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(१) दुष्ट को प्रिय वचनों के द्वारा दिया गया हितोपदेश भी व्यर्थ होता है।
(२) दुर्जन बड़े—बड़े दान पाने पर भी शांत नहीं होते।
(३) इस संसार में दुराचारी पर सब कुपित होते हैं।
(४) कार्य हो चुकने पर समय गंवाना व्यर्थ है।
(५) समय के प्रभाव से कोमल भी कठोर बन जाते हैं।
(६) सूर्य के पतन के समय अंधकार की प्रबलता भी हो ही जाती है।
(७) विनाशकाल प्राप्त होने पर प्राणी की बुद्धि नष्ट हो ही जाती है।
(८) बीते हुए दिन फर लौट कर नहीं आते।
(९) जो समय चला गया वह चला ही गया।
(१०) समय का बल पाकर सब बलवान् हो जाते हैं।
(११) बराबरी वालो के साथ संबंध कल्याणकारी होता है।
(१२) सम्यग्दर्शन के बिना मानवों का ज्ञान अज्ञान ही है।
(१३) तीनों में सम्यग्दर्शन के समान कोई रत्न नहीं।
(१४) समस्त भावों में सम्यक्त्व ही उत्कृष्ट तथा निर्मलभाव है।
(१५) सम्यग्दर्शन की हानि होने पर जन्म–जन्म में दु:ख प्राप्त होता है।
(१६) सम्यग्दर्शन से नि:सन्देह ऊध्र्वगति मिलती है।
(१७) सम्यग्दर्शनरूपी रत्न साम्राज्य से भी दुर्लभ है।
(१८) मिथ्यात्व से मोहित जीव धर्म पर श्रद्धा नहीं करते।
(१९) प्रगाढ़ मिथ्यात्वी मूढ़ कोई भी कुकृत्य कर सकते हैं।
(२०) मिथ्यात्व रोग से दूषित व्यक्ति को धर्मरूपी औषधि नहीं रूचती।
(२१) मिथ्यात्व जैसा पाप न हुआ है और न होगा।
(२२) ऋषि वे हैं जो परिग्रह अथवा याचना की चाह नहीं रखते।
(२३) मुनियों के मन अनुकम्पा से युक्त होते हैं।
(२४) राग—द्वेष रहित श्रमण ही पुरुषोत्तम है।
(२५) सारे सुख उन्हें ही प्राप्त हैं जो श्रमण हो गये हैं।