श्री पूज्यपाद आचार्यदेव ने अपने ‘अभिषेक पाठ’ के अन्त में जो यक्ष-यक्षी आदि के अर्घ्य चढ़ाने के लिए कहा है, उसका पूरा क्रम और विधि ‘प्रतिष्ठातिलक’ ग्रंथ में उपलब्ध है।
पूजा प्रारंभ विधि में जो क्रिया है वह सब श्री पूज्यपादस्वामी के अभिषेक पाठ के प्रारंभिक श्लोकों के अनुसार ही है सो देखिये-
आनम्यार्हंतमादावहमपि विहितस्नानशुद्धि: पवित्रै:।
तोयै: सन्मंत्रयंत्रैर्जिनपतिसवनाम्भोभिरप्यात्तशुद्धि:।।
आचम्यार्घ्यं च कृत्वा शुचिधवलदुकूलान्तरीयोत्तरीय:।
श्रीचैत्यावासमानौम्यवनतिविधिना त्रि:परीत्य क्रमेण।।१।।
द्वारं चोद्घाट्य वक्त्राम्बरमपि विधिनेर्यापथाख्यां च शुद्धिं।
कृत्वाहं सिद्धभक्तिं बुधनुतसकलीसत्क्रियां चादरेण।।
श्री जैनेन्द्रार्चनार्थं क्षितिमपि यजनद्रव्यपात्रात्मशुद्धिं।
कृत्वा भक्त्या त्रिशुद्ध्या महमहमधुना प्रारभेयं जिनस्य१।।२।।
‘‘पूजा अभिषेक के प्रारंभ में स्नान करके शुद्ध हुआ मैं अर्हंत देव को नमस्कार करके पवित्र जलस्नान से, मंत्रस्नान से और व्रतस्नान से शुद्ध होकर आचमन कर, अर्घ्य देकर, धुले हुए सफेद धोती और दुपट्टे को धारण कर, वंदना विधि के अनुसार तीन प्रदक्षिणा देकर जिनालय को नमस्कार करता हूँ।
तथा द्वारोद्घाटन कर और मुख वस्त्र पहनकर विधिपूर्वक ईर्यापथ शुद्धि करके, सिद्धभक्ति करके, सकलीकरण करके, जिनेन्द्रदेव की पूजा के लिए भूमिशुद्धि, पूजा द्रव्य की शुद्धि, पूजा पात्रों की शुद्धि और आत्मशुद्धि करके भक्तिपूर्वक मन, वचन, काय की शुद्धि से अब जिनेन्द्रदेव का महामह अर्थात् अभिषेक पूजा प्रारंभ करता हूूँ।
इस कथित विधि के अनुसार आचार्य श्री नेमिचंद्र कृत प्रतिष्ठातिलक में क्रम से सर्वविधि का वर्णन है। प्रारंभ में जलस्नान के अनंतर ‘‘मंत्रस्नान’’ विधि का वर्णन है। अनंतर ‘‘पूजामुख विधि’’ शीर्षक में मंदिर में प्रवेश करने से लेकर सिद्धभक्ति तक का वर्णन है अर्थात् मंदिर में प्रवेश करना, प्रदक्षिणा देना, जिनालय की तथा जिनेन्द्रदेव की स्तुति करना, ईर्यापथ शुद्धि करके सकलीकरण करना, द्वारोद्घाटन, मुखवस्त्र उत्सारण (वेदी के सामने का वस्त्र हटाना) पुन: सामायिक विधि स्वीकार कर विधिवत् कृत्य विज्ञापना करके सामायिक दंडक, कायोत्सर्ग और थोस्सामि करके लघु सिद्धभक्ति करना यहाँ तक पूजामुख विधि होती है।
पुन: विधिवत् अभिषेक करने का विधान है। अनंतर नित्य पूजा के बाद अंत में जो विधि करनी चाहिये उसके लिये ‘‘अभिषेक पाठ’’ में ही अंत में चार श्लोक दिये गये हैं उन्हें देखिये-
निष्ठाप्यैवं जिनानां सवनविधिरपि प्रार्च्यभूभागमन्यंं।
पूर्वोत्तैर्मंत्रयंत्रैरिव भुवि विधिनाराधनापीठयंत्रम्।।
कृत्वा सच्चंदनाद्यैर्वसुदलकमलं कर्णिकायां जिनेन्द्रान्।
प्राच्यां संस्थाप्य सिद्धानितरदिशि गुरून् मंत्ररूपान् निधाय।।३७।।
जैनं धर्मागमार्चानिलयमपि विदिक्पत्रमध्ये लिखित्वा।
बाह्ये कृत्वाथ चूर्णै: प्रविशदसदवैâ: पंचकं मंडलानाम्।।
तत्र स्थाप्यास्तिथीशा ग्रहसुरपतयो यक्षयक्ष्य: क्रमेण।
द्वारेशा लोकपाला विधिवदिह मया मंत्रतो व्याह्नियन्ते।।३८।।
एवं पंचोपचारैरिह जिनयजनं पूर्ववन्मूलमंत्रे-
णापाद्यानेकपुष्पैरमलमणिगणैरंगुलीभि: समंत्रै:।।
आराध्यार्हंतमष्टोत्तरशतममलं चैत्यभक्त्यादिभिश्च।
स्तुत्वा श्रीशांतिमंत्रं गणधरवलयं पंचकृत्व: पठित्वा।।३९।।
पुण्याहं घोषयित्वा तदनु जिनपते: पादपद्मार्चितां श्री-
शेषां संधार्य मूर्ध्ना जिनपतिनिलयं त्रि:परीत्य त्रिशुद्ध्या।
आनम्येशं विसृज्यामरगणमपि य:पूजयेत् पूज्यपादं
प्राप्नोत्येवाशु सौख्यं भुवि दिवि विबुधो देवनंदीडितश्री:।।४०।।
अर्थ-इस प्रकार जिनेन्द्रदेव की पूजाविधि को पूर्ण करके पूर्वोक्त मंत्र-यंत्रों से विधिपूर्वक आराधनापीठ यंत्र की पूजा करे, पुन: चंदन आदि के द्वारा आठ दल का कमल बनाकर कर्णिका में श्री जिनेन्द्रदेव को स्थापित कर पूर्वदिशा में सिद्धों को, शेष तीन दिशा में आचार्य, उपाध्याय और साधु को विराजमान करके पुन: विदिशा के दलों में क्रम से जैनधर्म, जिनागम, जिनप्रतिमा और जिनमंदिर को लिखकर बाहर में चूर्ण से और धुले हुये उज्ज्वल चावल आदि से पंचवर्णी मंडल बना लेवे। इस कमल के बाहर पंचदश तिथिदेवता को, नवग्रहों को, बत्तीस इंद्रों को, चौबीस यक्षों को, चौबीस यक्षिणी को तथा द्वारपालों को और लोकपालों को विधिवत् मंत्रपूर्वक मैं आह्वानन विधि से बुलाता हूँ।
इस तरह पंचोपचारों से मंत्रपूर्वक जिन भगवान् का पूजन कर पूर्ववत् मूल मंत्रों द्वारा अनेक प्रकार के पुष्पों से, निर्मल मणियों की माला से या अंगुली से एक सौ आठ जाप्य करके अरहंतदेव की आराधना करे। पुन: चैत्यभक्ति आदि शब्द से पंचगुरुभक्ति और शांतिभक्ति के द्वारा स्तवन करके शांतिमंत्र और गणधरवलय मंत्रों को पाँच बार पढ़कर पुण्याहवाचन की घोषणा करना, इसके बाद जिनेन्द्रदेव के चरणकमलों से पूजित श्रीशेषा/आसिका को मस्तक पर चढ़ाकर जिनमंदिर की तीन प्रदक्षिणा देकर, मन, वचन, काय की शुद्धिपूर्वक जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार करके और अमरगण अर्थात् पूजा के लिये बुलाए गए देवों का विसर्जन करके जो व्यक्ति ‘‘पूज्यपाद’’ जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करता है वह ‘‘देवनन्दी’’ से पूजित श्री विद्वान् मर्त्यलोक और देवलोक में शीघ्र ही सुख को प्राप्त करता है। (३७ से ४०)
पुन: प्रतिष्ठातिलव्ाâ ग्रंथ में देखिए-
नित्य अभिषेक पाठ में पहले पंचकुमार पूजा व दशदिक्पाल पूजा दी है। पुन: पंचामृत अभिषेक पाठ है। अनन्तर अष्टद्रव्य से भगवान की पूजा, श्रुतपूजा, गणधरदेव पूजा दी है। अनन्तर यक्ष-यक्षी की पूजा दी है।
-उपजाति छंद-
यक्षं यजामो जिनमार्गरक्षा-दक्षं सदा भव्यजनैकपक्षम्।
निर्दग्धनि:शेषविपक्षकक्षं, प्रतीक्ष्यमत्यक्षसुखे विलक्षम्।।१।।१
ॐ ह्रीं हे यक्ष! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट्।
ॐ ह्रीं हे यक्ष! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:।
ॐ ह्रीं हे यक्ष! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् (स्थापनं)।
ॐ ह्रीं यक्षाय इदमर्घ्यं पाद्यं गंधं अक्षतं पुष्पं दीपं धूपं चरुं बलिं फलं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यताम् प्रतिगृह्यताम् स्वाहा।
-उपजाति छंद-
यक्षीं सपक्षीकृतभव्यलोकां, लोकाधिकैश्वर्यनिवासभूताम्।
भूतानुकंपादिगुणानुमोदां, मोदांचितामर्चनमातनोमि।।१।।२
ॐ ह्रीं हे यक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट्।
ॐ ह्रीं हे यक्षि! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:।
ॐ ह्रीं हे यक्षि! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् (स्थापनं)।
ॐ ह्रीं हे यक्षीदेवि! इदं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यताम् प्रतिगृह्यताम् स्वाहा।
अनंतर नवदेवता की पूजा के बाद क्रमश: चौबीय यक्ष व चौबीस यक्षी-जिनशासन देव-देवियों के भी अर्घ्य हैं। यथा-
-उपजाति छंद-
यक्षाधिका रक्षितधर्ममार्गा, ये गोमुखाद्यास्त्रिगुणाष्टसंख्या:।
तृतीयसन्मंडलवर्तिनस्तान्-सपर्यया प्रीतिजुषस्तनोमि१।।१३।।
ॐ ह्रीं गोमुख-महायक्ष-त्रिमुख-यक्षेश्वर-तुंबरु-कुसुम-वरनंदि-विजय-अजित-ब्रह्मेश्वर-कुमार-षण्मुख-पाताल-किन्नर-किंपुरुष-गरुड-गंधर्व-खेन्द्र-कुबेर-वरुण-भृकुटि-सर्वाण्ह-धरणेन्द्र-मातंगाभिधानचतुर्विंशति-यक्षदेवता:! अत्र आगच्छत आगच्छत संवौषट्।
ॐ ह्रीं गोमुख-महायक्ष-त्रिमुख-यक्षेश्वर-तुंबरु-कुसुम-वरनंदि-विजय-अजित-ब्रह्मेश्वर-कुमार-षण्मुख-पाताल-किन्नर-किंपुरुष-गरुड-गंधर्व-खेन्द्र-कुबेर-वरुण-भृकुटि-सर्वाण्ह-धरणेन्द्र-मातंगाभिधानचतुर्विंशतियक्षदेवता:! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठ: ठ:।
ॐ ह्रीं गोमुख-महायक्ष-त्रिमुख-यक्षेश्वर-तुंबरु-कुसुम-वरनंदि-विजय-अजित-ब्रह्मेश्वर-कुमार-षण्मुख-पाताल-किन्नर-किंपुरुष-गरुड-गंधर्व-खेन्द्र-कुबेर-वरुण-भृकुटि-सर्वाण्ह-धरणेन्द्र-मातंगाभिधानचतुर्विंशति-यक्षदेवता:! अत्र मम सन्निहिता भवत भवत वषट्।
ॐ ह्रीं गोमुखादिचतुर्विंशतियक्षेभ्य इदमर्घ्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतान् पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।
-उपजाति छंद-
सम्यक्प्रभावितजिनेश्वरशासनश्री-चक्रेश्वरीप्रभृतिशासनदेवता या:।
यक्षप्रमाणकलिता गुणिसंघगृह्यास्तास्तुर्यमंडलगता बलिना धिनोमि२।।१४।।
ॐ ह्रीं चक्रेश्वरी-रोहिणी-प्रज्ञप्ती-वङ्काशृंखला-पुरुषदत्ता-मनोवेगा-काली-ज्वालामालिनी-महाकाली-मानवी-गौरी-गांधारी-वैरोटी-अनंतमती-मानसी-महामानसी-जया-विजया-अपराजिता-बहुरूपिणी-चामुंडी-कूष्मांडिनी-पद्मावती-सिद्धायिन्यश्चेति चतुर्विंशतिदेवता:! अत्र आगच्छत आगच्छत संवौषट्।
ॐ ह्रीं चक्रेश्वरी-रोहिणी-प्रज्ञप्ती-वङ्काशृंखला-पुरुषदत्ता-मनोवेगा-काली-ज्वालामालिनी-महाकाली-मानवी-गौरी-गांधारी-वैरोटी-अनंतमती-मानसी-महामानसी-जया-विजया-अपराजिता-बहुरूपिणी-चामुंडी-कूष्मांडिनी-पद्मावती-सिद्धायिन्यश्चेति चतुर्विंशतिदेवता:! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठ: ठ:।
ॐ ह्रीं चक्रेश्वरी-रोहिणी-प्रज्ञप्ती-वङ्काशृंखला-पुरुषदत्ता-मनोवेगा-काली-ज्वालामालिनी-महाकाली-मानवी-गौरी-गांधारी-वैरोटी-अनंतमती-मानसी-महामानसी-जया-विजया-अपराजिता-बहुरूपिणी-चामुंडी-कूष्मांडिनी-पद्मावती-सिद्धायिन्यश्चेति चतुर्विंशतिदेवता:! अत्र मम सन्निहिता भवत भवत वषट्।
ॐ ह्रीं चक्रेश्वर्यादिशासनदेवताभ्य इदमर्घ्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतान् पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।
श्री पूज्यपाद स्वामी ने अभिषेक पाठ में दशदिक्पाल का अर्घ्य दिया है-
पूर्वाशादेश हव्यासन महिषगते नैर्ऋते पाशपाणे।
वायो यक्षेन्द्र चन्द्राभरण फणिपते रोहिणीजीवितेश।।
सर्वेऽप्यायात यानायुधयुवतिजनै: सार्धमों भूर्भुव: स्व:।
स्वाहा गृह्णीत चार्घ्यं चरुममृतमिदं स्वस्तिकं यज्ञभागं१।।११।।
ॐ ह्रीं क्रों प्रशस्तवर्णसर्वलक्षणसम्पूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्हसपरिवारा इन्द्राग्नियमनैर्ऋतवरुणवाहन-कुबेरेशानधरणेन्द्रसोमनामदशलोकपाला आगच्छत आगच्छत संवौषट्, स्वस्थाने तिष्ठत तिष्ठत ठ: ठ:, ममात्र सन्निहिता भवत भवत वषट् इदमर्घ्यं पाद्यं गृह्णीध्वं गृह्णीध्वं ॐ भूर्भुव: स्व: स्वाहा स्वधा।
इन्द्रादिदशलोकपालपरिवारदेवतार्चनम्।
बृहत्स्नपन-श्री गुणभद्रभदन्त कृत अभिषेक पाठ में-
पृ. २५ से २८ तक दश दिक्पाल के अर्घ्य एवं क्षेत्रपाल का अर्घ्य है।
श्री अभयनंदि आचार्य विरचित ‘लघु स्नपनं’ की टीका में श्री भावशर्मकृत संस्कृत टीका है।
उसमें पृ. ५९-६० पर दश दिक्पालों के अर्घ्य हैं। पुन: पृ. ६६ से ७४ तक दशों दिक्पालों के पृथक्-पृथक् अर्घ्य हैं। यथा-
ॐ पूर्वस्यां दिशि कुण्डलांशनिचयव्यालीढगण्डस्थलं
शक्रं मूर्धनि बद्धसाधुमुकुटं स्वारूढमैरावतम्।
पत्नीबान्धवभृत्यवर्गसहितं देवं समाह्वानये
पाद्यार्घाक्षतदीपगन्धकुसुमं दत्तं मया गृह्यताम्१।।१५।।
ॐ पूर्वस्यां दिशि इन्द्रदेवमाह्वानयामहे स्वाहा। अथ पूजामंत्र:-हे इन्द्र! आगच्छ। इन्द्राय स्वाहा। इन्द्रमहत्तराय स्वाहा। इन्द्रपरिजनाय स्वाहा। अग्नये स्वाहा। अनिलाय स्वाहा। वरुणाय स्वाहा। सोमाय स्वाहा। प्रजापतये स्वाहा। ॐ स्वाहा। भू: स्वाहा। भुव: स्वाहा। स्व: स्वाहा। ॐ भूर्भुव:स्व: स्वाहा। ॐ इन्द्रदिक्पालाय स्वगणपरिवृताय पाद्यं गंधं पुष्पं दीपं धूपं चरुं बिंल स्वस्तिकमक्षतं यज्ञभागं च भावान्निवेदितं यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतामिति स्वाहा।
श्री गजांकुश कवि विरचित ‘जैनाभिषेक’ में श्री प्रभाचंद्र देवकृत संस्कृत टीका है। इसमें पृ. ९४ पर दशदिक्पाल का अर्घ्य है२।
पं. श्री आशाधर विरचित ‘नित्यमहोद्योत’ अभिषेक पाठ में क्षेत्रपाल की विधिवत् पूजा है। यथा-
क्षेत्रपालाय यज्ञेऽस्मिन्नेतत्क्षेत्राधिरक्षिणे।
बलिं दिशामि दिश्यग्नेर्वेद्यां विघ्नविघातिने।।३६।।
ॐ आँ क्रों ह्रीं अत्रस्थ क्षेत्रपाल! आगच्छागच्छ संवौषट्, तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:, मम सन्निहितो भव भव वषट्, इदं जलाद्यर्चनं गृहाण गृहाण स्वाहा।
विश्वम्भरामम्बुकुशानलाभ्यां संशोध्य सन्तर्प्य फणीन् सुधाभि:।
निक्षिप्य दर्भान्निखिलासु दिक्षु श्रीक्षेत्रपालाय बलिं ददामि।।३७।।
तमालतरुकान्तिभाव् प्रकटिताट्टहासास्यवान्,
दयागुणसमन्वितो भुजगभूषणैर्भीषण:।
कनत्कनककिंकणीकलितनूपुराराववान् ,
दिगम्बरवपुर्मया जिनगृहेऽर्च्यते क्षेत्रप:।।३८।।
सद्यस्केन सुगन्धेन स्वच्छेन बहलेन च।
स्नपनं क्षेत्रपालस्य तैलेन प्रकरोम्यहम्।।३९।।
सिन्दुरैरारुणाकारै: पीतवर्णै: सुसंभवै:।
चर्चनं क्षेत्रपालस्य सिंदूरै: प्रकरोम्यहम्।।४०।।
भो: क्षेत्रपाल! जिनपप्रतिमाज्र्भाल,
दंष्ट्राकराल जिनशासनवैरिकाल।
तैलाहिजन्मगुडचन्दन – पुष्पधूपै –
र्भोगं प्रतीच्छ जगदीश्वरयज्ञकाले।।४१।।
इदं जलादिकमर्चनं गृहाण गृहाण ॐ भूर्भुव:स्व: स्वधा स्वाहा इति क्षेत्रपालार्चनम्।
पुन: वास्तुदेव, वायुकुमार, मेघकुमार, अग्निकुमार, नागकुमार इन पंच कुमारों के आह्वानपूर्वक अर्घ्य हैं। यथा-
उत्खातपूरितसमीकृतसंस्कृतायां,
पुण्यात्मनीह भगवन्मखमण्डपोर्व्याम्।
वास्त्वर्चनादिविधिलब्धमखादिभागं,
वेद्यां यजामि शशिभृद्दिशि वास्तुदेवम्।।४२।।
पुन: दशदिक्पाल के पृथक्-पृथक् अर्घ्य हैं। यथा—
रूप्याद्रिस्पर्धिघंटायुगपटुटज्ररभग्नारिशुम्भद् –
भूषासख्यातिचित्रोज्वलकुथविलसल्लक्ष्मवर्ष्मद्विपस्थम्।
दृप्यत्सामानिकादित्रिदशपरिवृतं रुच्यशच्यादिदेवी-
लोलाक्षं वङ्काभूषोद्भटसुभगरुचं प्रागिहेन्द्रं यजेऽहम्१।।९६।।
ॐ ह्रीं क्रों इन्द्र! आगच्छ आगच्छ संवौषट्, तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:, मम सन्निहितो भव भव वषट् इन्द्राय स्वाहा। इन्द्रपरिजनाय स्वाहा, इन्द्रानुचराय स्वाहा, इन्द्रमहत्तराय स्वाहा, अग्नये स्वाहा, अनिलाय स्वाहा, वरुणाय स्वाहा, सोमाय स्वाहा, प्रजापतये स्वाहा, ॐ स्वाहा, भू: स्वाहा, भुव: स्वाहा, स्व: स्वाहा, ॐ भूर्भुव: स्व: स्वाहा, ॐ इन्द्रदेवाय स्वगणपरिवृताय इदमर्घ्यं पाद्यं गंधं पुष्पं धूपं दीपं चक्रं बलिं अक्षतं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतामिति स्वाहा।
शासन देव-देवी, क्षेत्रपाल, दिग्पाल आदि के आह्वानन-अर्घ्य-पूजा आदि के प्रमाण प्राचीन आगम ग्रंथों में तो हैं ही, वर्तमान में भी बड़वानी, सोनागिरि, कुण्डलपुर, सम्मेदशिखर , अहिच्छत्र, हस्तिनापुर, अयोध्या आदि अनेक तीर्थों पर तथा तेरहपंथ आम्नाय के प्राचीन एवं अर्वाचीन मंदिरों में विराजमान हैं। इनकी पूजा-अर्चना भी आगमसम्मत है।