परिचय श्री पूज्यपाद स्वामी एक महान आचार्य हुए हैं। श्री जिनसेन, शुभचन्द्र आचार्य आदि ग्रन्थकारों ने अपने-अपने ग्रन्थ में उन्हें बड़े आदर से स्मरण किया है।
यथा-
कवीनां तीर्थकृद्देव: किं तरां तत्र वण्र्यते।
विदुषां वाङ्मलध्वंसि तीर्थं यस्य वचोमयम्।।
जो कवियों में तीर्थंकर के समान थे और जिनका वचनरूपी तीर्थ विद्वानों के शब्द सम्बन्धी दोषों को नष्ट करने वाला है, ऐसे उन देवनन्दि आचार्य का कौन वर्णन कर सकता है ?
अपाकुर्वन्ति यद्वाच: कायवाक्चित्तसंभवम्।
कलंकमंगिनां सोऽयं देवनंदी नमस्यते।।
जिनके वचन प्राणियों के शरीर, वचन और चित्त के सभी प्रकार के दोष को दूर करने में समर्थ हैं उन देवनन्दि आचार्य को मैं नमस्कार करता हूँ अर्थात् श्री पूज्यपाद ने वैद्यक ग्रन्थ बनाकर काय सम्बन्धी दोष को दूर किया है, व्याकरण ग्रन्थ बनाकर वचन सम्बन्धी दोष को एवं समाधितन्त्र ग्रन्थ बनाकर मन सम्बन्धी दोष को दूर किया है।
इन पूज्यपाद स्वामी का जीवन परिचय, समय, गुरु परम्परा और इनके रचे हुए ग्रंथों का किंचित् विवरण किया जाता है।
इनके पिता का नाम माधव भट्ट और माता का नाम श्रीदेवी था। ये कर्नाटक के कोले नामक ग्राम के निवासी थे और ब्राह्मण कुल के भूषण थे। इनका घर का नाम देवनन्दि था। ये एक दिन अपनी वाटिका में विचरण कर रहे थे कि उनकी दृष्टि सांप के मुख में फँसे हुए मेंढ़क पर पड़ी इससे उन्हें विरक्ति हो गयी और ये जैनेश्वरी दीक्षा लेकर महामुनि हो गए। ये अपनी तपस्या के प्रभाव से महान प्रभावशाली मुनि हुए हैं। कथा में ऐसा वर्णन आता है कि ये अपने पैरों में गगनगामी लेप लगाकर विदेह क्षेत्र में जाया करते थे। इनके विदेहक्षेत्र गमन का वर्णन प्रशस्ति के श्लोकों से भी स्पष्ट हो रहा है।
यथा-
श्री पूज्यपादप्रतिमौषधद्र्धिर्जीयाद् विदेहजिनदर्शन-पूतगात्र:।
यत्पादधौतजलसंस्पर्शप्रभावात्, कालायसं किल तदा कनकीचकार।।१७।।
जिनके अप्रतिम औषधि ऋद्धि प्रगट हुई थी, विदेह क्षेत्र के जिनेन्द्रदेव के दर्शन से जिनका शरीर पवित्र हो चुका था, ऐसे पूज्यपाद स्वामी एक महान मुनि हुए हैं। इन्होंने अपने पैर के धोये हुए जल के स्पर्श के प्रभाव से लोहे को सोना बना दिया था।
इस श्लोक से इनकी ऋद्धि विशेष का और विदेहगमन का स्पष्टीकरण हो रहा है। कथानकों में ऐसा भी आया है कि ये पूज्यपाद मुनि बहुत दिनों तक योगाभ्यास करते रहे। किसी समय एक देव ने विमान में इन्हें बैठाकर अनेक तीर्थों की यात्रा कराई। मार्ग में एक जगह उनकी दृष्टि नष्ट हो गई अत: उन्होंने शान्त्यष्टक रचकर ज्यों की त्यों दृष्टि प्राप्त की।
पूज्यपाद के समय के सम्बन्ध में विशेष विवाद नहीं है। आचार्य अकलंक देव ने अपने तत्त्वार्थवार्तिक में सर्वार्थसिद्धि के अनेकों वाक्यों को वार्तिक का रूप दिया है। शब्दानुशासन सम्बन्धी कथन की पुष्टि के लिए इनके जैनेन्द्र व्याकरण के सूत्रों को प्रमाणरूप में उपस्थित किया है अत: पूज्यपाद अकलंकदेव के पूर्ववर्ती हैं इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। इन्होंने अपने समाधिशतक में तो श्री कुन्दकुन्द देव के मोक्षपाहुड की अनेकों गाथायें ज्यों की त्यों संस्कृत में भाषान्तररूप की हैं तथा गृद्धपिच्छाचार्य का समय विक्रम की द्वितीय शताब्दी का अन्तिम पाद है अत: पूज्यपाद का समय विक्रम संवत् ३०० के पश्चात् ही संभव है।
पूज्यपाद स्वामी ने अपने जैनेन्द्र व्याकरण सूत्रों में भूतबलि, समन्तभद्र, श्रीदत्त, यशोभद्र और प्रभाचन्द्र नामक पूर्वाचार्यों का निर्देश किया है। नन्दिसेन की पट्टावली में देवनंदि का समय विक्रम सं. २५८-३०८ तक अंकित किया है।
नंदिसंघ की पट्टावली में यशोनंदि आचार्य के पट्ट पर श्री देवनंदि आचार्य हुए हैं, ऐसा उल्लेख है।
श्री पूज्यपाद आचार्य द्वारा रचित अब तक निम्नलिखित रचनाएँ उपलब्ध हैं-
१. दशभक्ति २. जन्माभिषेक (पंचामृताभिषेक), सर्वार्थसिद्धि, समाधितन्त्र, इष्टोपदेश, जैनेन्द्र व्याकरण और सिद्धिप्रिय स्तोत्र।
सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति आदि नाम से ये भक्तियां ‘‘धर्मध्यान दीपक’’ और क्रियाकलाप आदि ग्रन्थों में छप चुकी हैं।
२.वर्तमान में एक जन्माभिषेक मुद्रित ग्रंथ के रूप में उपलब्ध है इसे पूज्यपाद द्वारा रचित माना गया है। इसकी रचना प्रौढ़ और प्रवाहमय है।
इस अभिषेक पाठ के विषय में शिलालेख संग्रह में भी लिखा है-
यो देवनन्दिप्रथमाभिधानो बुद्ध्या महत्या स जिनेन्द्रबुद्धि:।
श्री पूज्यपादोऽजनि देवताभिर्यत्पूजितं पादयुगं यदीयं।।
जैनेन्द्रं जिनशब्दभोगमतुलं सर्वार्थसिद्धि: परा।
सिद्धान्ते निपुणत्वमुद्धकवितां जैनाभिषेक: स्वक:।।
छन्दस्सूक्ष्मधियं समाधिशतकं स्वास्थ्यं यदीयं
विदामाख्यातीह सपूज्यपादमुनिप: पूज्यो मुनीनां गणै:।।
अर्थात् इनका प्रथम नाम देवनंदि था पुन: बुद्धि की महत्ता से ये जिनेन्द्र बुद्धि कहलाये। देवताओं द्वारा उनके चरण युगल पूजे गए थे इसलिए ये पूज्यपाद कहलाये। इन श्री पूज्यपाद आचार्य ने जैनेन्द्र- व्याकरण, सर्वार्थसिद्धि, जैनाभिषेक पाठ, समाधिशतक आदि ग्रन्थों की रचना की है।
३. सर्वार्थसिद्धि यह रचना ‘‘तत्त्वार्थसूत्र’’ ग्रन्थ की विशद वृत्ति है इसका दार्शनिक और सैद्धांतिक विवेचन आचार्यवर्य की महान विद्वत्ता का प्रतीक है।
४. यह समाधितन्त्र ग्रन्थ अध्यात्म विषय का बहुत ही सुन्दर विवेचन करता है। आचार्यश्री ने इस ग्रन्थ की विषयवस्तु कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों से ही ग्रहण की है।
५. इस इष्टोपदेश ग्रन्थ में ५१ श्लोक में आचार्यश्री ने इष्ट आत्मतत्त्व की ओर ले जाने के लिए अध्यात्म सागर को गागर में ही भर दिया है।
६. जैनेन्द्र व्याकरण ग्रन्थ में सर्वप्रथम सूत्र है ‘‘सिद्धिरनेकान्तात्’’। इस मंगलसूत्र के द्वारा आचार्यश्री ने शब्दों को भी अनेक धर्मात्मक करके अपने स्याद्वाद को सर्वोपरि और सार्वभौम सिद्ध कर दिया है।
७. सिद्धप्रिय स्तोत्र में चतुर्विंशति तीर्थंकरों की स्तुति की गई है। रचना प्रौढ़ और प्रवाहयुक्त है।
इनका एक वैद्यक ग्रन्थ भी उपलब्ध है। कहा जाता है कि वह अपूर्ण मिल पाया है।
इन पूज्यपाद आचार्य ने समाधितन्त्र, जैनाभिषेक, सिद्धिप्रिय स्तोत्र और दशभक्ति इन चार ग्रन्थों द्वारा ध्यान, पूजा, प्रार्थना एवं भक्ति को उदात्त जीवन की भूमिका के लिए आवश्यक माना है यह स्पष्ट हो जाता है।
इसी प्रकार से उनके नेत्र ज्योति की मंदता पुन: प्रकाशमय करने वाली जो शांतिभक्ति है वह आज भी प्रत्येक भक्त के समस्त नेत्र रोगों को नष्ट करने में प्रसिद्ध है और एक दिगम्बर जैनाचार्य द्वारा वीतराग तीर्थंकर के प्रति उत्कृष्ट अनुराग का जाज्वल्यमान उदाहरण है। इस शांति भक्ति का आठवां श्लोक श्लेषालंकारमय बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।
यथा-
शांतिं-शांति जिनेन्द्रशांतमनसस्त्वत्पादपद्माश्रयात्।
संप्राप्ता: पृथिवीतलेषु बहव: शान्त्यर्थिन: प्राणिन:।।
कारुण्यान्मम भाक्तिकस्य च विभो दृष्टिं प्रसन्नां कुरु।
त्वत्पादद्वयदैवतस्य गदत: शान्त्यष्टकं भक्तित:।।८।।
हे शांति जिनेन्द्र! इस पृथ्वीतल पर शांति के इच्छुक बहुत से प्राणी शान्तमना होकर आपके चरण- कमलों का आश्रय लेकर शान्ति को प्राप्त कर चुके हैं अत: मैं भी भक्तिपूर्वक आपके चरणयुगल की इस शान्त्यष्टक द्वारा स्तुति कर रहा हूँ, हे विभो! करुणा करके मुझ भक्त पर दृष्टि प्रसन्न करो अथवा दूसरा अर्थ यह है कि हे विभो! करुणा करके मुझ भक्त की दृष्टि-चक्षु प्रसन्न-निर्मल-निर्दोष करो। कहते हैं कि इस श्लोक के उच्चारण करते ही आचार्यश्री की नेत्र ज्योति स्वच्छ हो गई थी।
”ऐसे पूज्यपाद स्वामी हमारी दृष्टि-सम्यग्दर्शन को निर्मल करें।”