यद्यपि आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि से ही आत्मा के पूर्वजन्म—पुनर्जन्म की भी स्वयमेव सिद्धि हो जाती है, क्योंकि आत्मा अपने मूल स्वभाव से अजर—अमर होते हुए भी पर्याय—अपेक्षा से जन्म—मरणशील भी है। तथापि अनेक लोग इस विषय में भी बहुत शंकाएँ करते देखे जाते हैं, अत: यहाँ इस सम्बन्ध में भी विस्तृत विवरण प्रस्तुत है—
१. आत्मा का अस्तित्व है, आत्मा एक सत्तारूप वस्तु है और इसलिए उसमें वे सभी सामान्य गुण पाये जाते हैं, जो किसी भी सत् पदार्थ में पाये जाने चाहिए। सत् वस्तु का सर्वप्रथम गुण यही है कि उसका कभी सर्वथा उत्पाद या विनाश नहीं होता, मात्र अवस्थाएँ बदलती हैं।
जिस प्रकार स्वर्ण पुद्गल का कभी सर्वथा उत्पाद नहीं हो सकता और संसार की कोई शक्ति उसका सर्वथा नाश भी नहीं कर सकती, उत्पाद—व्यय मात्र उसकी अवस्थाओं में ही होता है, मूल वस्तु तो अनादिकाल से अनन्तकाल तक ज्यों की त्यों बनी रहती है; उसी प्रकार आत्मा का भी सर्वथा नया उत्पाद नहीं होता और संसार की कोई शक्ति उस आत्मा का सर्वथा विनाश भी नहीं कर सकती। मूल आत्मतत्त्व अनादि—अनन्त ही रहता है, मात्र उसकी अवस्थाओं में परिवर्तन होता रहता है।
आत्मा के ऐसे अवस्था—परिवर्तन को समझ लेने पर वस्तुत: आत्मा के पूर्वजन्म परजन्म को न माना जाए तो आत्मा का त्रैकालिक अस्तित्व ही सिद्ध नहीं हो सकता।
२. आधुनिक विज्ञान भी इतना तो भलीभाँति सिद्ध कर ही चुका है कि इस जगत् की कोई वस्तु सर्वथा उत्पन्न नहीं होती और न ही कभी सर्वथा नष्ट होती है, उत्पत्ति और नाश केवल उसकी अवस्थाओं के परिवर्तन को ही कहा जाता है—
“Nothing can be produced or destroyed completely. It’s form only changes.”
अत: इससे भी समझा जा सकता है कि आत्माओं का जो जन्म—मरण हम देखते हैं, वह सर्वथा नवीन उत्पाद या पूर्ण विनाश नहीं हो सकता; उसके आगे—पीछे भी उन आत्माओं का किसी न किसी रूप में अस्तित्व अवश्य होना चाहिए और वह पूर्वजन्म—परजन्म (पुनर्जन्म) ही है।
३. पूर्वजन्म और परजन्म को न मानने से कर्म—सिद्धान्त भी सिद्ध नहीं हो सकता।
यदि हम ऐसा मानते हैं कि आत्मा अपने समस्त शुभाशुभ कर्मों का फल भोगता है तो हमें पूर्वजन्म—परजन्म को अवश्य मानना ही होगा।
आत्मा को उसके समस्त शुभाशुभ कर्मों का फल भोगते हुए यहाँ इसी वर्तमान जन्म में नहीं देखा जाता है, अत: अवश्य ही पुनर्जन्म होना चाहिए।
उदाहरणार्थ—यहाँ कोई व्यक्ति किसी एक आदमी की हत्या करता है तो उसे फाँसी की सजा दी जाती है और यदि वह दस आदमियों की हत्या करे तो भी उसे फाँसी ही दी जाती है, और यदि पचास आदमियों की हत्या करे तो भी फाँसी ही दी जाती है। एक आदमी की हत्या से दस आदमियों की हत्या का और दस आदमियों की हत्या से पचास आदमियों की हत्या का पाप अधिक है—अपराध बड़ा है, परन्तु यहाँ सभी की सजा एक जैसी फाँसी ही सुनाई जा सकती है, जो वस्तुत: देखा जाए तो न्याय नहीं हुआ है; अत: इसके न्याय हेतु अवश्य ही नरकादि गतियों में पुनर्जन्म का अस्तित्व मानना होगा।
इसी प्रकार इस जन्म में प्रयत्न किये बिना ही एक आदमी अत्यधिक अनुकूल भोग—सामग्रियों के बीच जन्म लेता है और महान सुख भोगता है, किन्तु दूसरा व्यक्ति अत्यधिक प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच जन्म लेता है और घोर कष्ट सहता है इससे सिद्ध होता है कि पूर्वजन्म में किये गये कर्म ही वहाँ असली कारण हैं।
इसी प्रकार यदि पुनर्जन्म न हो तो जीव के पूजा—पाठ—दया—दानादि शुभकर्म और हिंसा—झूठ आदि अशुभकर्म निरर्थक सिद्ध होंगे, क्योंकि इनका विशेष फल जीव अपने पुनर्जन्म में ही स्वर्गादि या नरकादि में भोगता है।
इसी प्रकार पूर्वजन्म तथा पुनर्जन्म को न मानने पर जन्म—मरण के चक्र से मुक्त होकर मोक्ष जाने का सम्पूर्ण पुरुषार्थ भी व्यर्थ सिद्ध होगा। यदि जन्म—मरण ही नहीं है तो उससे मुक्ति की कामना भी व्यर्थ ही ठहरेगी और जब जन्म—मरण से ही मुक्ति नहीं है तो मोह—राग द्वेषादि विकारों को मिटाकर ज्ञान—वैराग्य—तपादि धारण करने से क्या प्रयोजन शेष रहेगा ?
४. प्राय: सभी धर्मों या दर्शनों में भी पूर्वजन्म एवं पुनर्जन्म को किसी न किसी रूप में अवश्य ही स्वीकार किया गया है। जैन पुराणों में एक ही आत्मा के असंख्य जन्मों का विवरण उपलब्ध होता है। वैदिक पुराणों में भी जन्म—जन्मान्तरों की हजारों कथाएँ वर्णित हैं। बौद्ध जातक भी पूर्वजन्म—पुनर्जन्म की ही कथाओं का चित्रण करते हैं।
इसके अतिरिक्त साहित्यिक एवं लौकिक प्रेम—कथाओं में भी नायक—नायिकाओं के अनेक जन्मों के प्रेम—सम्बन्धों का चित्रण उपलब्ध होता है।
५. यहाँ तक कि हम प्रत्यक्ष ही अनेकानेक लोगों को अपने पूर्वजन्म का सही—सही वृत्तान्त निरूपण करते भी देखते—सुनते हैं। यदा—कदा समाचार—पत्रों में भी ऐसी घटनाएँ पढ़ने को मिलती रहती हैं, जिनसे भी आत्मा के पुनर्जन्म की सिद्धि होती है।
पूर्वजन्म व पुनर्जन्म को नहीं मानने के पीछे एक तर्क प्राय: यह दिया जाता है कि पूर्वजन्म था तो उसका हमें स्मरण होना चाहिए था। जैसे कि बचपन की घटनाओं का बचपन बीत जाने पर भी स्मरण रहता है।
यदि पूर्वजन्म था तो आज हमें उसका स्मरण क्यों नहीं है ?
इसका समाधान यह है कि आज हमारा मानस—पटल केवल उन्हीं घटनाओं को याद रख पाता है जो उसकी ऊपरी सतह पर होती है, गहराई में बैठी बातों को याद नहीं कर पाता। बचपन की भी सारी बातें हमें बाद में कहाँ याद रह पाती हैंं ? माता के स्तनपानादि के अनेक प्रसंग हम प्राय: सर्वथा भूल चुके होते हैंं। इस प्रकार जब हमें इस जन्म की ही शैशवावस्था की बातें याद नहीं रहती तो पूर्वजन्म की बातें याद रहना तो और भी अधिक मुश्किल है।
परीक्षा द्वारा ही किसी मतवाद की सच्चाई पूर्णत: प्रमाणित होती है। ऋषिगण समस्त संसार को ललकार कर कह रहे हैं कि हमने उस रहस्य का पता लगा लिया है जिससे स्मृति—सागर की गम्भीरता का गहराई तक मन्थन किया जा सकता है—उसका प्रयोग करो और तुम अपने पूर्वजन्मों की सम्पूर्ण स्मृति प्राप्त कर लोगे।
साधना द्वारा मानस—पटल की गहराई में उतरकर अनेक योगी अपने पूर्वजन्मों का स्मरण करते भी देखे जाते हैं, जिसे जातिस्मरण ज्ञान कहा जाता है।
६. जैन ग्रंथों में अनेक जन्म—जन्मान्तरों का न केवल उल्लेख उपलब्ध होता है, अपितु जन्म—धारण की पूरी प्रक्रिया का भी विस्तारपूर्वक वर्णन उपलब्ध होता है, जो अतिसंक्षेप में इस प्रकार है—
जब कोई जीव एक शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर धारण करने जाता है तो इस बीच की स्थिति को ‘विग्रहगति’ कहते हैं। ‘विग्रह’ का अर्थ होता है—शरीर और नवीन शरीर प्राप्त करने के लिए जो गति की जाती है उसे ‘विग्रहगति’ कहते हैं। जिन जीवों को संसारचक्र से मुक्त हो जाना है, पुनर्जन्म धारण नहीं करना है वे तो सीधे ऊपर जाकर एक ‘समय’ (काल की सबसे सूक्ष्म इकाई, जो सेकेण्ड ही नहीं, नैनो सेकेण्ड से भी बहुत छोटी बताई गयी है।)
में लोक के अग्रभाग में जाकर स्थित हो जाते हैं, परन्तु जिन्हें पुन: शरीर धारण करना है, वे भी सर्वप्रथम सीधे ऊर्ध्वगमन करते हैं। उसके बाद जहाँ अगला जन्म धारण करना है, उस ओर ९० प्रतिशत के कोण से ही मुड़कर एकदम सीधे जाते हैं, टेड़े—मेड़े नहीं। आवश्यकतानुसार ये मोड़ तीन भी हो सकते हैं, परन्तु इससे अधिक नहीं; क्योंकि बिना शरीर का जीव संसारदशा में अधिक से अधिक चार समय तक ही रह सकता है, इससे अधिक नहीं। चौथे समय के बाद तो वह निश्चितरूप से नया शरीर धारण कर ही लेता है।
बहुत से लोग कहते हैं कि अमुक की आत्मा अभी तक भटक रही है, उसकी गति नहीं हुई है परन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि कोई भी आत्मा अपना एक शरीर छोड़ने के बाद कुछ ही समय में (अधिकतम ४ समय में, जो कुल मिलाकर भी एक सेकेण्ड से कम है।) निश्चितरूप से दूसरा शरीर धारण कर लेता है। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को समझने से भी पुनर्जन्म में आस्था उत्पन्न होती है।
७. संस्कृत—साहित्य के अनेक ग्रंथों में एक श्लोक पाया जाता है, जो प्राय: सर्वमान्यरूप से प्रसिद्ध है। वह निम्न प्रकार है—
‘‘तदर्हजस्तनेहातो, रक्षो दृष्टेर्भवस्मृते:।
भूतानन्वयनात् सिद्ध:, प्रकृतिज्ञ सनातन:।।’’
अर्थात् आत्मा स्वयंसिद्ध सनातन है, क्योंकि इसके अनेक प्रमाण हैं। यथा—
(क) तत्काल उत्पन्न हुआ बालक स्तनपान की इच्छा करता है, उसकी यह इच्छा अनादिकालीन पूर्व संस्कारवश ही होती है।
(ख) व्यन्तरादि देखे जाते हैं, जो अपने और दूसरों के पूर्वजन्मों को बताते रहते हैं।
(ग) अनेक मनुष्यों को भी अपने पूर्वभव का स्मरण होता देखा जाता है, जो जाँच करने पर सत्य भी होता है।
(घ) आत्मा कोई पृथिवी आदि पंचभूतों से बना नहीं है, अपितु चैतन्य सत्तारूप प्राकृतिक वस्तु है।
इनसे भी आत्मा के पूर्वजन्म तथा पुनर्जन्म की भलीभाँति सिद्धि होती है।
संस्कार वाली बात को यहाँ साधारण नहीं समझना चाहिए। प्रत्येक प्राणी अपने पूर्वजन्म के संस्कारों के अनुरूप ही दिखाई देता है। किसी विशेष वस्तु, व्यक्ति, विषय या स्थान आदि से प्रीति और किसी अन्य वस्तु, व्यक्ति, विषय या स्थान आदि से भय उत्पन्न होता है—यह अकारण नहीं हो सकता। समान परिस्थितियों में उत्पन्न अनेक पुरुषों में से एक व्यक्ति का मन चित्रकला में अधिक लगता है, दूसरे का युद्धकला में और तीसरे का काव्यकला में—इसमें अवश्य ही पूर्वजन्म के संस्कार कारण होते हैं।
जम्बूद्वीप निर्माण की पावन प्रेरिका चारित्रचन्द्रिका गणिनीप्रमुख आर्यिका शिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी की अद्वितीय विद्वत्ता में भी उनके पूर्वजन्म के संस्कार परिलक्षित होते हैं। जिन्होंने लौकिक शिक्षा चौथी क्लास भी पूर्ण न की हो और ४०० से अधिक ग्रंथों का लेखन जिनके कर—कमलों से हुआ हो, जिन्हें भारत के मान्य विश्वविद्यालयों द्वारा उनकी योग्यता के आधार पर दो बार डी. लिट् की उपाधि से अलंकृत किया जा चुका हो और जो सरस्वती की प्रतिमूर्ति मानी जाती हो, इन सबसे यही लगता है कि अनुपम ज्ञान के संस्कार मात्र इस जन्म के नहीं पूर्व जन्म के हैं। इसी प्रकार एक पुत्र माता—पिता की प्राणपन से सेवा करता है और दूसरा पुत्र उनकी हत्या करता है, यह भी अकारण नहीं हो सकता। इसमें भी पूर्वजन्म के संस्कारों की महती भूमिका होती है।
८. वैदिक वाङ्मय के विख्यात ग्रंथ ‘भगवद्गीता’ में आत्मा के जन्म—मरण को वस्त्र परिवर्तन की उपमा देकर इस प्रकार समझाया गया है—
‘‘वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।
अर्थात् जिस प्रकार कोई मनुष्य पुराने वस्त्र छोड़कर नये वस्त्र धारण कर लेता है, उसी प्रकार यह आत्मा भी पुराने शरीर को छोड़कर नया शरीर धारण कर लेता है।
प्रतीत होता है कि शरीर को वस्त्र की उपमा देने की परम्परा भारतीय वाङ्मय में अत्यधिक लोकप्रिय रही है और अनेक विद्वानों ने उसके द्वारा आत्मा और शरीर के सम्बन्ध को भलीभाँति स्पष्ट करने में सफलता प्राप्त की है।
भारतीय संस्कृति में ‘मृत्यु’ के लिए जितने भी पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग होता है, वे सभी शरीर और आत्मा के अलग होने को ही ‘मरण’ बताते हैं और सशक्तरूप से आत्मा की अमरता को सिद्ध करते हैं, जिससे पुनर्जन्म की दृढ़ सिद्धि होती है। यथा—
(क) स्वर्गवास—अर्थात् अब वह आत्मा यहाँ न रहकर स्वर्ग में निवास करेगा।
(ख) परलोक गमन—अर्थात् अब वह आत्मा दूसरे लोक (जन्म/गति) में चला गया है।
(ग) निधन—अर्थात् अब वह आत्मा इस दुनिया के घर—मकानादिरूप धन से रहित हो गया है।
(घ) देहान्त—अर्थात् उसके इस देह के संयोग का अन्त हो गया है, स्वयं उस आत्मा का नहीं।
(ङ) देहावसान—अर्थात् उसके देह के संयोग का अवसान (अन्त) हो गया है, आत्मा का नहीं।
(च) गुजर जाना—अर्थात् अब वह यहाँ से आगे चला गया है।
(छ) प्राणान्त—अर्थात् अब उसके इन्द्रियादि प्राण नष्ट हो गये हैं।
(ज) मृत्यु—अर्थात् अब उसकी इस संयोगी पर्याय के प्राणों का नाश हो गया है।
(झ) वैकुण्ठ जाना—अर्थात् उसकी वय (आयु) कुण्ठित (समाप्त) हो गई, स्वयं आत्मा नहीं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि आत्मा के पूर्वजन्म तथा पुनर्जन्म को नहीं मानने का कोई कारण नहीं है। उन्हें मानकर व्यक्ति स्वयं को आध्यात्मिक सन्मार्ग पर नि:शंकरूप से लगा सकता है।
इतना ही नहीं, पूर्वजन्म व पुनर्जन्म को मानने से व्यक्ति का लौकिक (व्यावहारिक) जीवन भी क्षेत्रवाद, जातिवाद, भाषावाद आदि की अनेक संकीर्ण सीमाओं से ऊपर उठकर अत्यन्त उदार एवं विशाल हो जाने से पवित्र बन जाता है। मनुष्य ही नहीं, पशु—पक्षी तक के प्रति उसके हृदय में सच्चा स्नेह उत्पन्न हो जाता है। अत: पूर्वजन्म व पुनर्जन्म को भलीभाँति समझकर, उसमें आस्था अवश्य रखनी चाहिए।
जब हम अपने चारों ओर दृष्टि डालते हैं तो हम इस संसार में बहुत सी विषमताएँ व विडम्बनाएँ पाते हैं।
हम छोटे—छोटे बालकों को देखें तो हम पायेंगे कि उनमें से कुछ तो जन्म से ही अपंग व रोगी होते हैं। तो कुछ जन्म से ही हृष्ट—पुष्ट होते हैं। कुछ बालकों की अत्यधिक सम्हाल रखने पर भी रोग उनका पीछा नहीं छोड़ते जबकि कुछ बालक यथोचित पालन—पोषण के बिना ही स्वस्थ रहते हैं। कुछ बालकों को जन्म से ही सर्व प्रकार की सुख—सुविधाएं उपलब्ध होती हैं। जबकि कुछ बालक अभावों में ही पलते हैं। कुछ बालक जन्म से ही मेधावी, चतुर व चंचल होते हैं। जबकि कुछ बालक जन्म से ही सुस्त और मन्द—बुद्धि होते हैं।
अधिकांश में हम देखते हैं कि हम जो भी कार्य करते हैं उनका हमको समुचित फल नहीं मिलता। कभी तो हमारे प्रयत्न बिल्कुल ही निष्फल हो जाते हैं, कभी हमें अपने प्रयत्नों की तुलना में थोड़ा ही फल मिलता है और कभी—कभी अपने प्रयत्नों की तुलना में हमें अधिक फल भी मिल जाता है। हम साधारणतया देखते हैं कि दो व्यक्तियों को एक जैसा प्रयत्न करने पर भी, भिन्न—भिन्न फल मिलता है। अन्तत: इस विडम्बना का कारण क्या है ? वास्तविकता तो यह है कि हमें जो भी फल मिलता है, वह हमारे केवल वर्तमान के प्रयत्नों का फल ही नहीं होता, अपितु भूतकाल में संचित कर्मों के फल का भी उसमें योग होता है।
इस विश्व में प्रत्येक प्राणी अपने द्वारा भूतकाल में किये हुए अच्छे व बुरे कार्यों का फल भोगता रहता है। कोई अपेक्षाकृत अधिक दु:खी होता है कोई अपेक्षाकृत अधिक सुखी होता है। इस विश्व में कदाचित् ही कोई ऐसा प्राणी मिले जो सब प्रकार से दु:खी हो या सब प्रकार से सुखी हो। जिन प्राणियों ने मोक्ष प्राप्त कर लिया है केवल वही पूर्ण सुखी होते हैं।
एक शंका यह उठती है कि जो व्यक्ति परिश्रम व ईमानदारी से अपना कार्य करते हैं, वे अधिकांश में दु:खी ही रहते हैं और जो व्यक्ति दगाबाजी व बेईमानी करते हैं वे मौज—मजे में रहते हैं; इस का क्या कारण है ?
पहली बात तो यह है कि यह कोई नियम नहीं है कि ईमानदार व परिश्रमी व्यक्ति सदैव दु:खी ही हो और दगाबाज व बेईमान व्यक्ति सदैव सुखी ही हो; परन्तु कभी—कभी ऐसा देखा अवश्य जाता है। जो व्यक्ति ईमानदार व परिश्रमी होते हुए भी दुखी है, वह अपनी ईमानदारी व परिश्रम के कारण दुखी नहीं है, अपितु अपने पिछले जन्मों में किये हुए पापों के कारण दु:खी है, जिनका फल उसको इस जन्म में मिल रहा है।
इसी प्रकार जो व्यक्ति दगाबाज व बेईमान होते हुए भी सुखी हैं, वे अपनी दगाबाजी व बेईमानी के कारण सुखी नहीं हैं, अपितु अपने पिछले जन्मों के पुण्यकर्मों के कारण सुखी हैं, जिनका फल इनको इस जन्म में मिल रहा है। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि ईमानदार व परिश्रमी को अच्छा फल नहीं मिलेगा अथवा दगाबाज और बेईमान व्यक्ति को अपनी वर्तमान में की जा रही दगाबाजी व बेईमानी का बुरा फल नहीं मिलेगा।
उनको अपने—अपने अच्छे व बुरे कार्यों का फल अवश्य मिलेगा। उन कार्यों का एक अणुमात्र अंश भी बिना फल दिये व्यर्थ नहीं जायेगा। परन्तु एक साधारण व्यक्ति को यह मालूम नहीं होता कि वह फल कब और किस रूप में मिलेगा।
इस विषय में एक गीत भी प्राय: लोग गाते हैं—
इस भव में नहीं मिलता, तो परभव में मिलता है।
अपनी—अपनी करनी का फल, सबको मिलता है।।
इस तथ्य को और अधिक स्पष्ट करने के लिये कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं—
एक व्यक्ति के कुछ रूपये बैंक में जमा हैं। जब तक उस व्यक्ति के खाते में बैंक में रुपये मौजूद हैं, तब तक बैंक वाले उसके प्रत्येक चैक का भुगतान करेंगे; चाहे वह व्यक्ति वह रुपया अपनी आवश्यकताओं के लिये निकाल रहा हो, चाहे दूसरों की भलाई के लिए निकाल रहा हो और चाहे वह बुरे कार्यों पर व्यय करने के लिये निकाल रहा हो। बैंक को इस बात से कोई सरोकार नहीं है। वर्तमान में वह व्यक्ति धन उपार्जन करने के लिये कोई कार्य करे या न करे, वह अपने जमा किये हुए धन को मितव्ययता से खर्चे या फिजूलखर्ची में व्यय करें, जब तक बैंक में उसका धन उसको उपलब्ध होता रहेगा।
इसके विपरीत, यदि उसके पास पिछला जमा किया हुआ धन न होता, तो उसको अपनी वर्तमान आय पर ही निर्वाह करना पड़ता; चाहे उस आय में वह सुखपूर्वक रहता या दु:खपूर्वक। यदि उसके ऊपर कुछ ऋण भी होता, तो उसकी वर्तमान आय का कुछ भाग या सारी ही आय पिछला ऋण चुकाने में व्यय हो जाती और वर्तमान में उसे अपनी वर्तमान आय के बावजूद और भी बुरी दशा में रहना पड़ता।
इस उदाहरण में हम बैंक में जमा धन के स्थान पर ‘‘अपने पूर्व में किये हुए अच्छे कर्म’’ और ऋण के स्थान पर ‘‘अपने पूर्व में किये हुए बुरे कर्म’’ लगा लें, तो हमें जीवन में अकारण ही जो सुख व दु:ख मिलते हुए दिखते हैं, उनका कारण भलीभाँति समझ में आ जायेगा।
यह तो हमारी पराधीनता है कि जब तक यह संसार भ्रमण है तब तक देह में ‘देही’ या ‘शरीरधारी’ बनकर रहना ही होगा। और जब तक देह में रहेंगे तब तक निरन्तर कर्म का बंध करना ही होगा। परन्तु एक विकल्प है। अशुभ कर्म ही बाँधते रहना है या कुछ शुभ का अर्जन भी करना है ? बहुत भारी ही बाँधते रहना या कुछ हल्का—फुल्का बाँध कर भी समझौता करते चलना है, यह हमारे वश में है। इस पर हमारी मरजी चल सकती है।
बस, संत कहते हैं कि यही वह संधि है जहाँ से कर्म की पराजय और जीव की विजय—यात्रा का प्रारम्भ होता है। जिसने इस रहस्य को समझ लिया और उस पद्धति को अंगीकार कर लिया, उसकी दिशा और दशा दोनों बदल जाती हैं। वहीं से उसका आत्म—उत्कर्ष प्रारम्भ हो जाता है। यहीं से उसके कर्मों का भार कम होने लगता है और उनमें उज्वलता आने लगती है।
भविष्य के लिये हमें बुरा कर्म ही बाँधते जाना है या कुछ अच्छा भी बाँधना है, यह बहुत हद तक हमारे हाथ की बात है। यदि बुरा नहीं बाँधना है तो मन, वाणी और शरीर को, अपने सारे संसाधनों को, अशुभ से हटाकर शुभ की ओर लगा दें। पाप कार्यों को त्याग कर पुण्य कार्यों में लग जायें। जितना शुभ का अर्जन होगा नियम से उतने काल तक बँधने वाले अशुभ से हम बच सकेंगे।
पुण्य की कमाई करते समय अशुभ स्वयमेव छूटता या कम होता जायेगा। जब चिन्तन करें तब किसी का बुरा न सोचें। सबके लिये, अपने शत्रु के लिये भी, शुभ का ही चिन्तन करें। जब बोलें तो ऐसी वाणी न बोलें जो किसी को आघात पहुँचाती हो। किसी में कलह और अशान्ति उपजाती हो या जिससे हिंसा, वैर, विरोध और अशांति का जन्म होता हो।
अपने शरीर से और अपने साधनों से कोई ऐसा काम न करें जिससे किसी की हिंसा या हानि होती हो, जिससे समाज में या देश में अव्यवस्था पैâलती हो या किसी को कष्ट पहुँचता हो। कुछ ऐसे काम करते चलें जिससे संसार में सराहना हो, जिससे लोकोपकार की कोई परम्परा चले। जो व्यक्ति से लगाकर समष्टि तक स्व—पर—हित का साधक हो। प्रत्येक प्राणी कर्म करने में स्वतन्त्र है।
किन्तु कर्म का फल भोगने में पराधीन है, अत: शुभ कर्म करना चाहिए और अशुभ कर्मों से बचना चाहिए तथा अशुभ कर्म के दु:खद फल को समता भाव से भोग लेना चाहिए, ताकि नवीन कर्म बन्ध ना हो। दुर्लभ मानव जीवन प्राप्त कर मानवीय कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए समाज और देश के उत्थान में योगदान देना चाहिए। जो व्यवहार आप अपने प्रति नहीं चाहते, वह दूसरों के प्रति भी ना करें।
इस प्रकार यद्यपि अनेक तर्कों से आत्मा के पूर्वजन्म—पुनर्जन्म की भलीभाँति सिद्धि होती है, तथापि जो लोग अभी भी शंकालु हैं, उन्हें और भी अधिक अध्ययन और गहरा चिन्तन करना चाहिए।