-स्थापना-
हे आर्यिका माता अभयमति! बालसति विख्यात हो।
संसार सुख को छोड़कर, अपना लिया वैराग को।
अतएव पूजा के लिए, यह पद तुम्हारा योग्य है।
हम अर्चना करते तुम्हारी, जो हमारे योग्य है।।
ॐ ह्रीं आर्यिका श्री अभयमती मात:! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं आर्यिका श्री अभयमती मात:! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं आर्यिका श्री अभयमती मात:! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्सन्निधीकरणं।
-अष्टक-
भावों का प्रासुक नीर, ले पद प्रक्षालूँ।
मन की मिट जावे पीर, ऐसा सुख पा लूँ।।
हे अभयमती जी मात, तुमको वन्दन है।
जलयुक्त कलश हे मात! पद में अर्पण है।।१।।
ॐ ह्रीं आर्यिका श्री अभयमती मात्रे जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चन्दन की शीतल गंध, तन मन शुद्ध करे।
होवें कषाय मम मंद, ऐसी भक्ति करें।।
हे अभयमती जी मात, तुमको वन्दन है।
शीतल चन्दन हे मात! पद में अर्पण है।।२।।
ॐ ह्रीं आर्यिका श्री अभयमती मात्रे चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
शुभ धवल अखंडित शालि, अक्षत कहलाता।
तुम अग्र चढ़ा कर पुंज, चाहूँ सुख साता।।
हे अभयमती जी मात, तुमको वंदन है।
अक्षत की थाली मात! पद में अर्पण है।।३।।
ॐ ह्रीं आर्यिका श्री अभयमती मात्रे अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
फूलों के बहुत प्रकार, चुन चुन लाऊँ मैं।
विषयाशा होय समाप्त, पुष्प चढ़ाऊँ मैं।।
हे अभयमती जी मात, तुमको वन्दन है।
पुष्पों की माला मात! पद में अर्पण है।।४।।
ॐ ह्रीं आर्यिका श्री अभयमती मात्रे पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
व्यंजन के विविध प्रकार, पूजन हेतु धरूँ।
क्षुधरोग मेरा हो शान्त, तन मन स्वस्थ करूँ।।
हे अभयमती जी मात, तुमको वन्दन है।
नैवेद्य थाल हे मात! पद में अर्पण है।।५।।
ॐ ह्रीं आर्यिका श्री अभयमती मात्रे नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक की टिमटिम ज्योति, भी जग तिमिर हरे।
मन में हो ज्ञान उद्योत, आरति नित्य करे।।
हे अभयमती जी मात, तुमको वन्दन है।
दीपक की थाली मात! पद में अर्पण है।।६।।
ॐ ह्रीं आर्यिका श्री अभयमती मात्रे दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
है अष्टगन्ध की धूप, बहुत सुगंधकरी।
मैं करूँ अग्नि में दग्ध, अपने कर्मअरी।।
हे अभयमती जी मात, तुमको वन्दन है।
यह धूप सुघट हे मात! पद में अर्पण है।।७।।
ॐ ह्रीं आर्यिका श्री अभयमती मात्रे धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
किसमिस अखरोट बदाम, सेव अनार लिया।
पाऊँ निज आतम राम, अत: चढ़ाय दिया।।
हे अभयमती जी मात, तुमको वन्दन है।
यह फल की थाली मात! पद में अर्पण है।।८।।
ॐ ह्रीं आर्यिका श्री अभयमती मात्रे फलं निर्वपामीति स्वाहा।
सब द्रव्य मिला इक संग, अर्घ्य बनाय लिया।
भव परम्परा हो भंग, अर्घ्य चढ़ाय दिया।।
हे अभयमती जी मात, तुमको वंदन है।
यह अर्घ्य थाल हे मात! पद में अर्पण है।।९।।
ॐ ह्रीं आर्यिका श्री अभयमती मात्रे अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा-
हे उपचार महाव्रती, बनीं आर्यिका मात।
नमन करूँ तव चरण में, पुन: कहूँ जयमाल।।
शेरछंद-जै जै त्रिलोक में मनुष्य जन्म श्रेष्ठ है।
चारों गती में नरगती मानी सुश्रेष्ठ है।।
मिलता है चूँकि संयम पर्याय इसी में।
सम्यक्त्व सब गती में संयम न किसी में।।१।।
जिसके लिए सौधर्म इन्द्र भी तरसता है।
मानव में ही वह स्वात्मसौख्य रस बरसता है।।
पुरुषों में यह चारित्र होता पूर्णरूप से।
नारी उसे करती ग्रहण कुछ न्यूनरूप से।।२।।
तुमने उसी नारी का जनम प्राप्त किया है।
पितु छोटेलाल मोहिनी से जन्म लिया है।।
उन्नीस सौ ब्यालीस सन् मगसिर सुदी सप्तमी।
कन्या से धन्य थी टिवैâतनगर की धरती।।३।।
गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती की लघू बहन।
उनकी ही प्रेरणा से बढ़े त्याग में कदम।।
सन् उन्नीस सौ चौंसठ में क्षुल्लिका बना दिया।
रख नाम अभयमती त्याग में बढ़ा दिया।।४।।
आचार्य धर्मसागर से आर्यिका बनीं।
उन्नीस सौ उन्हत्तर में महावीर जी।।
कुछ दिन रहीं गुरु संघ में फिर यात्रा को निकलीं।
बुन्देलखण्ड तीर्थवन्दना को चल पड़ीं।।५।।
निज नाम को साकार कर प्रभावना किया।
गुरुओं के दर्श से सफल निज भावना किया।।
जप तप से किया करती हो धर्मध्यान है।
अब ‘‘चंदनामती’’ करे तुमको प्रणाम है।।६।।
-दोहा-
अर्घ्य समर्पित चरण में, करूँ पूर्ण जयमाल।
रत्नत्रय की निधि मुझे, कर दे मालामाल।।७।।
ॐ ह्रीं चारित्रश्रमणी आर्यिका श्री अभयमती मात्रे जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
।। इत्याशीर्वाद:। पुष्पांजलि:।।