परम पूज्य आचार्य 1०5 श्री वरदत्तसागर हित, उत्थान, पवित्र आदि का नाम कल्याण है । संसार का प्रत्येक प्राणी अपना कल्याण चाहता है क्योंकि सभी के लिए प्रिय है । जो जीव अच्छे कार्य करेगा, पुण्य कार्य करेगा उसी का कल्याण होगा । कल्याण और कल्याण करने वाला कोई नहीं है, स्वयं ही स्वयं का कल्याण करता है । संसार के प्राणी कल्याण तो चाहते हैं परंतु कल्याण का कार्य नहीं करते हैं इसीलिए ये अपना अकल्याण भी आप ही करके चतुर्गतिरूप संसार की चौरासी लाख योनियों में भटकता हुआ नाना प्रकार के दुःखों से दुःखी होता है । इन दुःखों से छुटकारा पाने के लिए संस्कार की अत्यंत आवश्यकता है । करोड़ों, अरबों, खरबों में से काई बिरले ही प्राणी ऐसे हैं कि जो अपने कल्याण के लिए कल्याण का कार्य करते हैं । ऐसे ही जीवों के कल्याणक अपने आप हो जाते हैं । जिसने स्वयं का कल्याण कर लिया है वही पर का कल्याण करने में समर्थ है । जो स्वयं पानी में तैर सकता है वही दूसरों को तैरने की क्रिया सिखला सकता है अथवा तिरा सकता है ऐसे व्यक्ति ही तारण-तरण कहलाते हैं । जिस प्रकार सुवर्णकार सुवर्ण के टुकड़े को गरम करके पिघलाकर सुंदर डिजाइन से सुसंस्कारित करता है तो वही सुवर्ण का टुकड़ा एक सुंदर आभूषण का रूप धारण कर लेता है और कीमती बन जाता है । जौहरी खान के हीरे को कानस से घिस घिसकर पैलू पाड्ता है । उन पैलुओं से उसमें चमक आ जाती है और वह पत्थर भी एक अमूल्य हीरा बन जाता है । मिट्टी को संस्कारित करके कुम्हार सुंदर घट बनाता है तब वह मिट्टी भी कीमती होकर मस्तक पर धारण की है, इसी प्रकार मानव जीवन को संस्कार की अत्यंत आवश्यकता है । जीवन के उत्कर्ष का प्रारंभ मनुष्य पर्याय में ही हो सकता है, अन्य पर्यायों में नहीं । क्योंकि, देवों ‘के पास रूप, ऐश्वर्य, आयु और निरोग रहे हैं, भोगोपभोग की सामग्री की परिपूर्णता है, परंतु भोगों में मग्न रहने वालों के आत्मोत्थान का लक्ष्य ही नहीं है, पुरुषार्थ नहीं है तथा संयम धारण करने की योग्यता भी नहीं है । नरक में भी अति दुःख होने से एवं नित्य अशुभतर लेश्या, परिणाम, देह, विक्रिया के कारण विशुद्ध परिणामों का होना असंभव है । तिर्यंचों को हिताहित के ज्ञन के अभाव में आत्मोत्कर्ष की भावना नहीं होती है । इसलिए आत्मोत्थान का मार्ग मात्रमानव पर्याय में ही संभव है । जन्म-मरण और बुढ़ापा के रोग से मुक्त होना हो तो आत्मकल्याण के योग्य कार्य करना चाहिए । अपने मन को निर्मल बनाना होगा । हमारे जीवन में जो विभिन्न संताप, दुःख, वेदनाएँ जन्म-जरा और मृत्यु के कारण हैं, वे सब नाश होवें; ऐसी हरेक संसार के प्राणी की इच्छा है जिसकी मृत्यु नहीं होगी उसका जन्म भी नहीं होगा, जो मरेगा; वही जन्म लेगा; यह प्राणी जगत् की मान्यता है । गीता में भी कहा है-‘जातस्य मरणं ध्रुव’ जिसका जन्म हुआ है वह अवश्य मृत्यु को प्राप्त होगा । परंतु जैन धर्म कहता है कि ऐसा जरूरी नहीं है कि जिसका जन्म हुआ है उसका मरण अवश्य होगा, परन्तु यह अवश्य सत्य है कि जिसकी मृत्यु हुई है उसका जन्म अवश्य होगा । जन्म लेने के बाद व्यक्ति अपने को सम्हाल सकता है, अपनी मृत्यु पर विजय प्राप्त कर सकता है । जिसने मृत्यु पर विजय प्राप्त कर ली उसको पुन: जन्म लेना नहीं पड़ेगा । वह अपने जीवन में मृत्यु को पराजित करे, मृत्यु का महोत्सव मनाकर सहर्ष सामना करे । हर मानव यही कहता कि जीने के लिए किस-किस के साथ लड़ते हैं, झगड़ते हैं, संघर्ष करते हैं- परंतु जीवन पर विजय प्राप्त करने के लिए किसी अन्य से लड़ना नहीं पड़ता है, स्वयं को स्वयं के स्वभाव के अनुरूप आचरण करने मात्र से ही जीवन पर विजय प्राप्त हो जाती है । जीवन पर विजय प्राप्त करना हो तो सबसे पहले जीवन का प्रारंभ गर्भ से ही होता है । इसलिए सबसे पहले गर्भ के संस्कार की आवश्यकता है । जिन जीवों में जन्म-मरण के दुःख से बचने के लिए पूर्व भवों में स्वकल्याण का पुरुषार्थ किया है, समग दर्शन प्राप्त किया है, उन्हीं का कल्याण स्वर्ग के इंद्रगण-देवगण करते हैं । अत्यंत वैभव पूर्वक उत्सव मनाते है । ऐसे उत्सव मनाने के अवसर एक जीव के मानव पर्याय में पाँच बार आते हैं गर्भ, जन्म, तप, शान और निर्वाण । गर्भ कल्याणक यह संस्कार की पृष्ठभूमि है, जन्म कल्याणक अभूत्थान का प्रारंभ है, तप कल्याणक पुरुषार्थ की साधना है, ज्ञान कल्याणक कैवल्य की प्राप्ति है और मोक्षकल्याणक निर्वाण पद-परम पद कृतकृत्यता की प्राप्ति है । गर्भस्थ बालक पर संस्कार की अत्यंत आवश्यकता है । माता अपने अच्छे संस्कारों से बालक को उसी ढाँचे में ढाल सकती है । जैसे मूर्तिकार पिता की मूर्ति को बनाते समय पीतल को अग्नि के ताव से पतला करके मूर्ति के ढाँचे में ढाल देता है और फिर कुछ ही घंटों में वह पीतल का रस मूर्ति के आकार को प्राप्त हो जाता है । कुंदकुंद जी की माता मदालसा ने अपने गर्भस्थ बालकों पर शुद्धात्मा का, सिद्धात्मा का संस्कार डाला था तो वे सातों ही पुत्र आठ वर्ष की अवस्था में ही दिगंबर मुनि बनकर आत्म कल्याण में लग गए । माता के आचार-विचार, खानपान, चालचलन, बोलचाल, इत्यादि का प्रभाव गर्भस्थ बच्चे पर अवश्य पड़ते हैं । इसलिए माता का गर्भ ही बालकों के संस्कार की पृष्ठभूमि है । अगर गर्भ में अच्छे संस्कार रहे तो जीवन का आचरण भी अच्छा रहेगा । इसी हेतु से जिनको तीन लोक का कल्याण करना है, जिनके द्वारा तीन लोक का कल्याण होना है उनके संस्कार अगर अच्छे नहीं हुए तो वे कदापि तीन लोक का कल्याण नहीं कर सकते । गर्भ में आने के पहले ही नगर शोधन, गर्भ शोधन होता है, नगरी की स्वच्छता नगरी का दारिद्र, दुःख दूर करने के लिए इंद्र कुबेर के द्वारा रलवृष्टि करवाता है । माता का मन मलिन न हो इसलिए 56 कुमारिकाएँ परिचर्या करती है । महल में हर प्रकार की सुख सुविधा तथा वास्तु विधि के अनुकूल रचना, विधि पूर्वक महल का निर्माण, मंत्रसंस्कार, शुभ विचार, शुभ शब्द ही माता के कानों पर पड़े, कहीं रोना-धोना आदि के शब्द कानों पर नहीं पड़ें, जिससे कि माता के मन में चंचलता, कलुषता, रागद्वेष उत्पन्न नहीं हो; इस प्रकार का लक्ष्य रखते हुए ही देवगण भगवान् का गर्भकल्याणक उत्सव मनाते हैं । वैसे तो इस जीवात्मा ने अनादिकाल से अनादिसंसार में चतुर्गतियों की चौरासी लाख योनियों में अनेक बार जन्म मरण लिया है । ऐसी एक योनि शेष नहीं बची है कि जिसमें इसने जन्म नहीं लिया है फिर इसी गर्भ और जन्म की इतनी विशेषता क्यों है? ऐसी आशंका उत्पन्न होना सहज है ।
जन्म कब होगा? मरण होने पर ही जन्म होगा । जैन सिद्धांत में तीन प्रकार का जन्म बताया है-
(1) उपपाद जन्म (2) समर्चन जन्म और (3) गर्भ जन्म ।
इनमें से उपपाद जन्म तो वह जो देव-नारकियों के होता है; जहाँ बाल और वृद्धावस्था नहीं होती तथा जन्म-मरण के दुःख भी नहीं होते । समवन जन्म एकेन्विय से चार इन्द्रिय तक के जीवों का होता है । अपने योग्य अनुकूल शीत उष्णता के प्राप्त होने पर होता है । गर्भ जन्म जो कि मनुष्य तिर्यंचों को होता है । जो माता-पिता के रज-वीर्य से होता है, तथा नौ माह तक गर्भ में अत्यंत संकीर्ण स्थान में अंगों को सिकुड़कर औंधे लटके रहना और माता के उच्छिष्ट को खाकर गर्भवास का काल व्यतीत करना यह तो गर्भावस्था की वेदना है और जन्म की वेदना भी अति भयंकर है । जैसे कि जंत्री से तार निकलता है उसी प्रकार गर्भ से जीव का जन्म होता है इसलिए गर्भ और जन्म की वेदना असह्य वेदना है । ऐसी गर्भ और जन्म की वेदनाओं से रहित होने के कारण इन्द्र तथा देवगण तीर्थकर बालक का गर्भ और जन्म कल्याणक मनाता है । और दूसरी बात यह भी है कि अब इसके बाद उन्हें पुन: किसी गर्भ में नहीं आना है यह तो अंतिम गर्भ है । संसार में कोई भी कार्य विशेष रूप से मनाया जाता है तो वह या तो आदि में या अंत में ही मनाते हैं परंतु संसारी प्राणी का आदि गर्भ कौन सा था और कब हुआ था इसको कोई नहीं जान सकता, कि जिससे उसका उत्सव मनाया जावे । तथा आदि गर्भ के उत्सव से तो वह जीव संसार में ही भटकेगा, दुःखी होगा, इसलिए उसका कोई महत्व नहीं है । परंतु अंतिम गर्भावस्था का उत्सव मनाने में यह आनंद है कि अब वह पुन: गर्भ के दुःखों के सहन करने के लिए किसी गर्भ में नहीं आवेगा । धन्य है वह गर्भ कि जिसके बाद गर्भ के दुःख पुन: न भोगना पड़े । इसीलिए इन्द्र स्वयं यह गर्भ कल्याणक का उत्सव मनाता है । क्योंकि संसार में बिरले ही ऐसे प्राणी है कि जिन्होंने अपने कल्याण का कार्य किया है । वास्तव में वही सयाना है । मानतुंग आचार्य ने कहा है कि सैंकड़ों पुत्रों के जन्म देने की बजाय एक ही गुणी पुत्र को जन्म देना श्रेयस्कर है । जिस प्रकार आकाश में अनगिनत ताराएँ एवं नक्षत्रों के रहने पर भी वह प्रकाश नहीं होता है जो कि प्राची दिशा के सूर्य के द्वारा होता है । इसलिए वह माता अत्यंत श्रेष्ठ तथा धन्य है कि जिसने ऐसे महान् बालक को जन्म दिया है, जो कि तीन लोक का कल्याण करेगा । जब ‘जिन’ बालक का जन्म होता है तब तीनों लोकों में आनंदमय वातावरण हो जाता है । यहाँ तक कि नरक में भी उस समय सुख और आनंद होता है नैसर्गिक वातावरण अत्यंत रमणीक हो जाता है, संख्यात योजन तक वन प्रदेश असमय में ही पत्रों और फूल-फलों से परिपूर्ण समृद्ध हो जाता है, सुखदायक सुगंधित मंद पवन का संचार होता है, जीव परस्पर वैरभाव छोड्कर मैत्रीभाव से युक्त होते हैं । प्रभु का जन्म होते ही भवनवासी देवों के यहाँ शंख ध्वनि, व्यंतर देवों के यहाँ भेरी नाद, ज्योतिषी देवों के यहाँ सिंहनाद और कल्पवासी देवों के यहाँ अपने आप घंटानाद बजने लगता है । यह सब प्रभु के जन्म की सूचना होती है, कल्पवृक्षों से अपने आप पुष्पवृष्टि होने लगती है, दुन्दुभियाँ (वाद्य) बिना बजाए ही बजने लगती है, सौधर्म इन्द्र का आसन कंपायमान होता है, मुकुट झुक जाता है; इत्यादि नाना प्रकार की आसुर्यकारक घटनाएँ देवों के यहाँ होती हैं । बड़े ही उत्साह पूर्वक सौधर्म इन्द्र-इन्द्राणी ऐरावत हाथी पर बैठ कर जन्म नगरी में ‘जिन’ बालक को देखने के लिए एवं जन्मोत्सव मनाने के लिए चतुर्णिकाय देवों के साथ आता है । भक्ति भाव से तीन प्रदक्षिणा लगाकर इन्द्राणी जिन बालक को लाने के लिए प्रसूति गृह में जाती है, सबसे पहिले जिन बालक के दर्शन और स्पर्श करने का सौभाग्य शची इन्द्राणी को मिलता ही है । प्रभु के स्पर्श भाव से ही शची इन्द्राणी का सीलिंग छेदन हो जाता है और अगले ही भव में वह मोक्ष प्राप्त करती है । इतना महान् पुण्य संचय केवल प्रभु के स्पर्श से ही होता है । इन्द्राणी माता को तीन प्रदक्षिणा देकर माता के ०० कृत्रिम बालक को रखकर जिन बालक को उठा लेती है । ८’ आनंद और सुख का अनुभव करती है एवं इंद्र को लाकर ‘ है । इंद्र जिन बालक को अपने दो नेत्रों से देखकर तृप्त ‘ होता है । हजारों क्षणों तक टकटकी लगाकर देखता ही रहता है । फिर ऐरावत हाथी पर जिन बालक को अपनी गोद में ० बैठता है । ईशान इंद्र प्रभु के सिर पर छत्र लगाता है, ३५ कुमार, महेन्द्र इंद्र प्रभु के दोनों ओर चमर ढोरते हैं, और छप सभी इंद्रगण एवं देवगण जय-जयकार शब्द करते हुए ‘ बालक को पांडुकशिला पर ले जाते हैं । इन्द्रगण प्रभु के क्षत- के लिए पंचम समुद्र क्षीरसागर का जल लाता है जो कि दूध ० समान ही है तथा उसमें किसी प्रकार जलजन्तु आदि नहीं रहते हैं; ऐसे जल से भरे हुए स्वर्णनिर्मित 1००8 कलशों से अभिषेक स्वयं सौधर्म और ईशान इंद्र करते हैं । वे स्वर्णनिर्मित कलश कितने बड़े थे? एक एक कलश 18 योजन गहरा, चार योजन मोटा और मुख पर एक योजन चौड़ा था । अर्थात् वर्तमान के माप से एक योजन माने चार कोश है । और एक कोश 2 मील के बराबर है अर्थात् तीन किलोमीटर, आप विचार करें कि कितना गहरा कलश होगा । आठ योजन अर्थात् 96 किलोमीटर का गहरा, अड़तालिस किलोमीटर का चौड़ा और बारह किलोमीटर के मुख वाला एक-एक कलश था । आज इतना बड़ा तो कोई डैम या बाँध भी दिखाई नहीं देता है । इसने बड़े-बड़े 1००8 कलशों से भगवान् का अभिषेक किया जाता था । करोड़ों देवों की क्षीरसागर से पाँडुकशिला तक पंक्ति लग जाती है, कलश लाए जाते हैं । जन्मजात शिशु पर इतने बड़े-बड़े 1००8 कलशों से लगातार अभिषेक करने पर बालक कैसे सहन करेगा; ऐसी शंका होना स्वाभाविक है । परंतु भगवान् का शरीर तो वज वृषयनाराच उत्तम संहनन वाला होता है । भगवान् के शरीर में भी अतुलबल होता है । सहज सहन हो जाता है ।
प्रभु जन्म से ही दस अतिशय प्रगट होते हैं जो कि अन्य साधारण जनमानस को प्राप्त नहीं है ।
(1) स्बें रहित निर्मल शरीर (2) दुग्ध सदृश धवल रुधिर, (3) वज वृषभनाराच संहनन, (4) समचतुरख संस्थान (5) अनुपम रूप (6) नवीन चंपक की उत्तम गंध सदृश सुगंधित देह (7) एक हजार आठ उत्तम लक्षणों से युक्त शरीर का होना (8) अतुल बल और (9) हित मित मृदु मधुर भाषण; ये दस अतिशय जन्म से ही तीर्थकरों के पाए जाते हैं । भगवान् के सुंदर रूप के समान जगत् में अन्य और किसी का वैसा रूप क्यों नहीं पाया जाता है इसके लिए भक्तामर स्तोत्र में श्री मानतुंग आचार्य ने कहा है कि-
यै : शांतरागरुचिभि : परमाणुभिक्च, निर्मापितखिन्दुवनैवन ललामभूत ।
तावन्त एव खलु तेउध्यणव: पृथिव्यां, टात्ते समानमपर न हि रूपमाह्वी । ।
ये तीन भुवन के ललामभूत जिनेन्द्र भगवान्! जिन शांतराग रुचि से युक्त परमाणुओं ने आपके शरीर का निर्माण किया गया है, वे परमाणु इस पृथ्वी पर उतने ही थे, इससे अधिक नहीं, इसी कारण से आप के समान रूप अन्य और किसी का नहीं है । जन्माभिषेक के पश्चात् इंद्राणी प्रभु शरीर को पोंछकर शृंगारित करती है । इंद्र प्रभु का नामकरण करता है । प्रभु जिन बालक के अंगूठे में अमृत-रस भर देता है । बालक माता का दूध नहीं पीता है । इन्द्र भाव-विभोर होकर आनंद नृत्य करता है तथा पुन: जिन बालक को हाथी पर बैठाकर जन्मनगरी की ओर चल पड़ता है । उस समय का वर्णन संक्षेप में करते हैं कि वह उत्सव कैसा था? वह ऐरावत हाथी एक लाख योजन वाला विशाल काय था । श्वेत शुभ्र वर्ण का था । इस हाथी के बत्तीस मुख होते हैं, एक एक मुख के आठ-आठ दाँत होते हैं, एक-एक दाँत पर एक-एक सरोवर होता है, एक-एक सरोवर में एक-एक कमलिनी होती है, एक-एक कमलिनी में बत्तीस-बत्तीस पांखुड़ियाँ होती हैं और एक-एक पांखुड़ियों पर एक-एक देवांगनाएँ नृत्य करती हैं । इस प्रकार और भी हाथी, घोड़े, रथ, बैल, विद्याधर, गंधर्वदेव इत्यादि के समूह से परिपूर्ण अत्यंत उत्साह से वैभव पूर्वक जयजयकार करते हुए सभी देवगण इन्द्र सहित जन्म नगरी में पुन: आते हैं । इंद्र जिन बालक को पिता को सौंपता है, माता-पिता की पूजा करता है और भाव भक्ति विभोर होकर तडिव नृत्य करता है और जयजयकार करते हुए निज स्थान पर जाता है । इंद्र शिशु बालक के साथ खेलने के लिए देवकुमारों को भेजता है तथा वसाभरण भी स्वर्ग से ही भेजता है और खाद्य भोजन पान भी कल्पवृक्ष से निर्मित ही भेजता है । इसका कारण है कि प्रभु को कुमित्रों की संगति से खोटी आदतें ना पड़े एवं अन्न पान का असर शरीर और मन पर पड़ता है इसलिए शरीर निरोग रहे एवं मन हमेशा पवित्र रहे जिससे अशुभ कर्मों का आसव नहीं होवे । इसलिए, जब तक दीक्षा नहीं लेते है तब तक इंद्र स्वयं सब-कुछ स्वर्ग से ही भेजता है और मन में आनंदित होता है कि यह सब पुण्य का कार्य प्रभु की सेवा का लाभ मुझे ही प्राप्त होवे । जिनराज जब जगत की असारता, अनित्यता का चिंतन करते हैं तब पुरुषार्थ की साधना प्रारंभ होती है । लोकांतिक देव उनके वैराग्य की पुष्टि के लिए आकर प्रभु की स्तुति करते हैं । इंद्र तत्काल प्रभु की सेवा में हाजिर होता है, रत्न सुवर्णमई पालकी लेकर और जय जयकार करते हुए प्रभु को वन में ले जाते हैं । वहाँ पर प्रभु पंचमुष्टी केशलोंच करके वसाभरण का त्याग करता है । इन्द्र अपने प्रभु के बालों को रत्न पिटारे में रखकर क्षीर समुद्रं में सिरा देता है, इस प्रकार प्रभु का दीक्षा महोत्सव आनंद से संपन्न करता है । दीक्षा लेने तक तो सारी व्यवस्था इंद्र के द्वारा ही होती है परंतु अब दीक्षा के बाद केवलज्ञान होते तक इंद्र कुछ नहीं कर सकता । दीक्षा के बाद ही प्रभु प्रथम पृथ्वी का अत्र पान ग्रहण करते हैं इसलिए प्रभु को प्रथम आहार देने वाला भी महान् भाग्यशाली एवं तद्भव मोक्षगामी जीव ही होता है । संसार के दुःखों से मुक्ति प्राप्त करने हेतु मानव को राग से विराग की ओर बढ़ना है । जैसे-जैसे उसका राग कम होता जाएगा वैसे-वैसे उसे शारीरिक और मानसिक शांति और सुखकर अनुभव होना प्रारंभ हो जाएगा । राग समाप्त होने की स्थिति में ही उसे पूर्ण सुख की प्राप्ति हो सकती है । धन-दौलत जमीन-जायदाद, पुत्र-मित्रादि परिवार मेरे हैं ऐसी ममस्ववुद्धि ही तीव्र कर्मबंध का कारण बनती है । लौकिक दृष्टि से भी रागात्मक बुद्धि जनकल्याण के कार्य करने में भी अवरोध उत्पत्र करती है । रागविहीन दृष्टि से किया गया कार्य जनकल्याण के साथ आत्मकल्याण का भी कारक होता है । इसीलिए प्रभु ने सबसे पहले रागरहित होने का प्रयत्न किया और यही प्रयत्न पुरुषार्थ साधना की सिद्धि में सहायक हुआ । राग आग के समान है, दाह उत्पन्न करती है, संताप उत्पन्न करती है । संताप अनंत संसार का कारण है । इसलिए संसार की जड़ जो राग परिणाम है उन्हें ही सबसे पहले नष्ट करना चाहिए । इस प्रकार प्रभु दीक्षा लेने के बाद ध्यानावस्था में सतत चिंतन करते हैं और शरीर के ममत्व को हटाते हैं । तभी तो पुरुषार्थ का फल, पुरुषार्थ की -साधना की सिद्धि रूप कैवल्य की प्राप्ति होती है । चारों घातिया कर्मों का नाश होने पर आत्मा के मुख्य गुण अनंत चतुष्टय की उपलब्धि हो जाती है । संपूर्ण चराचर पदार्थों का एक साथ ज्ञान हो जाता है । दर्पण के समान चराचर पदार्थ उनके गुण और उनकी त्रिकालवर्ती पर्यायें एक साथ दृष्टिगोचर होने लगती है । परमौदारिक शरीर हो जाता है । पृथ्वी तल से (5०००) पाँच हजार धनुष ऊपर आकाश में पहुँच जाता है । कुबेर समवसरण की रचना करता है । सुंदर रत्नमय समवसरण तैयार होता है । उसमें गंधकुटी पर रत्नमय सिंहासन पर प्रभु विराजमान होते हैं । अष्ट प्रातिहार्यों से सहित रहते हैं । दिव्यध्वनि सुनने के लिए 12 कोठे बने रहते हैं । जिसमें कम से मुनि, कल्पवासी देवांगना, आर्यिका सियाँ, भवनवासी देवांगना, व्यंतर देवांगना, ज्योतिषी देवांगना, ज्योतिष देव, व्यंतर देव भवनवासी देव, कल्पवासी देव, राजा, मनुष्य आदि और तिर्यंच पशु-पक्षी इत्यादि बैठते हैं । इस प्रकार बारह सभा से भरा हुआ समवसरण अत्यंत रमणीक और शोभायमान रहता है । वीतराग सर्वज्ञ और हितोपदेशी प्रभु के द्वारा जनकल्याण के लिए निस्वार्थ रूप से सात सौ लघु भाषा एवं अठारह महाभाषा रूप से दिव्यध्वनि निकलती है; जो कि ओष्ठ, तालु जिह्वा आदि के व्यापार से रहित सर्वाग से निकलती है मेघ गर्जना के समान । प्रतिदिन पूर्वाह्न, मध्यान्ह, अपरान्ह और मध्यरात्रि में छ: छ: घटिका पर्यंत दिव्यध्वनि खिरती है । भव्य जीव उसे सुनकर आत्म कल्याण करते हैं । मुक्ति के मार्ग पर अग्रसर होते हैं । दिव्यध्वनि में जीव और अजीव द्रव्य का वर्णन, भेद विज्ञान का वर्णन, बारह भावनाओं का वर्णन, श्रावक धर्म, मुनि धर्म का वर्णन; इस प्रकार का उपदेश मिलता है । प्रभु के विहार के समय इंद्र भक्ति से प्रभु के पैरों के नीचे सुवर्णमय कमलों की रचना करता है तथा दिशा-विदिशा और उन हरेक के बीच में भी दोनों ओर कमलों की रचना करता है । इस प्रकार 225 कमलों की रचना होती है । प्रभु तो वीतरागी हैं एवं स्वतंत्र हैं इसलिए इसी दिशा में विहार करो; ऐसा इंद्र भी नहीं कह सकता है । प्रभु का विहार तो भव्य जीवों के भाग्य पर निर्धारित है । इसलिए प्रभु जहाँ कहीं भी विहार कर सकें; इसी हेतु से इंद्र इतनी दिशाओं में इस प्रकार कमलों की रचना करता है । प्रभु की जब एक महीने की आयु शेष रहती है तब वे योगनिग्रह धारण करते हैं । दिव्यध्वनि बंद हो जाती है । समवसरण का विसर्जन हो जाता है । विहार रुक जाता है और प्रभु एक शिला पर विराजमान होकर आत्मध्यान करते हैं । चतुर्थ शुक्ल ध्यान का प्रारंभ करते हैं । आयु कर्म को छोड्कर शेष तीन अघातिया कर्मों की अधिक स्थिति को आयु कर्म के बराबर करने के लिए समुद्घात करके चारों ही कर्मों का एक साथ क्षय करके पूर्ण रूप से निस्संग हो जाते हैं । स्वतंत्र हो जाते हैं और उसी समय मोक्ष (सिद्धालय) में जा विराजमान होते हैं । निराकार रूप रहते हैं । प्रभु का निर्वाण कल्याणक मनाने के लिए इंद्रगण आते हैं और जहाँ से प्रभु ने निर्वाण पद प्राप्त किया है उस स्थान पर जो प्रभु के नख और केश शेष बचे थे वहाँ आकर उनका अग्निकुमार देव नमस्कार करके अपने मुकुटों के द्वारा अग्नि संस्कार करते हैं और आनंद से साढ़े बारह करोड़ वाद्य बजाकर खुशियाँ मनाते हैं कि इस महान आत्मा ने अपनी आत्मा को कर्मबंधन से मुक्त किया और चिरसुखी बनाया । इस प्रकार पंचकल्याणक महोत्सव इंद्रगण उस चतुर्थ काल में साक्षात् तीर्थकरों के कल्याणक करते थे । भले ही चतुर्थकाल के साक्षात् तीर्थकरों के कल्याणक को हम लोगों ने आँखों से नहीं देखा है परंतु इस पंचमकाल में प्राण प्रतिष्ठा के द्वारा उसी प्रकार के इंद्रादि देव गणों का आगमन, 56 कुमारिकाओं द्वारा परिचारिका के रूप में माता की सेवा करना, कुबेर का नगर रचना, रलवृष्टि, समवसरण रचना इत्यादि क्रियाओं को नाटक के रूप में मनुष्यों के द्वारा की जानेवाली क्रियाओं को देखकर ऐसा लगता है कि साक्षात् तीर्थकर के ही कल्याणक हो रहे हैं । ऐसे पंच कल्याणक को देखकर आज भी उतना ही पुण्यबंध तथा पापों की निर्जरा होती है जितनी कि चतुर्थकालीन साक्षात् तीर्थंकरों के पंचकल्याणक देखने पर होती है । इसलिए पंचकल्याणक को सतत देखना चाहिए ।