवा जिसका संयोग- वियोग हो सके वह पुद्गल है। जड़ द्रव्यों का संयोग भी हो सकता है और वियोग भी अर्थात् उन्हें जोड़कर बड़ा आकार भी दिया जा सकता है व उन्हें तोड़कर छोटा भी किया जा सकता है। पुद्गल गतिशील अर्थात् सक्रिय होता है। जगत् में जो कुछ भी हमारे देखने, छूने, चखने, सुनने व सूंघने में आता है, वह सब पुद्गलों का पिण्ड है। पुद्गल स्कन्ध अपने प्रदेशों में चंचलता पैदा कर सकते हैं और परस्पर मिल व बिछुड़ सकते हैं। इनके प्रदेशों में एक दूसरे के भीतर समा जाने अथवा इनके परमाणुओं के भीतर से बाहर निकलने के कारण उसके आकार में परिवर्तन होना तथा परमाणुओं का एक स्थान से दूसरे स्थान पर गमन करना पुद्गल का क्रियात्मक कार्य है। यह कार्य तीन द्रव्यों (धर्म, अधर्म और आकाश) की अपेक्षा रखता है।
पुद्गल में ५ रूप, ५ रस, २ गंध और ८ स्पर्श कुल २० गुण होते हैं-
१. रूप ५-जो नेत्र इन्द्रिय से देखकर जाना जावे। यह ५ प्रकार का होता है-काला, पीला, नीला, लाल और सफेद। इन रंगों को परस्पर मिला देने से अन्य प्रकार के रंग भी बन जाते हैं। जैसे पीला और नीला रंग मिलाने से हरा रंग बन जाता है और पीला और लाल मिलाने से संतरी रंग बन जाता है।
२. रस ५-जो रसना इन्द्रिय से चखकर जाना जावे। यह भी ५ प्रकार का होता है-खट्टा, मीठा, कड़वा, चरपरा और कसायला।
३. गंध २-जो घ्राण इन्द्रिय से सूंध कर जाना जावे। यह दो प्रकार का होता है-सुगंध और दुर्गन्ध।
४. स्पर्श ८-जो स्पर्शन इन्द्रिय से छूकर जाना जावे। यह ८ प्रकार का होता है-हल्का, भारी, रूखा, चिकना, कठोर, नरम, ठण्डा और गर्म।
इस प्रकार पुद्गल में रूप, रस, गंध और स्पर्श चार गुण पाये जाते हैं। ये चारों गुण पुद्गल के अलावा अन्य द्रव्यों में नहीं पाये जाते हैं। ये चारों गुण एक साथ पाये जाते हैं। जैसे आम में पीला रूप, मीठा रस, अच्छी गंध और कोमल स्पर्श होता है। मोटे तौर पर जो भी हम देखते हैं, वह पुद्गल द्रव्य है। जगत में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जिसमें ये चारों गुण नहीं पाये जाते हों। इस प्रकार पुद्गल स्पर्श, रस, गंध और वर्ण गुणों से युक्त है और अपने रूपान्तरण से ही शब्द या ध्वनि आदि अवस्थाओं (पर्यायों) को प्राप्त होता है।
पुद्गल के दो भेद हैं-अणु (परमाणु) और स्कन्ध।
१. अणु (परमाणु) पुद्गल-पुद्गल द्रव्य का सबसे छोटा आकार अणु है, इसके आदि, मध्य व अन्त नहीं होता है और इसके टुकड़े नहीं किये जा सकते हैं। इसको इन्द्रियों द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता है। अणु नित्य है, मूर्तिक है, अविभागी है, एक प्रदेशी है और शब्द रूप नहीं है। यह यद्यपि मूर्तिक है, फिर भी सामान्य चक्षु इन्द्रिय से दिखाई नहीं देता है। वह किसी यंत्र द्वारा भी नहीं देखा जा सकता है। यह अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान तथा केवलज्ञान का विषय है। अणु को ही परमाणु भी कहा जाता है।
आज के वैज्ञानिक जिसे परमाणु कहते हैं, उसमें भी अनेक प्रोटोन, न्यूट्रोन और इलेक्ट्रोन होते हैं। जैन आगम में जिसे अणु अर्थात् परमाणु कहा गया है, वह इनसे भी छोटा होता है। इस अणु के और टुकड़े हो ही नहीं सकते हैं। इस प्रकार वैज्ञानिक परमाणु का आकार जैन परमाणु से बहुत बड़ा है। लोक में जितने भी परमाणु हैं, उनकी संख्या उतनी ही रहती है, न घटती है और न बढ़ती है। उनकी अवस्था बदलती रहती है।
२. स्कन्ध पुद्गल-दो या अधिक परमाणु पुद्गलों के परस्पर मिलने को स्कन्ध कहते हैं। पृथ्वी, जल, छाया, धूप, अंधेरा, चाँदनी आदि सभी पुद्गल स्कन्ध हैं। चिकनाई व रूखापन पुद्गल के गुण हैं और इन्हीं के कारण पुद्गल परमाणु बंधकर स्कन्ध बनता है। बंध होने पर अधिक गुण वाला परमाणु कम गुण वाले परमाणु को अपने रूप कर लेता है।
आकार की अपेक्षा से स्कन्ध पुद्गल के भेद-
स्कन्ध पुद्गल स्थूल (बादर) भी होते हैं और सूक्ष्म भी होते हैं।
आकार (स्थूल अथवा सूक्ष्म) की अपेक्षा से स्कन्ध पुद्गल के ६ भेद होते हैं जो निम्न हैं-
१. स्थूल-स्थूल-जो टूटने पर स्वयं नहीं जुड़ सके। जैसे पत्थर, लकड़ी, कपड़ा आदि।
२. स्थूल-जो छेदन-भेदन करने के पश्चात् स्वयमेव जुड़ जाते हैं। जैसे तेल, घी, पानी, पारा आदि।
३. स्थूल-सूक्ष्म-जो आँखों से देखे जा सकें मगर पकड़ में नहीं आ सकें। ये चक्षु इन्द्रिय से ग्राह्य होते हुए भी अन्य इन्द्रियों से ग्राहय नहीं हैं। जैसे छाया, धूप, चाँदनी, अन्धकार आदि।
४. सूक्ष्म-स्थूल-जो आँखों से तो दिखाई नहीं देते, किन्तु शेष चार इन्द्रियों से ग्रहण किये जा सकते हैं। जैसे वायु, शब्द, गंध आदि।
५. सूक्ष्म-जो किसी भी इन्द्रिय से नहीं जाने जा सकते हैं। ये अन्य परमाणुओं से न तो रुकते हैं और न ही अन्यों को रोकते हैं। जैसे कर्मवर्गणा आदि। रेडियो की तरंगें तथा एक्सरे व्ाâी किरणें इस श्रेणी में ग्रहण की जा सकती हैं।
६. सूक्ष्म-सूक्ष्म-परमाणुओं का सबसे छोटा स्कंध अर्थात् केवल २ परमाणुओं के स्कन्ध को सूक्ष्म-सूक्ष्म कहते हैं।
वर्गणा-
समान गुण वाले पुद्गल परमाणुओं के वर्गों/समूहों को वर्गणा कहते हैं। यह लोक के सर्व प्रदेशों पर अवस्थित है।
सभी परमाणु एक ही जाति के होते हैं और इनमें भेद नहीं होता है। इनके परस्पर मिल जाने पर जो सूक्ष्म या स्थूल स्कन्ध बनते हैं, उनमें जातिभेद होना स्वाभाविक है। परमाणुओं के योग से सर्वप्रथम एक अति सूक्ष्म स्कन्ध बनता है जिसे शास्त्रों में वर्गणा का नाम दिया गया है। विज्ञान इसे मोलीक्यूल (श्दतम्ल्त) कहता है। जैन दर्शन के अनुसार ये वर्गणा समस्त विश्व में ठसाठस भरी हुई है। इन वर्गणाओं के योग से पृथ्वी, अप (पानी), तेज (अग्नि) और वायु बनते हैं और इनके योग से ही लोक में सकल दृष्ट पदार्थों का निर्माण हुआ है।
इनके २३ भेद निम्नानुसार हैं-
(१) अणु वर्गणा | (२) संख्याताणु वर्गणा | (३) असंख्याताणु वर्गणा |
(४) अनन्ताणु वर्गणा | (५) आहार वर्गणा | (६) अग्राह्य वर्गणा (प्रथम) |
(७) तैजस शरीर वर्गणा | (८) अग्राह्य वर्गणा(द्वितीय) | (९) भाषा वर्गणा |
(१०) अग्राह्य वर्गणा (तृतीय | (११) मनो वर्गणा | (१२) अग्राह्य वर्गणा (चतुर्थ) |
(१३) कार्मण वर्गणा | (१४) धु्रव स्कन्ध वर्गणा | (१५) सान्तर-निरन्तरवर्गणा |
(१६) ध्रुव शून्य वर्गणा(प्रथम) | (१७) प्रत्येक शरीर वर्गणा | (१८) ध्रुव शून्य वर्गणा (द्वितीय) |
(१९) बादर निगोद वर्गणा | (२०) धु्रव शून्य वर्गणा(तृतीय) | (२१) सूक्ष्मनिगोद वर्गणा |
(२२) ध्रुव शून्य वर्गणा (चतुर्थ) और | (२३) महास्कन्ध वर्गणा। |
ग्रहण योग्य जो वर्गणाएं हैं उन्हें ग्राह्य वर्गणा कहते हैं और जो ग्रहण योग्य नहीं हैं उन्हें अग्राह्य वर्गणा कहते हैं। उपरोक्त वर्गणाओं में से पांच प्रकार की वर्गणाऐं ही ग्रहण योग्य हैं। इनका विवरण निम्न है-
(१) आहार वर्गणा के द्वारा औदारिक, वैक्रियिक और आहारक इन तीन शरीरों तथा श्वासोच्छ्वास की रचना होती है।
(२) तैजस वर्गणा के द्वारा तैजस शरीर की रचना होती है। यह औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीरों को कांति व उâष्मा देता है और खाना पचाता है।
(३) भाषा वर्गणा के द्वारा चार प्रकार के वचनों की रचना होती है।
(४) मनो वर्गणा के द्वारा हृदय स्थान में अष्ट दल कमल के आकाररूप द्रव्य मन की रचना होती है।
(५) कार्मण वर्गणा-कर्म रूप परिणमित होने योग्य वर्गणाओं को कार्मण वर्गणा कहते हैं। इनके द्वारा आठ प्रकार के कर्म बनते हैं। मन-वचन-काय की प्रवृत्ति से जीव के आत्मप्रदेशों में प्रतिसमय परिस्पन्दन होता रहता है। जीव के इस परिस्पन्दन के निमित्त से कार्मण वर्गणाएं कर्मरूप परिणमन कर जाती हैं और आत्मा के साथ बंध जाती हैं। बिना निमित्त के ये वर्गणाएं कर्म रूप नहीं हो सकती हैं। एक-एक जीव के अनन्त कर्मवर्गणा लगी हुई हैं।
नोकर्म वर्गणा-
औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीरों के योग्य वर्गणाओं को नोकर्म-वर्गणा कहते हैं।
उपरोक्त २३ प्रकार की वर्गणाओं में से कार्मण, भाषा, मनो व तैजस वर्गणाओं के अतिरिक्त शेष १९ प्रकार की वर्गणाएं नोकर्म वर्गणा हैं।
प्रत्येक पदार्थ अपनी अर्थ-क्रिया से स्वयं को व अन्य को प्रभावित करता रहता है। इसे उपग्रह या उपकार कहते हैं। पुद्गल द्रव्य जहां पुद्गल का उपकार करता है, वहीं जीव द्रव्य का भी उपकार करता है। जीव व पुद्गल का अनादिकालीन सम्बन्ध है। जीव की समस्त अवस्थाएं और क्रियाएं पुद्गल सापेक्ष हैं। आहार, शरीर-निर्माण, इन्द्रिय-संरचना, श्वास-प्रश्वास, भाषा और मानसिक चिन्तन के लिये वह निरन्तर पुद्गलों को ग्रहण करता रहता है अर्थात् जीव की समस्त क्रियाएं पुद्गल से ही सम्पादित होती हैं। पुद्गल के बिना जीव एक क्षण के लिये भी संसार में नहीं रह सकता है। पुद्गल-जगत से सम्बन्ध विच्छेद होने पर ही जीव की मुक्ति संभव है।
पर्याय (Mode)-
गुणों की अवस्था या परिवर्तन को पर्याय कहते हैं। पर्याय के दो भेद हैं-१. स्वभावपर्याय, २. विभावपर्याय
(१) स्वभाव पर्याय-परमाणु का अन्य निरपेक्षरूप परिणमन पुद्गल की स्वभाव पर्याय है।
(२) विभाव पर्याय-परमाणु का स्कंध रूप परिणमन पुद्गल की विभाव पर्याय है।
पुद्गल द्रव्य की विभाव व्यंजन पर्यायें-
सद्दोबंधो सुहमो, थूलो संठाण भेदतम छाया।
उज्जोदादव सहिया, पुग्गलदव्वस्स पज्जाया।।१६।। (द्रव्य संग्रह)
इस गाथा में कही शब्द, बंध, सूक्ष्म, स्थूल, संस्थान, भेद, अंधकार, छाया, उद्योत और आतप ये सब पुद्गल द्रव्य की विभाव द्रव्य व्यंजन पर्याये हैं।
भाषावर्गणा के स्कंधों के संयोग-वियोग के कारण जो ध्वनिरूप परिणमन है, उसे शब्द कहते हैं। अथवा ध्वनि रूप क्रिया धर्म को शब्द कहते हैं। अथवा बाह्य श्रवणेन्द्रिय द्वारा, अवलम्बित, भावेन्द्रिय द्वारा जानने योग्य ऐसी जो ध्वनि है, वह शब्द है। शब्द दो प्रकार के होते हैं-भाषात्मक शब्द, अभाषात्मक शब्द।
भाषात्मक शब्द-त्रस जीवों के योग के कारण होने वाली ध्वनि को भाषात्मक कहते हैं। भाषात्मक शब्द दो प्रकार के होते हैं-अक्षरात्मक शब्द, अनक्षरात्मक शब्द। जिसमें अक्षर होते हैं, उसे अक्षरात्मक कहते हैं। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, पैशाची, मागधी, पाली, हिन्दी, मराठी, तेलगू, कन्नड़ आदि अनेक प्रकार की अक्षरात्मक भाषा होती है। इससे आर्य, म्लेच्छ मनुष्यों के व्य्ावहार की प्रवृत्ति होती है।
अनक्षरात्मक भाषा-जिससे उनके सातिशय ज्ञान का पता चलता है ऐसे तीर्थंकर की दिव्यध्वनि भी अनक्षरात्मक भाषा है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय व संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के अनक्षरात्मक भाषा होती है तथा
अभाषात्मक शब्द-वाद्य यंत्रों और बादलों से जो ध्वनि उत्पन्न होती है, उसे अभाषात्मक शब्द कहते हैं। अभाषात्मक शब्द दो प्रकार के होते हैं-१. प्रायोगिक, २. वैस्रसिक।
प्रायोगिक अभाषात्मक शब्द-यथा योग्य दो पौद्गलिक स्कंधों के प्रयोग संबंध होने पर जो शब्द उत्पन्न होते हैं, उन्हें प्रायोगिक अभाषात्मक शब्द कहते हैं। प्रायोगिक अभाषात्मक शब्द चार प्रकार के होते हैं-१. तत २. वितत ३. घन ४. सुषिर।
तत शब्द-वीणा, सितार आदि के तारों से उत्पन्न होने वाले शब्द को तत शब्द कहते हैं।
वितत शब्द-चर्म से मढ़े हुए ढोल नगारे आदि से उत्पन्न होने वाले शब्द को वितत शब्द कहते हैं।
घन शब्द-कांसे आदि धातुओं से निर्मित मंजीरे तथा ताल आदि से उत्पन्न होने वाले शब्द को घन शब्द कहते हैं।
सुषिर शब्द-वंशी (बांसुरी), तुरी, शंख आदि को फूंककर बजाने से उत्पन्न हुए शब्द को सुषिर शब्द कहते हैं।
वैस्रसिक अभाषात्मक शब्द-विस्रसा अर्थात् स्वभाव से उत्पन्न मेघगर्जना आदि के शब्द को वैस्रसिक अभाषात्मक शब्द कहते हैं।
दो या अनेक पदार्थों के परस्पर एकमेक हो जाने को बंध कहते हैं। बंध दो प्रकार के हैं-१. केवल पुद्गलात्मक
२. जीव पुद्गलात्मक।
केवल पुद्गलात्मक बंध-मृत्तिका आदि के पिण्ड रूप से जो घट, गृह, मोदक (लड्डू) आदि बंध केवल पुद्गलात्मक बंध है।
जीव पुद्गलात्मक बंध-जो जीव के साथ ज्ञानावरणादि कर्म और औदारिक आदि तीन शरीर छह पर्याप्ति के योग्य पुद्गल वर्गणाओं का बंध जीव तथा पुद्गल के संयोग से उत्पन्न बंध जीव पुद्गलात्मक बंध है।
अल्प परिमाण को सूक्ष्म कहते हैंं। सूक्ष्म दो प्रकार का है-१. साक्षात् सूक्ष्म, २. अपेक्षाकृत सूक्ष्म।
साक्षात् सूक्ष्म-जिससे सूक्ष्म अन्य कोई न हो, उसे साक्षात् सूक्ष्म कहते हैं। जैसे-परमाणु।
अपेक्षाकृत सूक्ष्म-जो सूक्ष्मता किसी की अपेक्षा रखकर प्रतीत हो, उसे अपेक्षाकृत सूक्ष्म कहते हैं। जैसे-बेल फल की अपेक्षा बेर आदिक अपेक्षाकृत सूक्ष्म है।
बड़े परिमाण वाले को स्थूल कहते हैं। स्थूल के दो भेद हैं-१. अपेक्षाकृत स्थूल, २. उत्कृष्ट स्थूल।
अपेक्षाकृत स्थूल-जो स्थूलता किसी की अपेक्षा रखकर प्रतीत होती है, उसे अपेक्षाकृत स्थूल कहते हैं। जैसे-बेर फल की अपेक्षा बेलफल अपेक्षाकृत स्थूल है।
उत्कृष्ट स्थूल-जिससे स्थूल अन्य कोई न हो, उसे उत्कृष्ट स्थूल कहते हैं। जैसे-तीनलोक रूप महास्कंध उत्कृष्ट स्थूल है।
मूर्त पदार्थ के आकार को संस्थान कहते हैं।
संस्थान के प्रकार-समचतुरस्र, न्यग्रोध, स्वाति, कुब्जक, वामन और हुंडक ये छह प्रकार का संस्थान व्यवहार नय से जीव का होते हुए भी निश्चयनय से पुद्गल का ही है। जो गोल, त्रिकोण, चतुष्कोण आदिरूप अनेक प्रकार के संस्थान हैं, वे भी पुद्गल के ही हैं।
समचतुरस्र संस्थान-ऊपर नीचे मध्य में कुशल शिल्पी के द्वारा बनाये गये समचक्र की तरह समानरूप से शरीर के अवयवों की रचना होना समचतुरस्र संस्थान है।
न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान-बड़ के पेड़ की तरह नाभि के ऊपर भारी और नीचे लघु प्रदेशों की रचना न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान है।
स्वाति संस्थान-न्यग्रोध से उलटा ऊपर लघु और नीचे भारी वल्मीक (सर्प के बिल) की तरह रचना स्वाति संस्थान है।
कुब्जक संस्थान-पीठ पर बहुत पुद्गलों का पिण्ड हो जाना अर्थात् कुबड़ापन कुब्जक संस्थान है।
वामन संस्थान-सभी अंग उपांगों को छोटा बनाने में कारण वामन संस्थान है। अर्थात् बौने शरीर को वामन संस्थान कहते हैं।
हुण्डक संस्थान-सभी अंग और उपांगों का बेतरतीब हुण्ड की तरह रचना हुण्डक संस्थान है। अर्थात्-विषम अनेक आकार वाले शरीर की रचना को हुण्डक संस्थान कहते हैं।
वस्तु को अलग-अलग चूर्णादि करने को भेद कहते हैं। भेद छह प्रकार के होते हैं-१. उत्कर २.चूर्ण ३. खण्ड
४. चूर्णिका ५. प्रतर ६. अणुचटन।
उत्कर-करोंत आदि से जो लकड़ी को चीरा जाता है, उसे उत्कर कहते हैं।
चूर्ण-गेहूँ आदि का जो सत्तू और कनक (दलिया) आदि बनता है, उसे चूर्ण कहते हैं।
खण्ड-घट आदि के जो कपाल और शर्करा आदि टुकड़े होते हैं, उसे खण्ड कहते हैं।
चूर्णिका-उड़द और मूँग आदि का जो खण्ड किया जाता है, उसे चूर्णिका कहते हैं।
प्रतर-मेघ के जो अलग-अलग पटल आदि होते हैं, उसे प्रतर कहते हैं।
अणुचटन-तपाये हुए लोहे के गोले आदि को घन से पीटने पर जो फुलिंगे निकलते हैं, उसे अणुचटन कहते हैं।
दृष्टि को अवरोध करने (रोकने) वाले अंधकार को तम कहते हैं।
प्रकाश को रोकने वाले पदार्थों के निमित्त से जो पैदा होती है, उसे छाया कहते हैं।
चन्द्र विमान, चन्द्रकांत मणि तथा खद्योत (जुगनू) आदि के निमित्त से जो प्रकाश होता है, उसे उद्योत कहते हैं।
सूर्य विमान, सूर्यकांत मणि आदि पृथ्वीकाय के निमित्त से जो उष्ण प्रकाश होता है, उसे आतप कहते हैं।
अत: पुद्गल की उपर्युक्त अवस्थाओं से यह सिद्ध होता है कि मूल द्रव्य के रूप में पुद्गल भले ही एक द्रव्य है किन्तु इसकी उपयोगिता एवं उपादेयता बहुत अधिक है। जिधर नजर उठाकर देखे उधर पुद्गल ही पुद्गल नजर आते हैं। यह पुद्गल प्राय: स्कंधरूप में यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखरे हुए हैं।