आर्यखण्ड की परम पावन धरा पर समय-समय पर अनेक महापुरुषों, वीर नारियों आदि ने जन्म लेकर इसकी गौरवमयी भूमि को और भी अधिक गौरवान्वित किया है। यूँ तो विश्व में अनेकों विकसित देश हैं, जो प्रत्येक क्षेत्र में भारतवर्ष की प्रगति से काफी आगे अपना स्थान रखते हैं किन्तु अगर हम आध्यात्मिक क्षेत्र (धार्मिक क्षेत्र) में दृष्टिपात करते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि एकमात्र भारत ही ऐसा देश है जिसकी माटी में अनन्तानन्त तीर्थंकर भगवन्त खेले हैं और सम्पूर्ण जगत को अपनी अमृतमयी वाणी से अभिसिंचित करते हुए उन्होंने प्राणीमात्र का कल्याण करने के साथ-साथ अपनी आत्मा का भी उत्थान किया है। धर्म की इस अजस्र प्रवाहमान धारा में उन्हीं भगवन्तों की अमृतमयी वाणी को दिग्दिगन्त प्रसारित करने में अनेक पूर्वाचार्यों ने अपनी अहम् भूमिका निभाई, पुन: इसी परम्परा में बीसवीं शताब्दी के प्रथम दिगम्बर जैनाचार्य चारित्रचक्रवर्ती श्री शांतिसागर जी महाराज हुए जिनकी अक्षुण्ण परम्परा में छह पट्टाचार्य हुए जिन्होंने धर्म की उस गंगा में अनेकों भव्य जीवों को अवगाहन कराया और यह भारतवर्ष का गौरव ही कहा जायेगा कि उसी ज्ञानसरिता को और अधिक वृद्धिंगत करने में बीसवीं सदी की प्रथम बालब्रह्मचारिणी गणिनीप्रमुख, राष्ट्रगौरव आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी हैं जिन्होंने आज के युग में अनेकों कुमारी कन्याओं के लिए त्याग का मार्ग प्रशस्त कर दिया, आज वर्तमान में हमें आर्यिका माताओं के दर्शन कराने का सम्पूर्ण श्रेय पूज्य माताजी को जाता है और ऐसे भगवन्तों एवं संतों के दर्शन, वंदन एवं अभिवंदन से हमारे कर्मों की निर्जरा होने के साथ-साथ सातिशय पुण्य का बंध होता है।
बंधुओं! जहाँ हम ऐसे महामना महापुरुषों का वंदन कर, उनका गुणानुवाद कर अपने जन्म को सार्थक समझते हैं वहीं एक बार हमारा मस्तक उन भव्यात्माओं के जन्मदाता माता-पिता के लिए भी झुकता है क्योंकि जिस प्रकार वृक्ष के हरे-भरे एवं फलदार होने में उसकी जड़ की मुख्यता है, जिस प्रकार किसी भी सुन्दर, आकर्षक एवं सुसज्जित मकान में उसकी नींव की प्रमुखता है, ठीक उसी प्रकार उन संतों की महानता, उनके व्यक्तित्व आदि में उनके माता-पिता की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। वस्तुत: सन्तान की प्रथम पाठशाला उसके माता-पिता होते हैं जिनके द्वारा प्रदत्त संस्कार सन्तान को महान से महान और अधम से अधम भी बना देते हैं और यह तो सभी जानते हैं कि जीवन में संस्कारों का विशेष महत्व होता है, हमारे जीवन के प्रत्येक क्षण में संस्कार अपनी अहम भूमिका निभाते हैं। उन महापुरुषों के जन्मदाता को नमन करते हुए मैं आपको परिचित कराती हूँ पूज्य आर्यिका श्री अभयमती माताजी के गृहस्थावस्था के पिता श्री छोटेलाल जी से, जिन्हें हम ‘‘चैतन्य रत्नाकर’’ कहते हुए स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते हैं।
शाश्वत तीर्थ अयोध्या के निकट बाराबंकी जिले के अन्तर्गत टिवैâतनगर नामक धर्मपरायण नगर में लाला श्री नौबतराय जी के सुपौत्र एवं लाला श्री धन्यकुमार जी के सुपुत्र श्रेष्ठी श्री छोटेलाल जी निवास करते थे। चार पुत्र एवं तीन पुत्रियों में द्वितीय पुत्र के रूप में जन्मे लाला जी को धार्मिक संस्कार विरासत में ही प्राप्त हुए थे। तभी तो ये प्रतिदिन देवदर्शन करके ही नाश्ता आदि लेते थे। इन्होंने बचपन में स्कूल में ३-४ कक्षा तक ही अध्ययन किया पुन: व्यापार में रुचि अधिक होने से यह कपड़े का व्यापार करने लगे। बचपन से ही प्रतिदिन मंदिर जाते, पानी छानकर पीते और रात्रि में भोजन नहीं करते थे। पिता धन्यकुमार ने परम्परा के अनुसार इन्हें आठ वर्ष की उम्र से ही अष्टमूलगुण दिलाकर जनेऊ पहना दिया था। व्यापारिक मुड़िया भाषा इन्हें अच्छी तरह से आती थी। १४-१५ वर्ष की छोटी सी उम्र में यह घोड़ा चलाना सीख गए और दो-चार साथियों के साथ घोड़े पर कपड़े लादकर ये टिवैâतनगर के बाहर गांवों में व्यापार करने लगे। देखते ही देखते यह कुशल व्यापारी बन गए और अपने भुजबल के श्रम से अच्छा धन कमाया और प्रतिष्ठित महानुभावों में गिने जाने लगे।
युवावस्था में इनका विवाह अवध प्रान्त के महमूदाबाद नगर के लाला श्री सुखपालदास जी की सुपुत्री मोहिनी देवी के साथ सम्पन्न हुआ। पति और पत्नी गाड़ी के उन दो पहियों के समान होते हैं जिनके साथ-साथ चलने से गृहस्थीरूपी मंजिल शीघ्र पार हो जाती है। मोहिनी देवी को भी अपने पिता से विरासत में सुसंस्कार प्राप्त हुए थे, इन्होंने अपने पिता से धार्मिक अध्ययन किया था फिर तो सोने में सुहागा की कहावत चरितार्थ हो गई और गृहस्थावस्था में प्रवेश कर ये दम्पत्ति धर्मध्यानपूर्वक अपना कालयापन करने लगे। इनके चार पुत्र एवं नौ पुत्रियाँ ऐसी १३ संतानें हुईं जिनके नाम क्रमश: इस प्रकार हैं-१. मैना २. शांति ३. वैâलाश ४. श्रीमती ५. मनोवती ६. प्रकाश ७. सुभाष ८. कुमुदनी ९. रवीन्द्र १०. मालती ११. कामिनी १२. माधुरी और १३. त्रिशला (आगे क्रमश: इनकी प्रत्येक संतान का परिचय दिया गया है)।
कहा जाता है कि कोई भी व्रत अथवा नियम जब लिया जाता है तब उसकी परीक्षा अवश्य होती है। वैâसी ही व्यापारिक व्यस्तता क्यों न हो, भले ही दिन में १२-१ बज जाये किन्तु लाला जी घर में आकर मंदिर जाकर दर्शन करके ही भोजन करते थे। घर में स्वाध्याय भी करते थे जिसकी प्रेरणा इन्हें अपनी बड़ी पुत्री मैना से प्राप्त हुई थी। बाद में कभी-कभी तो शास्त्र पढ़ते-पढ़ते गद्गद हो जाते और उसमें मग्न हो जाते और उस आनंद की अनुभूति वह घर में पत्नी व बच्चों को शास्त्र की बातें सुनाते हुए करते थे। उनका प्राय: यही कहना था कि भइया! तुम चाहे धर्म-कर्म थोड़ा करो, व्रत उपवास मत करो, किन्तु झूठ मत बोलो, दूसरों का गला मत काटो अर्थात् बेईमानी करके दूसरों का पैसा मत हड़पो, किसी को कड़ुवे वचन मत बोलो, यही सबसे बड़ा धर्म है। यह धर्म ही मनुष्य को मनुष्यता का पाठ सिखाता है। अन्यथा मनुष्य न रहकर पशु अथवा हैवान बन जाता है।
उन्हें यह दृढ़ विश्वास था कि तीर्थयात्रा करने से, दान देने से, मंदिर में धन लगाने से, धार्मिक उत्सवों में बोलियाँ आदि लेने से, सच्चे साधुओं की सेवा-वैय्यावृत्ति करने से व्यापार बढ़ता है इसलिए वे सदा इन कार्यों में भाग लिया करते थे। अवध प्रान्त में शाश्वत तीर्थ अयोध्या से कुछ दूरी पर भगवान धर्मनाथ की जन्मभूमि रत्नपुरी है, उसकी वेदीप्रतिष्ठा के समय की बात है, लाला श्री छोटेलाल जी ने उसमें वेदी का पर्दा खोलने की बोली ली थी, जब श्री जी को विराजमान करने का समय आया, तब लालाजी ने अपनी बड़ी पुत्री कु. मैना से पर्दा खुलवाया। चूँकि मैना में धार्मिक संस्कार कुछ विशेष ही थे अत: उन्होंने ज्यों ही महामंत्र का स्मरण कर पर्दा खोला कि अकस्मात् वहाँ पर एक दिव्य प्रकाश चमक उठा। वहाँ पर खड़े हुए सभी की आँखों में चकाचौंध सा हुआ और सबने प्रतिमा जी का चमत्कार और लाला जी की सुपुत्री का विशेष पुण्य जान उच्चस्वर में जय-जयकार के नारे लगाना शुरू कर दिया।
लाला जी को जिनमंदिर में होने वाली धार्मिक मीटिंगों में भी विशेष रुचि थी। वे प्राय: सभी मीटिंगों में जाते और वहाँ से आकर समाज की सारी गतिविधियों की जानकारी घर के सभी सदस्यों को दिया करते थे तथा दुकान पर होने वाली विशेष बातों को घर जाकर पुत्री मैना को सुनाया करते थे। वस्तुत: लाला जी को अपनी पुत्री मैना पर बड़ा गर्व था, जब से कु. मैना ९-१० वर्ष की हुई थी, तभी से लालाजी अपनी पुत्री मैना को अपने पुत्र के समान समझकर घर एवं दुकान की तिजोरी की चाबियाँ, रुपये-पैसे आदि सब उन्हीं को संभलवाते थे। इन्होंने जब अपना नया घर बनवाना प्रारंभ किया तो स्वयं खड़े रहकर बनवाया, ये प्रारंभ से ही बहुत परिश्रमी थे, पिता धन्यकुमार जी इनके श्रम से बहुत ही प्रसन्न रहते थे अत: वृद्धावस्था में वे अपने इन्हीं पुत्र छोटेलाल की बैठक में रहा करते थे और लालाजी भी अपने पिता की सेवा-सुश्रूषा अपने हाथों करके बहुत प्रसन्न होते थे, सन् १९३९ में आपके पिताजी स्वर्गस्थ हो गये।
आज के युग में प्राय: युवा संतान अपने वृद्ध माता-पिता की इज्जत करना तो दूर, उन्हें अपने साथ भी नहीं रखना चाहते हैं परन्तु लाला श्री छोटेलाल जी उन सबके लिए एक मिशाल थे, उन्होंने अपनी माँ के वचनों का सदैव सम्मान किया था। कभी भी उन्हें अपमानजनक वचन स्वयं कहना तो दूर, बहुत दूर तक किसी अन्य को कहने भी नहीं दिया था, माँ के मन को किसी बात से दु:ख हो, ऐसा कार्य भी कभी नहीं करते थे। माँ की इच्छा के अनुसार अपनी बहनों को बुलाकर सदा उन्हें यथायोग्य मान-सम्मान एवं वस्तुएँ दिया करते थे। साथ ही घर तथा व्यापार के प्रत्येक कार्यों में अपने बड़े भाई बब्बूमल और छोटे भाई बालचंद की सलाह से ही कार्य किया करते थे, इन्होंने यह आदर्श अपने घर में भाइयों के जीवित रहने तक बराबर जीवित रखा था, आज के युग में प्रत्येक भाई के लिए यह उदाहरण अनुकरणीय है।
लाला जी में एक गुण विशेष था वह यह कि यह अपनी पुत्रियों को रत्न के समान मानते थे यदि कोई भी इनसे कह देता कि लाला छोटेलाल जी! आपकी तो इतनी सारी पुत्रियाँ हैं तो इन शब्दों से इन्हें ऐसी नाराजगी होती कि शान्त स्वभावी लालाजी उसी समय चिढ़कर कहते कि भइया! तुम कौन होते हो मेरी पुत्रियों की गिनती करने वाले, मेरी सभी बेटियाँ अपना-अपना भाग्य लेकर आई हैं…इत्यादि। उन्होंने जीवन में कभी भी अपनी पुत्रियों को डांटा नहीं अपितु कभी भाइयों ने कुछ कह दिया तो उन्हें डांटा, साथ ही जो लोग कन्या के जन्म से दु:खी होते या चिन्ता व्यक्त करते तो उन्हें समझाया ही है। उनका कहना था भइया! कन्या भी एक रत्न है, अपनी संतान है, उसे भार क्यों समझते हो? उसके जन्म के समय दु:खी क्यों होते हो? देखो! पुरुष तो एक ही कुल की शोभा है, जबकि कन्या तो दो कुलों की शोभा होती है और फिर जन्म लेते ही सब अपना-अपना भाग्य साथ लाई हैं, वे किसी के भाग्य का रत्ती भर भी नहीं ले जाएंगी। यह उदाहरण भी वर्तमान युग के माता-पिता के लिए अनुकरणीय ही नहीं, सर्वथा ग्रहण करने योग्य है। इससे कन्या का मन तो जीवन भर प्रसन्न रहता ही है, साथ ही भाई-बहनों का भी आपस में जीवन भर सच्चा प्रेम बना रहता है। यही कारण है कि आज भी उस हरे-भरे परिवार में कन्याओं के प्रति माता-पिताओं का विशेष अनुरागभाव देखा जाता है। आज भी सबको अपने माता-पिता का उतना ही प्रेम मिल रहा है जितना उनके भाइयों को मिलता है, इतना ही नहीं, वâभी-कभी तो पिता छोटेलाल जी ने पुत्र से भी अधिक पुत्रियों को प्यार दिया था। पुत्रों की गलती होने पर फटकार भी देते थे किन्तु पुत्रियों को स्वप्न में भी नहीं फटकारा था।
लाला जी अत्यन्त मोही प्रकृति के थे, इन्हें अपनी प्रत्येक संतान से बहुत मोह था। जब इनकी बड़ी पुत्री मैना को छोटी सी उम्र में वैराग्य हुआ और अनेक प्रयत्नों के बावजूद भी उन्होंने दीक्षा ले ली, तब पिता छोटेलाल जी को बहुत ही दु:ख हुआ था। उसके बाद में वे साधुओं के संघ में आते-जाते रहते थे किन्तु कुछ जन्मान्तर के संस्कार ही समझना चाहिए कि इनके सभी पुत्र-पुत्रियों ने जीवन में त्याग के लिए कदम उठाया है। उनमें जिनका पुरुषार्थ फल गया वे त्यागमार्ग में निकल गए और जो त्याग की ओर नहीं बढ़ सके, वे आज भी अपने परिवार सहित दान, पूजा, स्वाध्याय आदि में निरत हैं। इन त्यागी पुत्र-पुत्रियों के संघ में रहने के प्रसंग पर ये बहुत ही दु:खी हो जाते थे और लाखों प्रयत्नों से उन्हें रोकना चाहते थे।
सन् १९६९ की बात है, शायद उनके जीवन का अन्त समय नजदीक आ रहा था, इन्हें पीलिया हो गया, जिससे ये काफी अस्वस्थ रहने लग गये थे। चूँकि समय-समय पर पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी (कु. मैना) ने घर के सभी लोगों को यही शिक्षा दी थी कि जीवन का किया हुआ धर्मकार्य अगर अन्त समाधि बिगड़ जाए तो निरर्थक हो जाता है अत: पिता की अच्छी तरह से सल्लेखना करवा देना और उनके अंत समय में कोई भी उनके पास रोना नहीं। इस प्रकार माताजी की प्रेरणा से उनके पुत्रों के साथ-साथ सभी पुत्रवधुएँ और पुत्रियाँ भी उनके पास धार्मिक पाठ भक्तामर स्तोत्र, समाधिमरण आदि सुनाया करते थे। उनकी पत्नी मोहिनी देवी जी ने पतिसेवा करते हुए उनकी बीमारी में अन्त समय जानकर बहुत ही सावधानीपूर्वक उन्हें सम्बोधा था। जिस समय लाला जी अस्वस्थ थे, उस समय टिवैâतनगर में आचार्य श्री सुमतिसागर जी महाराज संघ सहित आ गए थे, तब मोहिनी जी ने आचार्यश्री से प्रार्थना की थी कि ‘‘महाराज जी! आप कृपया इन्हें सम्बोधन प्रदान करें। उस समय महाराज जी ने उन्हें बहुत ही सुन्दर शब्दों में सम्बोधित करते हुए कहा था कि लाला जी! तुमने आर्यिका ज्ञानमती जैसी पुत्री को जन्म देकर अपना जीवन धन्य कर लिया है, सभी यात्राएँ कर ली हैं और सभी साधुओं के दर्शन करके उनका उपदेश भी सुना है, उन्हें आहार देना, वैयावृत्ति आदि भी आपने किया है। इस नश्वर शरीर से आपने अपने जीवन के प्रत्येक क्षण का सदुपयोग किया है अत: अपने कुटुम्ब से मोह छोड़कर शरीर से भी मोह छोड़कर अपना अगला भव सुधार लो।’’ इत्यादि प्रकार से महाराज जी ने बहुत कुछ कहा था। जहाँ लालाजी लेटते थे, वहीं उनके सामने ऊपर में ज्ञानमती माताजी की पुरानी पिच्छी टंगी रहती थी, जिसे देखकर वे हाथ जोड़कर उसे नमस्कार करते थे। उनका अंत समय जानकर औषधि-अन्न आदि का त्याग कराकर उन्हें धर्मरूपी अमृत ही पिलाया जा रहा था, उन्होंने पत्नी मोहिनी देवी एवं अपने सभी पुत्र-पुत्रवधुओं आदि परिवारजनों से क्षमायाचना करके स्वयं क्षमाभाव धारण कर लिया था।
करीब मरण के एक घण्टे पूर्व की बात है, पुत्री मैना को याद करते हुए उन्होंने कहा था कि मुझे मेरी ज्ञानमती माताजी के दर्शन करवा दो। जब उन्होंने यह इच्छा कई बार व्यक्त की, तब मोहिनी देवी तथा बड़े पुत्र वैâलाशचंद ने कहा कि इस समय माताजी यहाँ से बहुत दूर जयपुर में विराजमान हैं, उन्होंने आपके लिए आशीर्वाद भिजवाया है। पुनरपि जब वह बोले-मुझे मेरी ज्ञानमती माताजी के दर्शन करा दो। तब घर के लोगों ने उनके सामने एक महिला जो कि ब्रह्मचारिणी थी, श्वेत साड़ी पहने थी, उसे लाकर खड़ा कर दिया और कहा कि ये आपकी ज्ञानमती माताजी आ गई हैं, दर्शन कर लो। तब उन्होंने आँख खोलकर देखा और सिर हिलाकर धीरे से कहा-‘‘ये हमारी माताजी नहीं हैं, तब उनके मस्तक पर माताजी की पुरानी पिच्छी लग गई। बस फिर! पिताजी (छोटेलाल जी) ने णमोकार मंत्र सुनते-सुनते आँख बंद कर ली पुन: वापस नहीं खोली। उस समय उनका अंत जानकर भी कोई रोया नहीं अपितु उनके पास मौजूद सभी कुटुम्बीजनों ने लगातार जोर-जोर से णमोकार मंत्र का पाठ लगभग एक घण्टे तक किया और उनकी सुन्दर समाधि बनाई, जिसकी आकांक्षा प्रत्येक गृहस्थ को रहती है और विरले ही लोगों को अन्त समाधि का सौभाग्य मिल पाता है।
इस प्रकार गणिनी ज्ञानमती माताजी की स्मृति हृदय में लेकर सभी परिवार के मुख से णमोकार मंत्र सुनते-सुनते लाला छोटेलाल जी ने २५ दिसम्बर १९६९ के दिन इस नश्वर शरीर को छोड़कर स्वर्गधाम को प्राप्त किया और यह उनकी पत्नी और पुत्र-पुत्रियों की गंभीरता और महानता ही रही कि प्राण निकल जाने के बाद भी सब एक घण्टे तक णमोकार मंत्र बोलते रहे, कोई भी वहाँ रोया-धोया नहीं। अनन्तर जब शरीर ठण्डा हो गया, तब रोना-धोना प्रारंभ हुआ। सभी ने पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी की आज्ञा को ध्यान में रखकर पिता के जीवित क्षणों तक धैर्य धारण कर णमोकार मंत्र सुनाया, उनकी सच्ची सेवा की तथा अच्छी सल्लेखना कराकर एक आदर्श उपस्थित किया है।
कहा जाता है कि जो अपने जीवन को सत्कर्मों में लगाता है उसे सुगति की प्राप्ति होती है। श्रीमान् लाला छोटेलाल जी ने अपने जीवन में संघ दर्शन, आहारदान, तीर्थयात्रा, गुरुओं के उपदेश तथा आशीर्वाद ग्रहण आदि से जो पुण्य संचित किया था, इसी के फलस्वरूप उनकी अच्छी आयु बंध गई होगी और यही कारण भी है कि अंत समय घर के अंदर इतने बड़े परिवार के बीच में रहते हुए भी उनकी अच्छी समाधि का लाभ मिला है। आज लालाजी हमारे और आपके बीच में इस नश्वर तन से भले ही न हों परन्तु उनकी संतानों को देखकर हम उनकी महानता का परिज्ञान कर सकते हैं। उनके द्वारा उन संतानों को प्रदत्त संस्कार आज पुष्पित और पल्लवित होकर अपनी सुरभि से समस्त संसार को महका रहे हैं। धन्य हैं ऐसे पिता, जिनके व्यक्तित्व और कृतित्व के सम्मुख समूचा विश्व नतमस्तक है।