ज्ञानी पुरुष धर्म पुरुषार्थ, अर्थ पुरुषार्थ, काम पुरुषार्थ और मोक्ष पुरुषार्थ में से मोक्ष पुरुषार्थ को उत्तम कहते हैं क्योंकि अन्य पुरुषार्थों में परम सुख नहीं है। आलसड्ढो णिरुच्छाहो फलं किंचि ण भुंजदे। थणक्खीरादिपाणं वा पउरुसेण विणा ण हि।।
जो व्यक्ति आलस्य युक्त होकर उद्यम—उत्साह से रहित हो जाता है, वह किसी भी फल को प्राप्त नहीं कर सकता। पुरुषार्थ से ही सिद्धि है, जैसे स्तन का दूध उद्यम करने पर ही पिया जा सकता है। मूलाहिंतो साहाण संभवो होइ सयलवच्छाणं। साहाहि मूलबंधो जेहिं कओ ते तरू विरला।।
सभी वृक्षों के मूल से ही शाखा होती है, किन्तु शाखाओं से मूल (जड़) को मजबूत करते हैं, ऐसे वृक्ष तो विरले ही होते हैं। (जगत् के प्रवाह में बहने वाले तो सभी होते हैं, किन्तु जगत् को अपने प्रवाह में बहाने वाला तो विरला ही होता है।) निब्वडिय पुरिसयारे असच्च संभावना वि संभवइ। एक्काणणे वि सीहे जाया पंचाणणपसिद्धी।।
पुरुषार्थ प्रकट करने पर असम्भव कार्य भी सम्भव लगने लगते हैं। अपने पुरुषार्थ के बल पर ही एकानन सिंह भी पंचानन कहलाता है।