गुरु और शिष्य के उपकार तथा कृतज्ञता के अनेकों उदाहरण प्राचीन इतिहास में पढ़ने को मिल जाते हैं। वर्तमान में हमें विरले ही ऐसे व्यक्ति मिलेंगे, जिन्होंने अपने जीवन में कृतज्ञता का अद्वितीय आदर्श उपस्थित किया हो किन्तु पूज्य क्षुल्लक श्री मोतीसागर जी का व्यक्तित्व आज प्रत्यक्ष में हमारे सामने है जिन्होंने प्रारंभ से ही अपने जीवन का लक्ष्य बनाया कि गुरु के प्रति अपना सर्वस्व समर्पित कर अपने कर्तव्य का पालन करना। कृतज्ञता और समर्पणभाव ये दोनों ही गुण व्यक्ति में दुर्लभता से मिलते हैं। पूज्य क्षुल्लक श्री मोतीसागर जी महाराज के इन गुणों के कारण ही आज हमें विश्वप्रसिद्ध जम्बूद्वीप रचना के दर्शन हो रहे हैं जो अपने आप में एक अद्वितीय कृति है। सम्राट चन्द्रगुप्त और एकलव्य के उदाहरण हम पढ़ते हैं जिन्होंने अपनी गुरुभक्ति के बल पर अपने चरम लक्ष्य की प्राप्ति की। उसी आदर्श के रूप में आज पूज्य क्षुल्लक जी हमारे समक्ष हैं।
दिनाँक ३० सितम्बर सन् १९४० ई. आश्विन वदी १४, सोमवार, वि.सं. १९८६ के शुभ दिन सनावद (म.प्र) के सुप्रसिद्ध श्रेष्ठी श्री अमोलकचंद जी सर्राफ की धर्मपत्नी श्रीमती रूपाबाई ने एक पुत्ररत्न को जन्म दिया, जिसका नाम रखा गया ‘‘मोतीचंद’’। चार भाई और तीन बहनें हैं। बड़ी दो बहनें-श्रीमती गुलाबबाई व चतुरमणीबाई। एक छोटी बहन श्रीमती किरणबाई एवं इन्दरचंद, प्रकाशचंद और (स्व.) अरुण कुमार ये तीनों छोटे भाई हैं। आपके परिवार का मूल व्यवसाय सर्राफे का रहा है। वर्तमान में भी आपके लघु भ्राता सर्राफे का व्यापार कर अपने दैनिक कर्तव्यों का पालन करते हैं।
ब्रह्मचर्य व्रत-इतने सम्पन्न परिवार के मध्य रहते हुए भी मोतीचंद जी को सांसारिक वैभव में रुचि नहीं रही और सन् १९५८ में १८ वर्ष की लघु उम्र में ही स्वरुचि से आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर लिया।
वैराग्य का कारण-प्रत्येक माता-पिता का सपना होता है कि मेरा बेटा बड़ा होकर घर के सारे कार्यभार को संभाल ले तथा शादी करके वह अपना सुखी गृहस्थ जीवन व्यतीत करे किन्तु मोतीचंद जी के लिए ये सब व्यर्थ था क्योंकि उन्होंने पहले ही अपना रास्ता चयन कर लिया था। व्यापार के कार्यों में रचे-पचे रहने पर भी वे हमेशा वङ्कानाभि चक्रवर्ती की वैराग्य भावना की इन पंक्तियों का चिन्तन करते रहते थे-
किस ही घर कलिहारी नारी, के बैरी सम भाई।
किस ही के दु:ख बाहर दीखे, किस ही उर दुचिताई।
कोई पुत्र बिना नित झूरे, होय मरे तब रोवे।
खोटी संतति सो दुख उपजे, क्यों प्राणी सुख सोवे।।
मोह महारिपु बैर विचारे, जग जिय संकट टारे।
घर कारागृह वनिता बेड़ी परिजन जन रखवारे।।
धार्मिक कार्यकलाप-इनका गृहस्थ जीवन बड़ा सुकुमार था, इसलिए ब्रह्मचर्य व्रत होते हुए भी कभी साधुसंघ में रहने का विचार नहीं आया। ये अपने नगर में होने वाले प्रत्येक धार्मिक कार्य में अग्रणी रहते थे तथा समय-समय पर धार्मिक झाँकियों व नाटकों के माध्यम से भी समाज में धार्मिक अभिरुचि जागृत किया करते थे। स्वयं भी नाटकों में भाग लेते थे। एक बार आपने नाटक में निकलंक के पात्र का अभिनय किया, वही अभिनय आपके जीवन में अमिट छाप छोड़ गया कि संघर्षों के समय भी अपने कार्य से विचलित नहीं होना, जो कि व्यक्ति को उन्नति के पथ पर ले जाता है। आप धार्मिक पाठशाला भी चलाते थे जिससे बच्चों में धार्मिक संस्कार बनें।संघ में प्रवेश-‘‘होनहार को कौन टाल सकता है’’ इस सूक्ति के अनुसार मोतीचंद जी के जीवन में भी एक नया अध्याय जुड़ा और सन् १९६७ में पूज्य आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी का संघ सहित सनावद में चातुर्मास हुआ। पूज्य माताजी को जब इनके ब्रह्मचर्य व्रत के बारे में पता चला तो उन्होंने मोतीचंद को सम्बोधित किया। चातुर्मास के पश्चात् पूज्य माताजी के साथ मुक्तागिरी की यात्रा का कार्यक्रम बना। उसके पश्चात् पूज्य माताजी आचार्य शिवसागर जी महाराज के संघ में आ गईं तभी सन् १९६८ में ब्र. मोतीचंद भी संघ में अध्ययन के उद्देश्य से आये और माताजी की प्रेरणा से संघस्थ शिष्य के रूप में रहने लगे।
धार्मिक शिक्षण-आपने माताजी के पास गोम्मटसार जीवकांड, कर्मकांड, कातंत्र व्याकरण, परीक्षामुख, न्यायदीपिका, अष्टसहस्री आदि ग्रंथों का अध्ययन किया। तीन-चार वर्षों के अंदर आपने शास्त्री व न्यायतीर्थ की परीक्षाएँ उत्तीर्ण कर लीं। तब से आज तक आप पूज्य माताजी के पास रहकर चारों अनुयोगों के स्वाध्याय में तत्पर रहते हैं।जम्बूद्वीप रचना का श्रेय-सन् १९६५ में पूज्य ज्ञानमती माताजी के मस्तिष्क में जम्बूद्वीप रचना की योजना आई, जिसे साकाररूप देने में पूज्य माताजी के निर्देशानुसार कई जगहों का निर्णय हुआ किन्तु जिस भूमि पर योग था, वहीं इस रचना का निर्माण हुआ। ब्र. मोतीचंद जी ने संघ में आते ही पूज्य माताजी को यह लिखकर दिया कि ‘‘मैं तन-मन-धन से आपकी इस योजना को सफल बनाऊँगा और आपके संयम में किसी प्रकार की बाधा नहीं आने दूँगा। आपको किसी से पैसे की याचना नहीं करनी पड़ेगी।’’ तब से लेकर आज तक अपने कर्तव्य का पालन कर इस अद्भुत रचना का निर्माण हस्तिनापुर की धरा पर सम्पन्न कराया। यदि आपको वर्तमान का चामुण्डराय भी कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी, क्योंकि आपने पूज्य माताजी को जन्मदात्री माँ से भी अधिक मानकर उनकी आज्ञा का शत-प्रतिशत पालन किया है।ज्ञानज्योति रथ के साथ भारत भ्रमण-४ जून सन् १९८२ को भारत की राजधानी दिल्ली के लालकिला मैदान से पूज्य ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा व आशीर्वाद से तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने ‘‘जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति रथ’’ का भारत भ्रमण हेतु प्रवर्तन किया। आपने १०४५ दिन तक रथ के साथ पूरे भारत में भ्रमण किया और अपने ओजस्वी भाषण से जन-जन तक अहिंसा व जैनधर्म के सिद्धान्तों का प्रचार किया। तब से आज तक आप जम्बूद्वीप स्थल पर होने वाली प्रत्येक गतिविधियों, निर्माणकार्य, साहित्य प्रकाशन आदि कार्यों में अपना पूर्ण मार्गदर्शन प्रदान कर व्यवस्थाओं को सुचारूरूप से चलाने में समय देते हैं।
त्यागमय जीवन-माताजी ने इनकी सुकुमारता देखकर कभी इन्हें त्याग की प्रेरणा नहीं दी किन्तु ‘‘जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन’’ वाली सूक्ति के अनुसार अपने आप ही आपके मन में त्याग भावना उत्पन्न हुई। आपने सन् १९८१ में स्वरुचि से माताजी के समक्ष नमक व मीठे का त्याग कर दिया जो सन् १९८५ की जम्बूद्वीप पंचकल्याणक प्रतिष्ठा तक रहा। ४ वर्ष की लम्बी अवधि के पश्चात् ही आपका त्याग का संकल्प पूर्ण हुआ।
दीक्षा के पथ पर-४-५ वर्षों से आप दीक्षा के लिए आतुर थे किन्तु सन् १९८७ में जम्बूद्वीप रचना का निर्माण पूर्ण होने पर आपने माताजी के समक्ष जम्बूद्वीप पर ही दीक्षा लेने की भावना व्यक्त की, जिसे पूज्य माताजी ने सहर्ष स्वीकृति प्रदान की।जम्बूद्वीप स्थल पर प्रथम ऐतिहासिक दीक्षा समारोह-पूज्य माताजी की भावनानुसार परमपूज्य आचार्यश्री विमलसागर जी महाराज ने संघ सहित हस्तिनापुर आगमन की स्वीकृति प्रदान की तथा फाल्गुन शुक्ला नवमी, ८ मार्च १९८७ को शुभ मुहूर्त में विशाल जनसमुदाय के बीच आचार्यश्री ने मोतीचंद पर क्षुल्लक दीक्षा के संस्कार कर ‘‘मोतीसागर’’ नाम प्रदान किया। पूज्य आचार्यश्री ने अपने शुभाशीर्वाद में कहा कि आज मुझे इन्हें दीक्षा देते हुए गर्व है क्योंकि मोतीचंद जी की दीक्षा एक चक्रवर्ती की दीक्षा जैसी है। जिस प्रकार चक्रवर्ती ने छह खण्ड पर विजय प्राप्त की थी उसी प्रकार इन्होंने पूरे भारत में भ्रमण कर धर्म का डंका बजाया है। इसी दीक्षा महोत्सव में हस्तिनापुर की पुण्य भूमि पर एक और इतिहास स्वर्णाक्षरों में अंकित हो गया।
पीठाधीश पद-दीक्षा के पश्चात् भी पूज्य क्षुल्लक मोतीसागर जी संस्थान की गतिविधियों में पूर्ववत् निर्देशन प्रदान कर अपने पद के योग्य कार्यों को सम्पन्न करवाते हैं। अपने स्वाध्याय, पठन-पाठन व अपनी चर्या का निर्बाधरूप से पालन कर रहे हैं। पूज्य माताजी ने २ अगस्त सन् १९८७, श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन आपको संस्थान के ‘‘पीठाधीश’’ पद पर आसीन किया।
प्रत्येक कार्य में अग्रणी रहते हैं-पूज्य माताजी द्वारा प्रारंभ किये गये प्रत्येक कार्य में पूज्य क्षुल्लक श्री मोतीसागर जी महाराज का विशेष योगदान रहता है। किसी भी कार्य को किस प्रकार पूर्ण सफलता एवं अनुशासनपूर्वक सफल किया जाये, यही इनका प्रयास रहता है। सन् १९९३ में पूज्य माताजी ने अयोध्या तीर्थक्षेत्र के लिए विहार किया तथा १९९४ में वहाँ भगवान ऋषभदेव का महामस्तकाभिषेक कराया पुन: सन् १९९५ में महाराष्ट्र प्रान्त के मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र के लिए वहाँ के ट्रस्टियों के विशेष आग्रह पर विहार किया तथा लम्बी यात्रा कर वहाँ विशाल पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं मस्तकाभिषेक कराया पुन: वहाँ से आकर सन् १९९७ में दिल्ली में ‘‘चौबीस कल्पद्रुम महामण्डल विधान’’ का महा आयोजन हुआ, जो दिल्ली के इतिहास में ही नहीं अपितु सारे भारत में प्रथम बार एक अद्भुत अनुष्ठान था। इन सभी कार्यों में पूज्य क्षुल्लक जी ने अपनी पूरी शक्ति लगाकर इन्हें सफलतापूर्वक सम्पन्न कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इनके कार्यकलापों को देखकर पूज्य माताजी ने इन्हें सन् १९९७ में दिल्ली के लाल मंदिर की सभा में ‘‘धर्म दिवाकर क्षुल्लकरत्न’’ इस उपाधि से विभूषित किया। २२ मार्च १९९८ को दिल्ली के लालकिला मैदान से पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा एवं मंगल आशीर्वाद से ‘‘भगवान ऋषभदेव समवसरण श्रीविहार’’ रथ का उद्घाटन हुआ, जिसका प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भारत भ्रमण हेतु प्रवर्तन किया।
४ फरवरी २००० को भगवान ऋषभदेव अन्तर्राष्ट्रीय निर्वाण महोत्सव वर्ष मनाने की घोषणा हुई जिसके अन्तर्गत सर्वप्रथम ४ से १० फरवरी तक दिल्ली के लाल किला मैदान में भगवान ऋषभदेव मेले का आयोजन किया गया, जिसका उद्घाटन माननीय प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने किया। प्रधानमंत्री ने तथा हजारों श्रद्धालुओं ने वैâलाशपर्वत के समक्ष निर्वाणलाडू चढ़ाकर अपने को धन्य माना। अनेक संगोष्ठियों, प्रश्नमंच, भाषण, वादविवाद प्रतियोगिता आदि के माध्यम से भगवान ऋषभदेव का खूब प्रचार-प्रसार हुआ। जिसमें पूज्य क्षुल्लक जी प्रत्येक व्यक्ति को बोलने के लिए उत्साहित कर मार्गदर्शन प्रदान करते रहते थे तथा पूज्य माताजी की प्रेरणा से स्थापित अखिल भारतीय दिगम्बर जैन महिला संगठन की महिलाओं को विशेषरूप से प्रेरणाएँ प्रदान करते हैं। पूज्य माताजी काr प्रेरणा से भगवान ऋषभदेव की दीक्षा एवं ज्ञानकल्याणक भूमि प्रयाग-इलाहाबाद में निर्मित ‘‘तीर्थंकर ऋषभदेव तपस्थली’’ एवं भगवान महावीर की जन्मभूमि कुण्डलपुर में निर्मित ‘‘नंद्यावर्त तीर्थ’’ निर्माण में भी आपका विशेष निर्देशन प्राप्त हुआ।इस प्रकार अपने जीवन में महान कार्यों को जन्म देने वाली चारित्रचन्द्रिका गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के चरण सानिध्य में रहते हुए आपने इस दीर्घ समय में उनसे अनुभव ज्ञान प्राप्त कर अपने ज्ञान व चारित्र की वृद्धि कर अपने जीवन को सार्थक किया है। पूज्य क्षुल्लकरत्न श्री मोतीसागर जी महाराज स्वस्थ रहते हुए इसी प्रकार आगे भी अपने मार्गदर्शन एवं अनुभव ज्ञान से जन-जन को लाभान्वित करते रहें, यही उनके भावी जीवन के लिए मेरी मंगलकामना है।