-डॉ. जीवन प्रकाश जैन, जम्बूद्वीप
गुरु और शिष्य के उपकार तथा कृतज्ञता के उदाहरण प्राचीन इतिहास में तो अनेकों मिल जाते हैं किन्तु वर्तमान में हमें बिरले ही ऐसे व्यक्ति मिलेंगे, जिन्होंने अपने जीवन में कृतज्ञता का अद्वितीय आदर्श उपस्थित किया हो। इसी क्रम में पूज्य क्षुल्लक श्री मोतीसागर जी का व्यक्तित्व आज प्रत्यक्ष में हमारे सामने उपस्थित हुआ, जिन्होंने प्रारंभ से ही अपने जीवन का लक्ष्य बनाया कि गुरु के प्रति अपना सर्वस्व समर्पित कर अपने कर्तव्य का पालन करना। कृतज्ञता और समर्पण भाव ये दोनों ही गुण व्यक्ति में दुर्लभता से मिलते हैं। पूज्य क्षुल्लक श्री मोतीसागर जी महाराज के इन गुणों के कारण आज हमें विश्व प्रसिद्ध जम्बूद्वीप रचना के दर्शन हो रहे हैं, जो अपने आप में एक अद्वितीय कृति है। सम्राट चन्द्रगुप्त और एकलव्य के उदाहरण हम पढ़ते हैं, जिन्होंने अपनी गुरुभक्ति के बल पर अपने चरम लक्ष्य की प्राप्ति की थी। उसी के समान आदर्श प्रस्तुत करने वाले पूज्य क्षुल्लक जी, जिन्होंने अंत में मुनि अवस्था प्राप्त कर समाधिमरण प्राप्त किया, का संक्षिप्त परिचय यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है-
दिनाँक ३० सितम्बर सन् १९४०, आश्विन वदी १४, सोमवार के शुभ दिन सनावद (म.प्र.) के सुप्रसिद्ध श्रेष्ठी श्री अमोलकचंद जी सर्राफ की धर्मपत्नी श्रीमती रूपाबाई ने एक पुत्ररत्न को जन्म दिया, जिसका नाम रखा गया ‘मोतीचंद’। आप कुल चार भाई और तीन बहनें रहे। बड़ी दो बहनें-श्रीमती गुलाबबाई व चतुरमणीबाई, एक छोटी बहन श्रीमती किरणबाई एवं इन्दरचंद, प्रकाशचंद और अरुण कुमार ये तीनों छोटे भाई। आपके परिवार का मूल व्यवसाय सर्रापेâ का रहा है।
ब्रह्मचर्य व्रत- इतने सम्पन्न परिवार के मध्य रहते हुए भी मोतीचंद जी को सांसारिक वैभव में रुचि नहीं रही और सन् १९५८ में १८ वर्ष की उम्र में ही स्वरुचि से आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर लिया।
वैराग्य का कारण- प्रत्येक माता-पिता का सपना होता है कि मेरा बेटा बड़ा होकर घर के सारे कार्यभार को संभाल ले तथा शादी करके वह अपना सुखी गृहस्थ जीवन व्यतीत करे। किन्तु मोतीचंद जी के लिए ये सब व्यर्थ था क्योंकि उन्होंने पहले ही अपना रास्ता चयन कर लिया था। व्यापार के कार्यों में रचे-पचे रहने पर भी वे हमेशा वङ्कानाभि चक्रवर्ती की वैराग्य भावना की इन पक्तियों का चिंतन करते रहते थे-
किस ही घर कलिहारी नारी, कै बैरी सम भाई।
किस ही के दु:ख बाहर दीखे, किस ही उर दुचिताई।।
कोई पुत्र बिना नित झूरे, होय मरे तब रोवे।
खोटी संतति सो दुख उपजे, क्यों प्राणी सुख सोवे।।
मोह महारिपु बैर विचारे, जग जिय संकट टारे।
घर कारागृह वनिता बेड़ी, परिजन जन रखवारे।।
धार्मिक कार्यकलाप- इनका गृहस्थ जीवन बड़ा सुकुमाल था, इसलिए ब्रह्मचर्य व्रत होते हुए भी कभी साधु संघ में रहने का विचार नहीं आया। ये अपने नगर में होने वाले प्रत्येक धार्मिक कार्य में अग्रणी रहते थे तथा समय-समय पर धार्मिक झाकियों व नाटकों के माध्यम से भी समाज में धार्मिक अभिरुचि जागृत किया करते थे। स्वयं भी नाटकों में भाग लेते थे। एक बार अपने नाटक में निकलंक के पात्र का अभिनय किया, वही अभिनय आपके जीवन में अमिट छाप छोड़ गया कि संघर्षों के समय भी अपने कर्तव्य से विचलित नहीं होना, जो कि व्यक्ति को उन्नति के पथ पर ले जाता है। धार्मिक पाठशाला भी चलाते थे, जिससे बच्चों में धार्मिक संस्कार बनें।
संघ में प्रवेश- ‘‘होनहार को कौन टाल सकता है’’ इस सूक्ति के अनुसार मोतीचंद जी के जीवन में भी एक नया अध्याय जुड़ा और सन् १९६७ में पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी का संघ सहित सनावद में चातुर्मास हुआ। पूज्य माताजी को जब इनके ब्रह्मचर्य व्रत के बारे में पता चला, तो उन्होंने मोतीचंद को संबोधित किया। चातुर्मास के पश्चात् पूज्य माताजी के साथ मुक्तागिरी की यात्रा का कार्यक्रम बना। उसके पश्चात् पूज्य माताजी आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज (आचार्य शांतिसागर परम्परा के द्वितीय पट्टाचार्य) के संघ में आ गई, तभी सन् १९६८ में ब्र. मोतीचंद भी संघ में अध्ययन के उद्देश्य से आये और माताजी की प्रेरणा से संघस्थ शिष्य के रूप में रहने लगे।
धार्मिक शिक्षण- आपने पूज्य ज्ञानमती माताजी के पास गोम्मटसार जीवकांड, कर्मकांड, कातंत्र व्याकरण, परीक्षामुख, न्यायदीपिका, अष्टसहस्री आदि ग्रंथों का अध्ययन किया। तीन-चार वर्षों के अंदर आपने शास्त्री व न्यायतीर्थ की परीक्षाएँ उत्तीर्ण कर लीं। तब से सदैव आप पूज्य माताजी के पास रहकर चारों अनुयोगों के स्वाध्याय में तत्पर रहे।
जम्बूद्वीप रचना निर्माण में प्रमुख भूमिका- सन् १९६५ में पूज्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के मस्तिष्क में जम्बूद्वीप रचना की योजना आई। जिसे साकाररूप देने में पूज्य माताजी के निर्देशानुसार कई स्थानों का निर्णय हुआ, किन्तु जिस भूमि पर योग था, वहीं इस रचना का निर्माण हुआ। ब्र. मोतीचंद जी ने संघ में आते ही पूज्य माताजी को यह लिखकर दिया कि ‘‘मैं तन-मन-धन से आपकी इस योजना को सफल बनाऊँगा और आपके संयम में किसी प्रकार की बाधा नहीं आने दूँगा। आपको किसी से पैसे की याचना नहीं करनी पड़ेगी।’’ तब से लेकर सदैव उन्होंने अपने कर्तव्य का पालन कर इस अद्भुत रचना का निर्माण हस्तिनापुर की धरा पर सम्पन्न होने में प्रमुख भूमिका निभाई। यदि आपको वर्तमान का चामुण्डराय भी कहा जाये, तो कोई अतिशयोक्ति नहंीं होगी, क्योंकि आपने पूज्य माताजी को जन्मदात्री माँ से भी अधिक मानकर उनकी आज्ञा का शत-प्रतिशत पालन किया है।
ज्ञानज्योति रथ के साथ भारत भ्रमण- ४ जून सन् १९८२ को भारत की राजधानी दिल्ली के लालकिला मैदान से पूज्य माताजी की प्रेरणा व आशीर्वाद से तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने ‘‘जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति रथ’’ का भारत भ्रमण हेतु प्रवर्तन किया। आपने १०४५ दिन तक रथ के साथ पूरे भारत में भ्रमण किया और अपने ओजस्वी वक्तव्यों से जन-जन तक अहिंसा व जैनधर्म के सिद्धान्तों का प्रचार किया। तब से अंत तक आप जम्बूद्वीप स्थल पर होने वाली प्रत्येक गतिविधियों-निर्माण कार्य, साहित्य प्रकाशन आदि कार्यों में अपना पूर्ण मार्गदर्शन प्रदान कर व्यवस्थाओं को सुचारू रूप से चलाने में समय देते रहे।
त्यागमय जीवन- माताजी ने इनकी सुकुमारता देखकर इन्हें अधिक त्याग की प्रेरणा नहीं दी किन्तु सन् १९७१ में पूज्य ज्ञानमती माताजी की जननी मोहिनी देवी को अजमेर में आचार्य श्री धर्मसागर महाराज से आर्यिका दीक्षा लेते और उनका केशलोंच होते देखकर मोतीचंद जी के हृदय में भारी परिवर्तन आया कि जब यह १३ सन्तानों को जन्म देकर ५७ वर्ष की उम्र में दीक्षा ले सकती हैं, तो मैं संयम-नियम का पालन क्यों नहीं कर सकता ? अर्थात् तब से उनके मन में भी दीक्षा लेने की भावना जागृत हुई। आपने सन् १९८१ में स्वरुचि से माताजी के समक्ष नमक व मीठे का त्याग कर दिया, जो सन् १९८५ की जम्बूद्वीप पंचकल्याणक प्रतिष्ठा तक रहा। ४ वर्ष के पश्चात् आपने उस त्याग के संकल्प को पूर्ण किया।
दीक्षा के पथ पर- सन् १९८५ से आप दीक्षा के लिए आतुर थे किन्तु सन् १९८७ में आपने पूज्य माताजी के समक्ष जम्बूद्वीप स्थल पर ही दीक्षा लेने की भावना व्यक्त की, जिसे पूज्य माताजी ने सहर्ष स्वीकृति प्रदान की।
जम्बूद्वीप स्थल पर प्रथम ऐतिहासिक दीक्षा समारोह- पूज्य माताजी की भावनानुसार परमपूज्य आचार्यश्री विमलसागर महाराज ने संघ सहित हस्तिनापुर आगमन की स्वीकृति प्रदान की तथा फाल्गुन शुक्ला नवमी, ८ मार्च १९८७ को शुभ मुहूर्त में विशाल जनसमुदाय के बीच आचार्यश्री ने मोतीचंद जी पर क्षुल्लक दीक्षा के संस्कार कर ‘‘मोतीसागर’’ नाम प्रदान किया। पूज्य आचार्यश्री ने अपने शुभाशीर्वाद में कहा कि-आज मुझे इन्हें दीक्षा देते हुए गर्व है क्योंकि मोतीचंद जी की दीक्षा एक चक्रवर्ती की दीक्षा जैसी है। जिस प्रकार चक्रवर्ती ने छह खण्ड पर विजय प्राप्त की थी, उसी प्रकार इन्होंने पूरे भारत में भ्रमण कर धर्म का डंका बजाया है। इस दीक्षा महोत्सव से हस्तिनापुर की पुण्य भूमि पर एक और इतिहास स्वर्णाक्षरों में अंकित हो गया।
पीठाधीश पद- दीक्षा के पश्चात् भी पूज्य क्षुल्लक मोतीसागर जी संस्थान की गतिविधियों में पूर्ववत् निर्देशन प्रदान कर अपने पद के योग्य कार्यों को सम्पन्न करवाते थे। अपने स्वाध्याय, पठन-पाठन व अपनी चर्या का निर्बाधरूप से पालन करते थे। इसी प्रकार सदा जम्बूद्वीप तीर्थ एवं यहाँ से संबंधित अन्य संस्थाओं का संचालन ऐसे ही त्यागी व्रती, गृहविरत व्यक्तित्व के द्वारा होता रहे, इसके लिए पूज्य माताजी ने सन् १९८७ में जम्बूद्वीप तीर्थ पर एक धर्मपीठ बनाकर यहाँ पीठाधीश पद की स्थापना की। पूज्य माताजी के द्वारा निर्धारित नियमानुसार पीठाधीश पद पर सदैव सातवीं से ग्यारहवीं प्रतिमा धारी तक के किसी भी योग्य एवं संस्थान के प्रति समर्पित त्यागी-व्रती को अभिषिक्त किया जा सकता है। पूज्य माताजी द्वारा ऐसी धर्मपीठ पर सर्वप्रथम पीठाधीश के रूप में क्षुल्लक श्री मोतीसागर जी महाराज को २ अगस्त सन् १९८७, श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन आसीन किया गया।
प्रत्येक कार्य में अग्रणी रहते थे- पूज्य माताजी द्वारा प्रारंभ किये गये प्रत्येक कार्य में पूज्य क्षुल्लक श्री मोतीसागर जी महाराज का विशेष योगदान रहता था। किसी भी कार्य को किस प्रकार पूर्ण सफलता एवं अनुशासनपूर्वक सफल किया जाये, यही इनका प्रयास रहता था। सन् १९९३ में पूज्य माताजी ने अयोध्या तीर्थक्षेत्र के लिए विहार किया तथा १९९४ में वहाँ भगवान ऋषभदेव का महामस्तकाभिषेक कराया। पुन: सन् १९९५ में महाराष्ट्र प्रान्त के मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र के लिए विहार किया तथा लम्बी यात्रा कर वहाँ विशाल पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं मस्तकाभिषेक कराया। पुन: वहाँ से आकर सन् १९९७ में दिल्ली में ‘‘चौबीस कल्पद्रुम महामण्डल विधान’’ का महा आयोजन हुआ, जो दिल्ली के इतिहास में ही नहीं अपितु सारे भारत में प्रथम बार एक अद्भुत अनुष्ठान था। इन सभी कार्यों में पूज्य क्षुल्लक जी ने अपनी पूरी शक्ति लगाकर इन्हें सफलतापूर्वक सम्पन्न कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इनके कार्यकलापों को देखकर पूज्य माताजी ने सन् १९९७ में दिल्ली के लाल मंदिर की सभा में ‘‘धर्म दिवाकर क्षुल्लकरत्न’’ की उपाधि से विभूषित किया। २२ मार्च १९९८ को दिल्ली के लालकिला मैदान से पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा एवं मंगल आशीर्वाद से ‘‘भगवान ऋषभदेव समवसरण श्रीविहार’’ रथ का उद्घाटन हुआ, जिसका प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भारत भ्रमण हेतु प्रवर्तन किया।
४ फरवरी २००० को भगवान ऋषभदेव अंतर्राष्ट्रीय निर्वाण महामहोत्सव वर्ष मनाने की घोषणा हुई, जिसके अन्तर्गत सर्वप्रथम ४ से १० फरवरी तक दिल्ली के लाल किला मैदान में भगवान ऋषभदेव मेले का आयोजन किया गया, जिसका उद्घाटन माननीय प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने किया। प्रधानमंत्री जी के साथ तथा हजारों श्रद्धालुओं ने वैâलाश पर्वत के समक्ष निर्वाण लाडू चढ़ाकर अपने को धन्य माना। पश्चात् संगोष्ठियों, प्रश्नमंच, भाषण, वादविवाद प्रतियोगिता आदि के माध्यम से भगवान ऋषभदेव का खूब प्रचार-प्रसार किया गया।
इस प्रकार पूज्य पीठाधीश क्षुल्लक श्री मोतीसागर जी महाराज के निर्देशन में पूज्य माताजी की प्रेरणा से अनेकानेक कार्यक्रम सम्पन्न हुए तथा विभिन्न तीर्थों का निर्माण एवं विकास भी सम्पन्न हुआ। तीर्थ निर्माण एवं विकास की शृँखला में वर्ष २००१ में भगवान ऋषभदेव की दीक्षा एवं केवलज्ञान भूमि प्रयाग-इलाहाबाद में ‘‘भगवान ऋषभदेव तपस्थली तीर्थ प्रयाग’’ का निर्माण एवं विकास किया गया। वर्तमान में यह तीर्थ जैन समाज में विशेष प्रसिद्धि को प्राप्त हो रहा है और प्रतिदिन सैकड़ों भक्तजन यहाँ आकर युग की आदि में भगवान ऋषभदेव द्वारा ली गई दीक्षा के क्षणों को याद करते हैं और उन महामना की भक्ति कर पुण्य अर्जित करते हैं। प्रयाग-इलाहाबाद का यह तीर्थ पूज्य महाराज जी के मन को सर्वाधिक आकर्षित करता था।
इसी शृँखला में वर्ष २००३-२००४ में भगवान महावीर स्वामी की जन्मभूमि कुण्डलपुर (नालंदा) बिहार का विकास किया गया, जहाँ अत्यन्त आकर्षक स्वरूप में बने विभिन्न जिनमंदिर एवं भगवान का जन्म महल ‘नंद्यावर्त महल’ आज बिहार प्रान्त ही नहीं अपितु सम्पूर्ण देश एवं विदेश में प्रसिद्धि को प्राप्त हो चुका है। सम्मेदशिखर से लौटने वाले हजारों यात्री प्रतिदिन इस तीर्थ का दर्शन करके भगवान महावीर स्वामी के जन्म से पवित्र इस भूमि को नमन करके महान पुण्य का बंध करते हैं।
तीर्थ निर्माण एवं विकास की शृँखला में भगवान पुष्पदंतनाथ की जन्मभूमि कावंâदी एवं पूज्य महाराज जी की विशेष भावना के फलस्वरूप निर्मित गणिनी ज्ञानमती दीक्षा तीर्थ, माधोराजपुरा (जयपुर) राज. में भी भव्य रचनाओं के निर्माण सम्पन्न हुए। जून २०१० में कावंâदी (देवरिया-गोरखपुर) उ.प्र. में भव्य जिनमंदिर का पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं नवम्बर २०१० में माधोराजपुरा (जयपुर) राज. में भव्य सम्मेदशिखर की प्रतिकृति का पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव भारी धूमधाम के साथ पूज्य पीठाधीश क्षुल्लक मोतीसागर महाराज जी के ही सान्निध्य में सम्पन्न हुआ था।
पूज्य महाराज जी के मन में हस्तिनापुर तीर्थ के लिए एक विशेष भावना व्याप्त थी। वे चाहते थे कि चूँकि हस्तिनापुर भगवन शांतिनाथ-कुंथुनाथ-अरहनाथ की जन्मभूमि है अत: कम से कम इस तीर्थ भूमि पर भगवान शांतिनाथ की विशाल प्रतिमा अवश्य स्थापित करना चाहिए। पूज्य माताजी के आशीर्वाद से उनकी यह भावना भी अत्यन्त भव्य रूप में फलीभूत हुई और कर्मयोगी ब्र. रवीन्द्र कुमार जैन के कुशल नेतृत्व में भगवान शांतिनाथ जी के साथ ही भगवान कुंथुनाथ एवं भगवान अरहनाथ की ३१-३१ फुट उत्तुंग विशाल प्रतिमाओं का निर्माण करके जम्बूद्वीप तीर्थ पर पंचकल्याणकपूर्वक फरवरी २०१० में स्थापित किया गया। इस पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव में पूज्य माताजी ससंघ के साथ पूज्य १०८ मुनि श्री अमितसागर महाराज ससंघ ने विशेष सान्निध्य प्रदान किया एवं क्षुल्लक मोतीसागर जी महाराज ने भी उत्साहपूर्वक भाग लेकर महान पुण्य अर्जित किया।
चूँकि सनावद नगरी पूज्य महाराज जी एवं देश के अनेक मुनि-आर्यिकाओं की जन्मस्थली के नाम से प्रसिद्ध है अत: पूज्य महाराज की सदा ये भावना थी कि वहाँ पर कोई एक विशेष तीर्थ का निर्माण होवे अत: उनकी प्रेरणा से सन् १९९६ में सनावद नगरी में पूज्य माताजी के आशीर्वाद से उनके संघ सान्निध्य में णमोकार धाम तीर्थ का शिलान्यास होकर णमोकार धाम तीर्थ का उद्भव हुआ।
इस प्रकार अपने जीवन में महान कार्यों को जन्म देने वाली चारित्रचन्द्रिका गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के चरण सान्निध्य में ४५ वर्षों के इस दीर्घ समय में उनसे अनुभव ज्ञान प्राप्त कर अपने ज्ञान व चारित्र की वृद्धि करते हुए पूज्य क्षुल्लक श्री मोतीसागर जी महाराज ने अपने जीवन को सार्थक किया है। पूज्य महाराज जी ने २६ सितम्बर सन् २०००, आश्विन कृष्णा चतुर्दशी को अपने जीवन के ६० वर्ष पूर्ण कर ६१वें वर्ष में प्रवेश किया था, तब उनकी षष्ठीपूर्ति का विशेष आयोजन सन् २००१ में पूज्य माताजी के ससंघ सान्निध्य में कमल मंदिर, प्रीतविहार-दिल्ली में आयोजित किया गया था।
इस प्रकार अनेक गुणों के पुंज पूज्य महाराज जी ने अपने जीवन का पल-पल एवं क्षण-क्षण धर्म एवं गुरु की आराधना में व्यतीत किया और अंत में १० नवम्बर २०११, कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा, गुरुवार को मध्यान्ह १.०५ बजे मुनि अवस्था प्राप्त करके तीर्थ और गुरु की छत्र छाया में धर्म का उद्बोधन सुनते हुए निर्विकल्प समाधिमरण प्राप्त किया। ऐसे पूज्य महाराज की समाधि पर हम इस संक्षिप्त परिचय के माध्यम से उनके कार्यों, उपदेशों और आदर्शों के प्रति नमन करते हुए उस रत्नत्रयधारी आत्मा के प्रति भावभीनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।