अच्छा भाग्य हमारे अच्छे पुरुषार्थ का ही फल है, अत: हमें सदैव अच्छा पुरुषार्थ ही करते रहना चाहिए। परन्तु हम भाग्य के भरोसे ही नहीं बैठे रहें। यदि हमारा भाग्य अच्छा है, तो हमें उसका अच्छा फल अवश्य ही मिलेगा। परन्तु यदि हमारा भाग्य अच्छा नहीं है, तो भी हमें अपने द्वारा वर्तमान में किये जा रहे अच्छे पुरुषार्थ का कुछ न कुछ अच्छा फल तो अवश्य ही मिलेगा। हमें यह समझ लेना चाहिए कि हमारे किये हुए पुरुषार्थ का एक अंश भी व्यर्थ नहीं जाता। हमें उसका शत-प्रतिशत फल मिलता है। परन्तु वह कब और किस रूप में मिलता है, (अल्पज्ञ होने के कारण) यह हम नहीं जान पाते।
इसके साथ-साथ हमें यह भी समझ लेना चाहिए कि हमें किसी भी स्थिति में भाग्य के भरोसे नहीं बैठे रहना चाहिए। जो व्यक्ति भाग्य के भरोसे बैठे रहते हैं, वे किसी आकस्मिक सहायता की प्रतीक्षा करते बैठे रहते हैं और उनके लिए अपना लक्ष्य प्राप्त करना असंभव नहीं, बहुत कठिन अवश्य ही हो जाता है। भाग्य के आश्रय बैठे रहना तो स्वयं ही अपने विनाश को बुलावा देने जैसा ही है क्योंकि हमें यह तो पता ही नहीं होता कि हमारे भाग्य में क्या है ? पुरुषार्थ करने वाली चींटी धीरे-धीरे चली हुई भी मीलों दूरी तय कर लेती हैं। परन्तु भाग्य के भरोसे बैठे रहने वाला गरुड़ पक्षी (यह पक्षी बहुत तेज उड़ता है) एक पग भी आगे नहीं बढ़ सकता।
वर्तमान में हमारा पुरुषार्थ यही होना चाहिए कि भूतकाल में किये हुए अपने अच्छे व बुरे पुरुषार्थ का फल हम समतापूर्वक भोगते रहें (बुरा फल मिलने पर हम हाय-हाय न करें और अच्छा फल मिलने पर हम गर्व न करें।)
इसके साथ-साथ हम इतना ध्यान अवश्य रखें कि हमारे लक्ष्य अच्छे हों और उन लक्ष्यों को प्राप्त करने के साधन भी अच्छे हों। हमारे कार्यों से किसी भी प्राणी को प्रत्यक्ष रूप से अथवा अप्रत्यक्ष रूप से किसी भी प्रकार का कष्ट मिलने की संभावना न हो। हम सदैव दूसरे प्राणियों की भलाई करते रहने की भावना और तदनुसार प्रयत्न करते रहें। यह भी संभव है कि हमारा वर्तमान का अच्छा पुरुषार्थ हमारे भूतकाल में किये हुए बुरे पुरुषार्थ के फलस्वरूप मिलने वाले बुरे फल की तीव्रता ही कुछ कम कर दे।
इस प्रकार ऊपर किये गये विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि जीवन में भाग्य व पुरुषार्थ दोनों का ही समान महत्त्व है। परन्तु हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि हमारा वर्तमान का पुरुषार्थ ही हमारे भविष्य का भाग्य निर्माता है।
अच्छे व बुरे पुरुषार्थ का अन्तर बतलाने के लिए हम कुछ उदाहरण देते हैं-
(१) सैनिक अपने देश व देशवासियों की रक्षा करने के लिए शत्रुओं से युद्ध करने जाते हैं। युद्ध में हर समय उनकी जान जोखम में रहती है। युद्ध में कुछ सैनिक मर भी जाते हैं और कुछ सैनिक घायल व अपंग भी हो जाते हैं।
दूसरी ओर चोर व डाकू चोरी करने व डाका डालने के अभिप्राय से जाते हैं। उनकी जान भी हर समय जोखम में रहती है। केवल चोरी करते व डाका डालते हुए ही नहीं, अपितु उनके मन में हर समय ही यह भय रहता है कि कहीं पुलिस उनको पकड़ न ले तथा कहीं पुलिस से उनकी मुठभेड़ न हो जाये।
सैनिक भी और चोर व डाकू भी सभी अपनी-अपनी जान जोखिम में डालते हैं। देखा जाये, तो ये भी सभी एक जैसा ही पुरुषार्थ करते हैं, परन्तु सैनिक का पुरुषार्थ अच्छा पुरुषार्थ माना जाता है, जबकि चोरों व डाकुओं का पुरुषार्थ बुरा पुरुषार्थ माना जाता है। इन सबको अपनी-अपनी भावनाओं के अनुसार ही अच्छा व बुरा फल मिलता है। यह तो सर्वविदित ही है कि सैनिकों का सर्वत्र सम्मान किया जाता है और उनको पुरस्कार दिये जाते हैं, जब कि चोरों व डाकुओं का सब जगह अपमान किया जाता है और उन्हें दण्ड दिया जाता है।
इसी प्रकार विद्यालयों के कुछ शिक्षक अपनी नियमित कक्षाओं में तो जानबूझकर समुचित पढ़ाई नहीं कराते और जब विद्यार्थी पढ़ाई में पिछड़ जाते हैं तो वे शिक्षक उन विद्यार्थियों को ट्यूशन से पढ़ाते हैं, जिससे उनको पर्याप्त आय हो जाती है। शिक्षकों का यह व्यवहार बुरा पुरुषार्थ माना जायेगा।
इसी प्रकार कुछ सरकारी कर्मचारी जनता के प्रति अपना कर्त्तव्य नहीं निभाते। वे जन साधारण को जानबूझकर परेशान करते हैं जिससे उन्हें रिश्वत लेने के अवसर मिल सकें। क्योंकि जितना अधिक वे जनता को परेशान करेंगे, उनको उतनी ही अधिक रिश्वत मिलने की संभावना होगी। यह भी बुरा पुरुषार्थ है।
यदि हम अपने अच्छे लक्ष्य प्राप्त करने के लिए भी बुरे साधन अपनाने लगें, तो हजारों वर्षों से प्रतिष्ठित जीवन-मूल्यों का ह्रास हो जायेगा, समाज का नैतिक पतन हो जायेगा और भ्रष्टाचार अपनी चरम-सीमा पर पहुँच जायेगा, जिसके बुरे परिणाम केवल कुछ व्यक्तियों को ही नहीं, अपितु समस्त देश को भुगतने पड़ेंगे। यदि हमें ऐसी परिस्थितियों से बचना है, तो यह नितान्त आवश्यक है कि हमारे लक्ष्य अच्छे होने के साथ-साथ उनको प्राप्त करने के साधन भी अच्छे ही हों।
हमें यह भली प्रकार समझ लेना चाहिए कि झूठ की पगडंडियों के द्वारा सत्य के लक्ष्य पर कभी नहीं पहुँचा जा सकता।
हमें यह समझ लेना चाहिए कि मनुष्य केवल भाग्य के हाथ की कठपुतली मात्र नहीं है। वर्तमान में हम जो कार्य कर रहे हैं, उस पर हमारा स्वयं का नियत्रंण है। चाहे वैâसी भी परिस्थितियाँ हों, हम अच्छे साधन भी अपना सकते हैं और बुरे भी। यह हमारे ज्ञान व विवेक पर निर्भर करता है कि हम कैसे साधन अपनाते हैं।
इसी प्रकार भूतकाल में किये हुए अच्छे कर्मों के फलस्वरूप यदि किसी व्यक्ति को धन प्राप्त होता है, तो भाग्य उसको यह नहीं कहता कि यह धन अच्छे कार्यों में खर्च कर या बुरे कार्यों में। यह निर्णय तो वह व्यक्ति स्वयं ही अपने ज्ञान व विवेक से करता है कि वह उस धन को किन कार्यों पर खर्च करे। वह उस धन को परोपकार में भी खर्च कर सकता है, वह उस धन को अपनी और अपने परिवार वालों की आवश्यकताओं पर भी खर्च कर सकता है, वह उस धन को मदिरापान, मांस-भक्षण, व्यभिचार तथा अन्य बुरे कार्यों पर भी खर्च कर सकता है। हाँ, जिन भावनाओं से और जिन कार्यों पर वह धन को खर्च कर रहा है, यही उसका अच्छा व बुरा पुरुषार्थ है, जिसका अच्छा व बुरा फल उसको अनिवार्यरूप से भोगना पड़ेगा।
प्रत्येक व्यक्ति को उसके अपने द्वारा भूतकाल में किये हुए बुरे कार्यों के फलस्वरूप ही कष्ट मिलता है। यह उस व्यक्ति के ज्ञान व विवेक पर निर्भर करता है कि वह उस कष्ट को किस प्रकार सहन करता है। वह उस कष्ट को अपने ही द्वारा किये हुए बुरे कार्यों का फल जानकर समता व धैर्यपूर्वक भी सह सकता है, वह उस कष्ट को हाय-हाय करके और शोर-मचाकर भी सह सकता है, तथा वह उस कष्ट को किसी अन्य व्यक्ति (जिसके निमित्त से वह कष्ट मिला है) के द्वारा दिया हुआ समझकर, उस व्यक्ति के प्रति अपने मन में दुर्भावनाएं उत्पन्न करता हुआ भी सह सकता है। कष्ट तो उसको अनिवार्यरूप से सहना पड़ेगा ही। हाँ, वैâसी भावनाओं के साथ वह व्यक्ति यह कष्ट सहता है, यही उसका अच्छा व बुरा पुरुषार्थ है। जैसी भावनाओं के साथ वह व्यक्ति यह कष्ट सहेगा। उन्हीं भावनाओं के अनुसार उसके नये कर्मों का संचय होगा, जिनका अच्छा व बुरा फल उसको भविष्य में भोगना पड़ेगा।
अनादिकाल से अनन्त सुपुरुषार्थ सम्पन्न जीव प्रबल दैव के आधीन होकर संसार में परिभ्रमण कर रहा है। जब तक असम्यक् पुरुषार्थ का सिलसिला चलता रहेगा तब तक दैव की प्रचण्ड शक्ति जीव के ऊपर अनुशासन करती रहेगी। जब यह चैतन्य अनंत वीर्य युक्त आत्मा अपने पुरुषार्थ को सम्यक् रूप में परिवर्तित करके जागृत होगी, तब दैव की शक्ति क्षीण होती जायेगी, जैसे घना अंधकार भी प्रचण्ड रश्मि के धारी सूर्य के उदय से विध्वंस हो जाता है उसी प्रकार सम्यक्-पुरुषार्थ के माध्यम से दैव की शक्ति विध्वंस हो जाती है।
सम्यक्त्वी का शुभपुरुषार्थ संसार का कारण नहीं होता है। यदि वह निदान (भाग्य के अधीन में रहने की इच्छा) नहीं करता है, तो वह भाग्य परम्परा से मोक्ष के हेतु होता है।
जितने अंश में सम्यक्त्वपना (पुरुषार्थ) है, उतने अंश में भाग्य की पराधीनता (बंधन) नहीं है और जितने अंश में मिथ्यात्व (असत् पुरुषार्थ) है, उतने अंश में भाग्याधीन बंधन है।
जितने अंश में सम्यग्ज्ञान रूप पुरुषार्थ है उतने अंश में भाग्य की पराधीनता (बंधन) नहीं है और जितने अंश में अज्ञानरूप असत् पुरुषार्थ है उतने अंश में भाग्याधीन बंधन है।
जितने अंश में सम्यक्चारित्र रूप पुरुषार्थ है। उतने अंश में भाग्य की पराधीनता (बंधन) नहीं है और जितने अंश में असम्यक् रूप चारित्र (कुचारित्र) है उतने अंश में दैवाधीन (बंधन) है।
उपरोक्त सिद्धान्तों से अवगत होता है कि यह संसारी जीव अनादिकाल से दैवाधीन है। जब तक आत्मविश्वास, वीतराग-विज्ञान एवं स्व में रमण करने रूप प्रचण्ड पुरुषार्थ को नहीं करता है तब तक वह दैव के अधीन रहता है। जब स्वयं में निहित सुसुप्तशक्तियों को उजागर करके आत्मविश्वास, स्वपर विवेक करके, दैविक शक्ति को नष्ट करने के लिए एवं स्वशक्ति को विकसित करने के लिए पुरुषार्थ करता है, तब दैविक शक्ति क्षीण से क्षीणतर, क्षीणतम होते हुए पूर्ण रूप से विलीन हो जाती है।