समाहित विषयवस्तु
१. शिष्यों-रचनाओं और कार्यों की गणना कठिन।
२. सम्पूर्णता-कार्यों की विशेषता।
३. श्रेष्ठता-रचनाओं की विशेषता।
४. रत्नत्रय निर्दोषता-शिष्यों की विशेषता।
५. कार्यकलाप-निष्काम, निस्पृह, निर्नाम भाव से।
६. कार्यों-कृतियों की निरंतरता, सूर्य-पवनवत्।
७. उत्तमोत्तम-सुपात्र शिष्य संग्रहण।
८. उदारचरितानांतु वसुधैव कुटुम्बकम्।
९. सबके लिए प्रेरक, ऊर्जावान-घर और बाहर का भेद नहीं।
१०. श्रावक-श्राविका, मुनि-आर्यिका सभी को ज्ञानदान।
११. स्वयं अभीक्ष्ण-ज्ञानोपयोग में लीन।
१२. तीन सौ ग्रंथों की रचना-एक रिकार्ड।
१३. विगत दो हजार वर्षों में प्रथम शास्त्र लेखिका।
१४. हर वर्ग, हर स्तर, हर विधा, हर शैली का उत्तम साहित्य-सृजन।
१५. साहित्य में भावपक्ष और कलापक्ष का सुंदर समन्वय।
१६. हिन्दी-संस्कृत-प्राकृत-कन्नड़ आदि भाषाओं में साहित्य सृजन।
१७. साहित्य स्वान्त: सुखाय के साथ सर्वान्त: सुखाय भी।
१८. एक ग्रंथ एक मंदिर निर्माण के समान उत्तम, ऐसे ३०० ग्रंथ निर्माण किए।
१९. स्व-पर के लिए स्वाध्याय के द्वार खोले।
२०. माताजी ने जितना लिखा है, हम उतना पढ़ भी नहीं सकते।
२१. चारों अनुयोगों के ग्रन्थ लिखे।
२२. सिद्धांतों को पुस्तकों से निकालकर व्यवहारिक रूप प्रदान किया।
२३. जैन भूगोल को साकार प्रदान करने वाली प्रथम महान व्यक्तित्व।
२४. नर से भी बढ़कर नारी ने कार्य कर दिखाया।
२५. जम्बूद्वीप एवं तेरहद्वीप रचनाएँ अमर, अनुपम, अलौकिक, अनन्वय, बुद्धि कौशल को प्रकट करने वाली रचनाएँ हैं।
२६. जम्बूद्वीप परिसर पृथ्वी पर मानव निर्मित स्वर्ग है।
२७. जैन धर्म की प्राचीनता सिद्ध करना माताजी जैसे दिव्य व्यक्तित्व की क्षमता से ही संभव हो सका।
२८. पाठ्य पुस्तकों में वर्षों से मुद्रित भ्रमित अंशों को शुद्ध कराना माताजी का जैनधर्म के लिए अनुपम वरदान है।
२९. तीर्थंकर जन्मभूमियों का जीर्णोद्धार माताजी के सकारात्मक उत्तम चिन्तन का फल है।
३०. माताजी की प्रकृति उत्तम पुरुषार्थी है, जिस कार्य को हाथ में लेती हैं, उत्तमता से पूर्ण करके ही विराम लेती हैं।
३१. माताजी के कार्यों को देखकर विस्मय विमुग्ध हो अहँ की भावना त्याग लोग दाँतों तले अंगुली दबा लेते हैं।
३२. अधिक लेखन श्रम से माताजी कई बार अस्वस्थ हो गई किन्तु निरंतरता में व्यवधान नहीं आया।
३३. षट्खंडागम, अष्टसहस्री, मूलाचार जैसी कठिन कृतियों को सरल भाषा और सुपाच्य बनाकर सर्वोपयोगी बना देना माताजी की उत्तम शैली और क्षमता का प्रतीक है।
३४. पूजाओं और विधानों की रचना इस युग के लिए माताजी का अनुपम अवदान है। सूखी कठिन भक्ति गंगा में आपने रस की महाधारा प्रवाहित कर दी है।
३५. माताजी की रचनाओं की विशेषता यह है कि जो कुछ लिखती हैं, प्रामाणिक एवं उद्धरण के साथ लिखती हैं।
३६. आपकी रचनाओं में अनेकांतवाद का सुंदर समन्वय है।
३७. मांगीतुंगी में १०८ फुट ऊँची भगवान आदिनाथ की खड्गासन प्रतिमा विश्व की प्रतिमाओं में सबसे ऊँची एवं बड़ी प्रतिमा होगी।
३८. कुण्डलपुर (नालंदा) का विकास कराके भगवान महावीर की वास्तविक जन्मभूमि को माताजी ने भारत के नक्शे पर उजागर कर दिया।
३९. माताजी की प्रेरणा से त्रिलोक शोध संस्थान एवं वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला जैसी जीवन्त संस्थाओं की स्थापना से ज्ञान और साहित्य के प्रसार में अनुपम योगदान हुआ है।
४०. ज्ञानज्योति रथ एवं समवसरण रथ द्वारा माताजी ने जैनधर्म का भारत के कोने-कोने में प्रचार कर अनूठा कार्य किया है।
४१. जैसे जल सदा प्रवाहमान रहता है, वैसे ही माताजी की कार्य श्रृंखला हमेशा आगे ही बढ़ती रहेगी।
यथा महोदधि जलराशि का, रहा असंभव पाना पार।
अथवा जैसे नाम-नक्षत्रों, की संख्या है अपरम्पार।।
गिरि सुमेरु की शिखर शिखरियाँ, कोई नहीं गिन पाया है।
माताजी के कार्यों को भी, कोेई नहीं लिख पाया है।।१५८७।।
लिखे कई ने, किन्तु अधूरे, नहीं पूर्णता आ पाई।
क्योंकि माता के कार्यों की, कभी नहीं इति आ पाई।।
चलते रहते पूज्याश्री के, क्षेत्र अनेकों क्रिया-कलाप।
वे भी अतिनिष्काम भाव से, निस्पृह-शांत और चुपचाप।।१५८८।।
जब तक हम करते हैं गणना, लिखते हैं कृतियों के नाम।
तब तक एक और लिख जाती, निष्फल होता प्राणायाम।।
क्या-क्या कार्य किए माताजी, हम तो गिन ना पाते हैं।
तब तक कार्यों की सूची में, नाम नये जुड़ जाते हैं।।१५८९।।
जैसे गंगा बिना स्पृहा, सबकी प्यास बुझाती है।
जैसे लदी फूलों की डाली, परहित को झुक जाती है।।
ज्यों पर्जन्य तो रहता नभ में, भू-पर करता है छाया।
बस, वैसा ही माताजी का, हम को कार्य समझ आया।।१५९०।।
सूर्य सदा चलता ही रहता, करता नहीं कभी विश्राम।
पवन सदा बहता ही रहता, नहिं लेता क्षण एक विराम।।
बस वैसे ही माताजी की, स्वर्ण लेखिनी का उपकार।
ज्ञानज्योति फैलाती जग में, करें क्षेत्र का जीर्णोद्धार।।१५९१।।
दीक्षा देकर शिष्य संग्रहण, रहता सब संतों का काम।
पूज्य आर्यिका ज्ञानमती भी, इसको दिया पूर्ण अंजाम।।
रहा नहीं उद्देश्य आपका, संख्या शिष्य बढ़ाना मात्र।
चंदन-मोती-रवि से उत्तम, चयन किए अत्यंत सुपात्र।।१५९२।।
माताजी हैं महा पारखी, मणि-मुक्ता सबका है ज्ञान।
जिसको शुभाशीष दे देतीं, हो जाता उसका कल्याण।।
किस-किस का उल्लेख करें हम, यहाँ तो लम्बी सूची है।
उदार नीति संतों की सचमुच, होती धरा समूची है।।१५९३।।
मोक्षमार्ग पर कदम बढ़ाने, किया स्वयं संयम स्वीकार।
अन्यों को भी मार्ग दिखाया, दी प्रेरणा बारम्बार।।
यही नहीं, दीक्षा दिलवाई, संयम पथ आरूढ़ किया।
धन्य-धन्य माँ ज्ञानमती ने, जग का अत्युपकार किया।।१५९४।।
आप कहेंगे नाम बताओ, तो कुछ एक गिनाये हैं।
पद्मा-जिनमति आदि आर्यिका, संभव-श्रेष्ठ बनाये हैं।।
श्री ब्रह्मचारी राजमल्लजी, बने हुए थे बस गागर।
प्रेरित कर दीक्षा दिलवाई, हुए आचार्य अजितसागर।।१५९५।।
माता श्री मोहिनीदेवी, का भी किया महत् उपकार।
गृहकारा से छुड़वा करके, बना दिया रत्नभंडार।।
नहिं केवल दीक्षा दिलवाई, अपितु स्वयं भी दीक्षा दी।
मनोवती अनुजा को माता, किया आर्यिका अभयमती।।१५९६।।
बहन माधुरी मार्ग दिखाया, संयम पथ आरूढ़ किया।
स्वयं आर्यिका दीक्षा देकर, पूज्य चंदना बना दिया।।
संगति का प्रभाव पड़ता है, यथा गुरू वैसी भगिनी।
ज्ञानाभ्यास निरन्तरता से, हुर्इं आप प्रज्ञाश्रमणी।।१५९७।।
नगर सनावद रहने वाले, चंदमोतियों के आगर।
माताजी के शुभाशीष से, हुए आप मोतीसागर।।
मोती-मोती ही रह जाते, अगर न जुड़ता स्वर्णिम तार।
माताजी के गुण प्रसाद से, मोती बने कंठ के हार।।१५९८।।
जिसके मन करुणा की धारा, बहती चाहे जगकल्याण।
उसका मन कैसे न रखता, अपने प्रिय अनुज का ध्यान।।
ब्रह्मचारी श्री रवीन्द्र कुमार जी, ये भी रही आपश्री देन।
नहीं कमीr थी घर में कुछ भी, घर में रह पाते सुख चैन।।१५९९।।
बारम्बार प्रेरणा पाकर, आजन्म ब्रह्मव्रत ग्रहण किया।
अवधप्रांत के सबसे पहले, ब्रह्मयुवक सम्मान लिया।।
उत्तम वक्ता, सुुष्ठुलेखक, कार्य कुशल, कर्मठ, विद्वान्।
सूझबूझ के धनी मनीषी, जगत् कर्मयोगी पहचान।।१६००।।
माताजी के योग्य शिष्य दो, मोतीसिंधु-रवीन्द्रकुमार।
लगता ये सब पूर्व जन्म के, हैं आपस में रिश्तेदार।।
जैसे सुंदर-स्वरूप वृषभ दो, रथ को सफल बनाते हैं।
वैसे ज्ञानज्योति के रथ में, इन दोनों को पाते हैंं।।१६०१।।
माताजी के सकल शिष्य हैं, दर्शन-ज्ञान-चारित्र धनी।
स्वाध्यायरत-लेखक-वक्ता, विनयशील, अत्यंत गुणी।।
ब्रह्मचारिणी बहनें माँ की, रहतीं सदा साधनारत।
इन्दु-सारिका-स्वाति-बीना, आस्था-सब भव-भोग विरत।।१६०२।।
माताजी के शिष्य उपवन में, खिले हैं सुंदर सुमन अनेक।
अपने गुण सौरभ के द्वारा, प्राप्त प्रतिष्ठा है प्रत्येक।।
कौन, कहाँ पर, कितने, क्या हैं, इसका कोई हिसाब नहीं।
दीक्षित पंचाशत वर्षों की, इनकी कोई किताब नहीं।।१६०३।।
मुनि-आर्यिका, श्रावक-गृहिणी, माँ ने सबै पढ़ाया है।
श्रमण संघ को शिक्षा देने, का भी गौरव पाया है।।
पंचाशत वर्षों में बोलो, किनको क्या-क्या दान दिया।
कितनों को सन्मार्ग दिखाया, जीवन का निर्माण किया।।१६०४।।
अब तक बात हुई चेतन की, अब साहित्य पे आते हैं।
तीन शतक ग्रंथों की रचना, माता द्वारा पाते हैं।।
बीते दो हजार वर्षों में, माताजी पहली नारी।
जिनने ग्रंथ रचे महकायी, चतुरनुयोगरूप क्यारी।।१६०५।।
अपना घर तो सभी बनाते, नर तो क्या पशु-पक्षी भी।
लेकिन मंदिर, धर्म के आलय, मनुज बनाते कोई-कभी।।
पुण्यवान ही कर पाते हैं, ऐसे पर-उपकारी काम।
वे ना रहेें, रहेगा उनका, धु्रवतारा-सा उज्ज्वल नाम।।१६०६।।
एक ग्रंथ का लेखन करना, उनसे भी है उत्तम कार्य।
सबके बलबूते के बाहर, चाहे खर्चें राशि अपार।।
कोई नर यदि लेखन करता, जाते उसकी बलिहारी।
महाभाग्य हम कहेंगे उसको, अगर लिखे होकर नारी।।१६०७।।
एक ग्रंथ का लिखना ऐसा, जैसे इक मंदिर निर्माण।
उसमें राजित है जिनवाणी, यथा देह में राजित प्राण।।
मंदिर को तो मूर्ति चाहिए, वरना रहे अधूरा है।
लेकिन ग्रंथ सहित जिनवाणी, रहे स्वयं में पूरा है।।१६०८।।
मंदिर या कि धर्मशाला का, पुण्य कार्य करना निर्माण।
एक गूथ लिखना उससे भी, उत्तम है कहते धीमान्।।
श्रीमाताजी ज्ञानमती ने, लिखे तीन सौ ग्रंथ महान।
कितना पुण्य कमाया होगा, कौन लगा सकता अनुमान।।१६०९।।
बीते दो हजार वर्षों में, हुई नहीं ऐसी नारी।
जिसने तीन शतक ग्रंथों की, रचना की हो मनहारी।।
पकड़ी नहीं सलाई कर में, नहीं सुई से काम लिया।
ऐसी कलम चलाई माँ ने, अब तक नहीं विराम लिया।।१६१०।।
स्वाध्याय को कहा परम तप, लेखन है उससे बढ़कर।
अशुभ कर्म का संवर होता, बंधे नष्ट होते झड़कर।।
माताजी ने लेखन करके, अंत:करण पवित्र किया।
वही उतारा आचरण में, जीवन भी निष्कलुष किया।।१६११।।
माताजी की रचनाएँ सब, लिखी गयी हैं स्वान्त सुखाय।
या फिर झलक रहा है उनसे, रची गयी हैं शिष्य हिताय।।
आत्महितं कर्तव्यं पहले, फिर करणीय जगत् कल्याण।।
माताजी प्रत्येक कार्य में, रखतीं मूलमंत्र का ध्यान।।१६१२।।
पाँच दशक दीक्षित जीवन में, लिखे तीन सौ ग्रंथ अमर।
हम उनका स्वाध्याय करें तो, कर न सकेगे जीवन भर।।
हिन्दी-संस्कृत-प्राकृत-कन्नड़, रचे सभी में गं्रथ महान।
पढ़कर अचरज में पड़ जाते, अहंमन्य तजते विद्वान्।।१६१३।।
तीन शतक ग्रंथों की रचना, क्या कहलाती बंधु प्रवर।
दीक्षानंतर के वर्षों में, ये रचनाएँ लिखीं अमर।।
छोटी-मोटी नहीं समझना, अपने-आपमें ग्रंथ महान।
दाँतों तले दबाते अँगुली, लख-पढ़ बड़े-बड़े विद्वान्।।१६१४।।
प्रशंसनीय रचनायें वे ही, जो रखतीं उद्देश्य महान।
जिनके द्वारा भव्यजनों का, होता है आत्मिक कल्याण।।
परम पूज्य श्रीमाताजी का, ऐसा ही साहित्य अमर।
मोक्ष प्राप्ति की प्रशस्त प्रेरणा, मिलती रहती जीवनभर।।१६१५।।
आर्यिका रत्न, परम विदुषी माँ, किए सम्पादित ग्रंथ अनेक।
विपुल ज्ञान के दर्पण हैं वे, विस्मय होता उनको देख।।
निर्दोष और प्रामाणिक सब कुछ, कठिन साधना श्रम के फल।
उनके भीतर जिनवच गंगा, प्रवहमान रहती अविरल।।१६१६।।
मुनिधर्म की व्याख्या वाला, प्राचीन ग्रंथ श्रीमूलाचार।
संस्कृत से हिन्दी टीका कर, माँ ने किया महत् उपकार।।
जैनभारती-मुनि दिगम्बर-जम्बूद्वीप-जैन भूगोल।
माताजी की मौलिक कृतियाँ, जैन धर्म की निधि अनमोल।।१६१७।।
जिससे तत्त्व बोध होता है, जिससे होता चित्तनिरोध।
जिससे होती शुद्ध आत्मा, जिससे प्रशमित होता क्रोध।।
जिससे नशते राग-द्वेष हैं, मन विरक्ति के आते भाव।
वही ज्ञान है जिसके द्वारा, होता है संसार अभाव।।१६१८।।
श्रीमाताजी इसी ज्ञान से, रचनाएँ करतीं निर्दोष।
उनके कण-कण भरा हुआ है, जैनधर्म-ज्ञान का कोष।।
श्रीमाताजी की रचनाएँ, भू पर हैं अनमोल रतन।
धारण करें हृदय हम अपने, स्वाध्याय का करें यतन।।१६१९।।
पूज्य आर्यिका ज्ञानमती की, प्रतिभा विस्मयकारी है।
मौलिक लेखन-टीका-प्रवचन-ज्ञान साधना वाली है।।
साधारण जनता के साथ ही, विद्वानों को लाभ मिला।
आपश्री साहित्य सूर्य से, भव्य कमल वन सकल खिला।।१६२०।।
साहित्य सृजन उत्कृष्ट तपस्या, अनुष्ठान है परम पवित्र।
कार्य महत्तम विद्वत्ता का, कठिन साधना है सर्वत्र।।
लगातार जो श्रम करते हैं, प्राय: हो जाते बीमार।
रहा भुक्तभोगी कवि इसका, लीना चार बरस उपचार।।१६२१।।
श्रीमाताजी ज्ञानमती को, कईयक अवसर आये हैं।
जब श्रम आधिक्य के कारण, रोग शत्रु घिर आये हैं।।
काल-गाल से लौटीं माता, जिनभक्ती का रहा प्रभाव।
जिनवाणी-जिनदेव भक्ति से, पूरण होते सभी अभाव।।१६२२।।
अभीक्ष्ण ज्ञानयोगिनी माता, लेखन-चिंतन-मनन करें।
पल भर को विश्राम न लेतीं, और न समुचित शयन करें।
हो व्यवधान न अन्य किसी को, नहीं किसी को होवे भान।
उठ-उठ बैठें अंकित करने, लौट न पाये कोई मेहमान।।१६२३।।
विविध विधाएँ हैं साहित्यिक, शैली खण्ड-प्रबंध यथा।
गद्य-पद्य-नाटक-एकांकी, उपन्यास-समीक्षा-आत्मकथा।।
कथा-कहानी कुछ न छूटे, सबमें ग्रंथ लिखे मनहर।
सर्व प्रशंसित, उच्चस्तरी, मन आह्लादित हो पढ़कर।।१६२४।।
बहु आयामी प्रतिभा माँ की, विषयों पर अधिकार अमित।
दर्शन-धर्म-अध्यात्म-न्याय-सह, भू-ख-नीति-इतिहास-गणित।।
सब पर कलम चलाई माता, लार्इं मोती गहरे डूब।
नीरस की भी सरस प्रस्तुति, पढ़ने में आती न ऊब।।१६२५।।
बहुमुखी प्रतिभा है माँ की, बात न पूरी कह पायें।
षट्खंडागम-अष्टसहस्री, नियम-समय पर टीकाएँ।।
कष्टसहस्री को माताजी, मिष्टसहस्र बनाया है।
कुन्दकुन्द प्राकृत अमृत को, हिन्दी करके पिलाया है।।१६२६।।
श्रीमाताजी की रचनाएँ, जिनवच संजीवन बूटी।
जिसने कंठ उतारी मन से, उसकी भव-संगति टूटी।।
जैसे माता निज बालक को, दुलरा दवा पिलाती हैं।
वैसे सरल-सरस भाषा में, माताजी समझाती हैं।।१६२७।।
माताजी की रचनाएँ हैं, सभी वर्ग को उपयोगी।
बाल-युवा-विद्वान्-अल्पमति, साध्वी-श्रावक-मुनियोगी।।
सार्वभौम-सब काल के लिए, सृजित किया माँ ने साहित्य।
मिथ्यातमस हटाने वाला, जैसे प्रकटा हो आदित्य।।१६२८।।
कोमल बुद्धि बालकों के हित, माता लिखा श्रेष्ठ साहित्य।
संस्कार की किरणें उनमें, फूट रहीं जैसे आदित्य।।
कौन-कौन गुण श्लाघनीय हैं, जिनसे बनता बाल चरित्र।
कौन जान सकता है जिसका, माँ समान हो हृदय पवित्र।।१६२९।।
यथा नाम तथा गुण माता, आप ज्ञान अनुपम भंडार।
उनमें हम पाते प्रत्यक्ष हैं, जिनवाणी माता साकार।।
यह कलिकाल रहा अति दुर्लभ, इसमें पाना सम्यग्ज्ञान।
प्राप्त किया माँ ज्ञानमती ने, दिया अन्य को भी वरदान।।१६३०।।
सबसे पहले लिखे पूज्यश्री, सहस अठोत्तर प्रभु के नाम।
शुभारम्भ जब इतना सुंदर, क्यों न सफल हों सारे काम।।
तब से माता ज्ञानमती की, चली लेखिनी तीव्र गति।
रुकी न अब तक यदपि आये, आयु-स्वास्थ्य व्यवधान अति।।१६३१।।
शास्त्रों में माँ जिनवाणी को, कामधेनु भी कहा गया।
चार स्तनों का रूपक भी, अनुयोगों को दिया गया।।
पूज्याश्री की चली लेखिनी, सबके ऊपर एक समान।
हो जाता विस्मय विमुग्ध है, पढ़ने वाला हर विद्वान्।।१६३२।।
प्रथमानुयोग पंचपंचाशत, गं्रथों का मिलता उल्लेख।
रोम-रोम पुलकित हो जाता, सरल-सरस भाषा को देख।।
कठिन कथ्य को सरल बनाना, माताश्री उद्देश्य ललाम।
उपकृत पाठक श्रीचरणों में, करता बारम्बार प्रणाम।।१६३३।।
माताजी की मनहर शैली, उपन्यास का रूप लिए।
बालसुलभ रचनाओं द्वारा, बच्चों को साहित्य दिये।।
जैसे माँ का दूध सभी को, अति सुपाच्य हितकारी है।
वैसे यह साहित्य आपश्री, सबको मंगलकारी है।।१६३४।।
तीर्थंकर चौबीस-स्मृतियाँ, क्षेत्र अयोध्या-बाहुबली।
भरत का भारत-सती अंजना, पढ़के खिलती हृदय कली।।
आटे का मुर्गा-भक्ति-प्रतिज्ञा, रोहिणी नाटक-बालविकास।
जीवनदान-संस्कार-आर्यिका, शांतिनिधि-रचनाएँ खास।।१६३५।।
आज व्यस्तता का युग आया, रहता सबको समय अभाव।
सभी चाहते अल्पकाल में, पा जायें पौराणिक भाव।।
इसीलिए श्रीमाताजी ने, गागर में सागर समा दिया।
चरित यशोधर का छोटा, आटे का मुर्गा बना दिया।।१६३६।।
आया युग कॉमिक्स आज है, कथा-कहानी चित्र सहित।
यह विचार कर माताजी ने, सृजा साहित्य बालकों हित।।
भरत-बाहुबली चरित आपने, चित्रकथा का रूप दिया।
माताजी ने समय देखकर, तथा सृजन साहित्य किया।।१६३७।।
चरणानुयोग का विषय कठिन है, माताजी ने किया सरल।
टीका-मौलिक-अनुवादन कर, विंशति ग्रंथ रचे अविरल।।
चिंतामणि सिद्धांत समन्वित, षट्खंडागम-गोम्मटसार।
भावत्रिभंगी-त्रिलोकभास्कर, आदि लिखे आगम अनुसार।।१६३८।।
चरणानुयोग आचारशास्त्र के, श्रुत-अष्टादश ग्रंथ लिखे।
एक विषय पर, एक व्यक्ति के, इतने नहिं अन्यत्र दिखे।।
मुनि-आर्यिका-श्रावक चर्या, उत्तम कृतियाँ लिखीं अनेक।
टीका-मौलिक-अनुवादन से, पाठ्य-सुपाच्य हुई प्रत्येक।।१६३९।।
मुनिधर्म की व्याख्या वाला, प्राचीन ग्रंथ श्री मूलाचार।
संस्कृत से हिन्दी टीका कर, माता किया महत् उपकार।।
सहस्रनाम-कल्याणकल्पतरु-शिक्षण पद्धति मनहारी।
सामायिक-दशधर्म-आर्यिका, मुनि दिगम्बर उपकारी।।१६४०।।
सिद्धचक्र मंडलविधान का, पहले होता आयोजन।
अन्य नहीं कोई विधान का, रहा समाज में था प्रचलन।।
माताजी ने अति उपयोगी, लिखे सरस ब्यालीस विधान।
दिया जैन संस्कृति को माँ ने, अभूतपूर्व अक्षय अवदान।।१६४१।।
रही भक्ति में शक्ति अपरिमित, अल्पज्ञानियों की है प्राण।
उसके द्वारा वे चढ़ जाते, मोक्षमहल तक के सोपान।।
भक्ति मार्ग को माताजी ने, जीवन्त बनाया रच साहित्य।
चमक रहीं साहित्यगगन में, माँ कृतियाँ जैसे आदित्य।।१६४२।।
इन्द्रध्वज-कल्पद्रुम-शांति, सर्वतोभद्र-त्रैलोक्य विधान।
जम्बूद्वीप-नंदीश्वर-चौंसठ-श्रुतस्कंध-ऋषि-पंचकल्याण।।
लोकप्रिय पूजाएँ लिखकर, भक्तों का उपकार किया।
नवदेवताओं की पूजन, माँ उत्तम उपहार दिया।।१६४३।।
रत्न चवालिस माताजी ने, द्रव्यानुयोग के ग्रंथ रचे।
जैनभारती-अष्टसहस्री, कातंत्र रूपमाला विरचे।।
नियम-समय-न्याय-ज्ञानामृत, आलाप पद्धति-इष्टोपदेश।
सब अनुयोगी संग्रहीत हैं, आपश्री अमृत उपदेश।।१६४४।।
लेखक जैन गगन में अब तक, कोई नहीं नक्षत्र दिखे।
जिनने साध्वी या महिला ने, जैनधर्म पर ग्रंथ लिखे।।
माताश्री पहली महिला हैं, किया जिन्होंने उद्घाटन।
उनके पावन श्रीचरणों में, सम्यक् बारम्बार नमन।।१६४५।।
सम्यक् बोध करातीं सबको, माताजी की रचनाएँ।
यावच्चंद्र दिवाकर निश्चित, कीर्ति कौमुदी फैलाएँ।।
दो-क-चार पीढ़ियों भर ही, नाम बढ़ाती हैं संतान।
लेकिन नाम अमर कर देता, रचा गया साहित्य महान्।।१६४६।।
माताजी जो भी लिखती हैं, लिखती हैं उद्धरण के सह।
उनके कथन पूर्ण प्रामाणिक, कोई कुछ न सकता कह।।
प्रबल धारणाशक्ति आपश्री, ग्रंथ-पृष्ठ-पंक्ति तक याद।
अत: ग्रंथ-पृष्ठ अवलोकन, होता नहीं समय बर्बाद।।१६४७।।
विषय से हटकर यदि माताजी, रखतीं कोइ स्वतंत्र विचार।
तो वे पृथक्रूप से उनको, पाद टिप्पणी रखें उतार।।
आचार्यों के मूलकथन को, वे रखतीं अक्षुण्ण बना।
नहीं किसी पर थोपा चाहें, पूज्यश्री विचार अपना।।१६४८।।
सैद्धान्तिक ग्रंथों की माता, करतीं स्वयं प्रूफ की शुद्धि।
ताकि शेष नहीं रह पाये, किसी ग्रंथ में लेश अशुद्धि।।
उच्चकोटि सुंदर रचना में, यदि अशुद्धि कुछ रहती है।
तो मिश्री में कंकड़ जैसी, विज्ञों को बहुत खटकती है।।१६४९।।
ज्ञानप्रभाकर हैं माताजी, जिह्वा करे शारदा वास।
विनयशीलता-निरभिमानता, यह तो है सौवण्र्य सुवास।।
समाधान पाते जिज्ञासू, वात्सल्यरूप आशिष उपहार।
माताजी ने किया जगत् का, लेखन कर शत-शत उपकार।।१६५०।।
हिन्दी-संस्कृत-प्राकृत-कन्नड़, मराठी पर अधिकार समान।
सबमें हैं सुंदर रचनाएँ, नहिं प्रत्यक्ष को कोई प्रमाण।।
छंद शास्त्र वैदुष्य अपरिमित, किए सैकड़ों छंद प्रयुक्त।
कौन-कहाँ पर है उपयोगी, रस-अनुभूति-भाव से युक्त।।१६५१।।
माता कण्ठेवास सरस्वती, भाषा पर अनुपम अधिकार।
लिखने का अवसर आने पर, सब साधन रहते तैयार।।
गाथा-श्लोक-उद्धरण आदि, शब्द व्यंजना को तत्पर।
करनी पड़ती नहीं प्रतीक्षा, भाव प्रकट होते सत्वर।।१६५२।।
माताजी के मनमंदिर में, भाव-देवता आते ज्यों।
भाषा, शब्द प्रसूनों द्वारा, उनका स्वागत करती त्यों।।
दस-गुण-शक्ति समन्वित भाषा, करे भाव का उद्घाटन।
पूज्य आर्यिका ज्ञानमती का, शतश: श्लाघनीय लेखन।।१६५३।।
साहित्य क्षेत्र में माताजी का, है अनन्य-अनुपम अवदान।
चारों अनुयोगों की शिक्षा, सबको देता सम्यग्ज्ञान।।
माताजी की कलम सन्तुलित, पक्षपात से रहित सुदृष्टि।
अनेकांतवाद से मंडित, आपश्री साहित्यिक सृष्टि।।१६५४।।
माताजी की कीर्ति कौमुदी, सात समुन्दर पार गई।
करें प्रशंसा रचनाओं की, पाश्चात्य विद्वान् कई।।
परम पूज्य श्रीमाताजी का, व्यक्तित्व महाविस्मयकारी।
कीर्तिमान किए स्थापित, विविध क्षेत्र अचरजकारी।।१६५५।।
नगर-गाँव औ डगर-डगर में, जैनधर्म का ज्ञान दिया।
जलविहार-रथयात्रायों से, अलख जगा, प्रचार किया।।
अनेक विधानों की रचनाकर, पूजाओं का कर निर्माण।
जो उपकार किया भक्तों का, कर सकता है कौन बखान।।१६५६।।
भारत के कोने-कोने में, माताजी ने किया विहार।
दिया जगत् को आपश्री ने, व्यसनमुक्ति जीवन उपहार।।
उनका सन्निधान पाने को, लालायित है देश सकल।
उनके मंगल शुभाशीष से, हो जाते सब काम सफल।।१६५७।।
माताजी ऐतिहासिक नारी, पुरुष से बढ़कर कार्य किए।
सच तो यह है माताजी ने, तीर्थों को नव प्राण दिए।।
जो दीपक बुझने वाले थे, उनको देकर के स्नेह।
अमर बनाया सोने जैसी, लगी चमकने उनकी देह।।१६५८।।
चमत्कार को नमस्कार है, रहा जगत् का यही चलन।
इसीलिए अतिशय क्षेत्रों का, होता रहा है उद्धारण।।
तीर्थंकर कल्याण भूमियाँ, सदा उपेक्षा रहीं शिकार।
जीर्ण-शीर्ण हो गर्इं बिचारीं, सहते-सहते यह व्यवहार।।१६५९।।
सुविधाहीन दशा के कारण, यात्री ठहरें नहीं वहाँ।
बिन यात्री आमद न होती, बिन आमद उत्थान कहाँ।।
माताजी का शत-शत वंदन, उन्हें उठाया, ध्यान दिया।
जीर्णोद्धार प्रेरणा देकर, उनको जीवनदान दिया।।१६६०।।
माताजी की प्राप्त पे्ररणा, हस्तिनागपुर स्वर्ग हुआ।
शाश्वत क्षेत्र अयोध्या जी का, अद्भुत कायाकल्प हुआ।।
कुण्डलपुर-प्रयाग-बनारस, क्षेत्र गुणावा-राजगृही।
जीर्णोद्धारित हुए प्रकाशित, सुंदर हो गई पूज्यमही।।१६६१।।
महाराष्ट्र में मांगीतुंगी, दक्षिण का सम्मेदशिखर।
माताजी के शुभाशीष से, उसकी शोभा रही निखर।।
उस पर ऋषभदेव की प्रतिमा, शत-अठ फुट उत्तुंग खड़ी।
अखिल विश्व की प्रतिमाओं में, होगी ऊँची और बड़ी।।१६६२।।
बाहुबली भगवान की प्रतिमा, चामुण्डराय ने बनवाई।
उनकी अनुपम कीर्ति कौमुदी, अखिल विश्व में है छाई।।
सिद्धक्षेत्र मांगीतुंगी पर, यह प्रतिमा बन जायेगी।
माताजी की धर्म पताका, भी उन संग लहरायेगी।।१६६३।।
जैसे उडुगन बीच चंद्रमा, अतिशय शोभा पाता है।
वैसे क्षेत्रों में कुण्डलपुर, कुण्डल-सा मन भाता है।।
लख वीरानी रुके न यात्री, मात्र दर्शनों से था काम।
आज वहाँ सौन्दर्य बरसता, लगता है अतिशय अभिराम।।१६६४।।
किष्किन्धापुर या काकंदी, उत्तरभारत क्षेत्र महान्।
हुए यहाँ पर पुष्पदंत जिन, गर्भ-जन्म-तप त्रय कल्याण।।
मात्र भग्न अवशेष वहाँ हैं, सबको काल ने खाया है।
क्षेत्र पुनसरथापित करना, माँ ने लक्ष्य बनाया है।।१६६५।।
माताजी कुछ काम न करतीं, वे साध्वी हैं नारी हैं।
मात्र प्रेरणा देतीं माता, हम उनके आभारी हैं।।
पर बिन संतों प्राप्त प्रेरणा, कार्य न करते श्रावकगण।
दान और पूजा द्वारा ही, होते उनके पाप क्षरण।।१६६६।।
ज्ञानगुणालंकृत माताजी, शिक्षा-शिक्षण करतीं प्रेम।
क्योंकि बिना ज्ञानगुण जग में, पाया नहीं किसी ने क्षेम।।
त्रिलोक शोध संस्थान के द्वारा, हुआ मुद्रित साहित्य अमर।
तथा अनेक हुए आयोजित, लघु-वृहत् सेमिनार-शिविर।।१६६७।।
जैनधर्म के आदि प्रवर्तक, रहे आदिनाथ भगवान।
लेकिन भ्रमवश अज्ञानीजन, महावीर का लेते नाम।।
माताजी ने कुलपतियों का, सम्मेलन आहूत किया।
पाठ्य-पुस्तकों भूल सुधारी, माता अद्भुत कार्य किया।।१६६८।।
भक्ति मुक्ति का अनुपम साधन, मातृ विपुल साहित्य रचा।
पूजा-विधान-स्तोत्र-विनतियाँ, उत्तम से उत्तम विरचा।।
छंदबद्ध रचनाएँ माँ की, पा जाती हैं जब संगीत।
झूम-झूम कर गाते हैं सब, लाख-लाख जनता के बीच।।१६६९।।
करणानुयोग ग्रंथों में वर्णित, रचना जम्बूद्वीप महान्।
दी उतार माता ने भू-पर, कर गजपुर अनुकृति निर्माण।।
ज्ञान ज्योतिरथ हुआ प्रवर्तित, इसका देने सबको ज्ञान।
इंदिरागाँधी कृत उद्घाटन, रहा धर्म अतिशय अवदान।।१६७०।।
नारी होकर नर से गुरुतर, कर दिखलाये काम बड़े।
जिनकी यशगाथा को सुनकर, हो जाते हैं कान खड़े।।
जिनकी देख मेरु-सी निर्मिति, सबके उठ जाते हैं माथ।
उन आर्यिका ज्ञानमती को, वंदन करूँ जो़ड़द्वय हाथ।।१६७१।।
माताजी की रचनाओं में, भाव-कला दोनों का योग।
भावप्राण हैं, कला देह है, दोनों का स्वर्णिम संयोग।।
भाव प्रमुख हैं, इसीलिए माँ, रखतीं सदा भाव का ध्यान।
भाव भासना बिना न होता, वस्तु-कथ्य का सच्चा ज्ञान।।१६७२।।
माँ कृतियों में भाव झलकते, जैसे दर्पण में प्रतिबिम्ब।
स्वच्छ-यथावत् भावभासना, पढ़ते हो जाती अविलम्ब।।
रसानुभूति यदि नहीं हुई तो, हो जाता श्रम व्यर्थ सकल।
अत: ध्यान रखतीं माताजी, सम्प्रेषण होवे अविकल।।१६७३।।
परम पूज्य श्री माताजी को, रस-गुण-रीति अपरिमित ज्ञान।
रचे गये अतिशयी प्रभावक, विनती-पूजा-स्तोत्र-विधान।।
कथा-कहानी-प्रहसन-नाटक, उपन्यास-सिद्धांत-पुराण।
माताजी की जीवित कृतियाँ, उनमें निहित भाव के प्राण।१६७४।।
माताजी की रचनाओं का, कलापक्ष भी उज्ज्वल है।
भाषा-छंद-अलंकारों का, हर प्रयोग अति सुंदर है।।
भाषा सरल प्रवाहमयी है, जैसे गंगा की कल-कल।
भाव प्रकट करने में सक्षम, परिमार्जित, निर्दोष विमल।।१६७५।।
हिन्दी-संस्कृत-प्राकृत-कन्नड़, सब पर माता का अधिकार।
शब्दकोष श्रीमाताजी का, रखता सागर-सा विस्तार।।
परम पूज्य श्रीमाताजी जब, करें सरस्वती का अर्चन।
स्वत: सद्य एकत्रित होते, मनस्थाल में शब्द-सुमन।।१६७६।।
शब्दरत्न को भाव मुद्रिका, जड़तीं माता सोच-विचार।
कौन शब्द उपयुक्त कहाँ है, करता अधिक भाव उजियार।।
सुगठित वाक्य, मनोहर भाषा, शब्द चयन सुंदर अनुकूल।
लगते वंशीवादन करते, यथा कृष्ण युमना के कूल।।१६७७।।
परम पूज्य श्रीमाताजी को, छन्द शास्त्र का पूरा ज्ञान।
भावानुवूâल प्रयुक्त हुए हैं, स्तुति-पूजा-स्तोत्र-विधान।।
गीत अगर संगीत पकड़ ले, शोभा बढ़ती सहस गुनी।
भाव विशुद्धि भी बढ़ जाती है, कर्म निर्जरा सहस गुनी।।१६७८।।
शोभा काव्य बढ़ाने वाले, अलंकार भी हुए प्रयुक्त।
भाव व्यंजना करने वाले, यथायोग्य अतिशय उपयुक्त।।
केवल बाह्य प्रदर्शन करना, नहिं उनका उद्देश्य रहा।
किन्तु भावना को बल देना, केवल उनका लक्ष्य कहा।।१६७८।।
माताजी के कृतकार्यों का, कहाँ तक कोई करे बखान।
कहा गया जो स्वप्नमात्र है, यथा सिन्धु का बिन्दु समान।।
जो जन चाहें सचमुच लखना, करें वंदना पूज्य स्थान।
पुण्यार्जन-सह देख सकेगे, माताजी के कार्य महान्।।१६८०।।
जितने कार्य किये माताजी, धर्म-समाज-साहित्यिक क्षेत्र।
रह जाते हैं देख अलौकिक, विस्मय से विस्फारित नेत्र।।
साहित्यिक कृतियों के बारे, नहीं पालना कोई भरम।
केवल स्वाध्याय करने में, लग जायेंगे कई जनम।।१६८१।।
परम पूज्य श्रीमाताजी के, हम पर हैं अनंत उपकार।
उनका वर्णन रहा असंभव, कैसे करें प्रकट आभार।।
पृथ्वी का यदि कागद कर लें, सकल समन्दर करें मसी।
सब वनराजी करें लेखिनी, नहिं जा सकती कथा लिखी।।१६८२।।
माताजी की प्रकृति महत्तम, जिसे लगाती पारस कर।
सर्वरूप करती हैं पूरा, स्थायी, अतिशय सुंदर।।
हस्तिनागपुर जम्बूद्वीप-सह, श्री कुण्डलपुर शोभाधाम।
काकंदी-प्रयाग-बनारस, अहि-अयोध्या हुए ललाम।।१६८३।।
क्षुल्लक श्री मोतीसागर जी, ब्रह्मचारी जी रवीन्द्र कुमार।
सुंदर जोड़ी मन को भाती, लगते राम-लखन मनहार।।
माताजी के शिष्य बहुत हैं, लेकिन इनकी बात है अन्य।
नहीं देखने में आती है, ऐसी गुरु की भक्ति अनन्य।।१६८४।।
एक व्यक्ति व्यक्तित्व बहुत से, सभी पूर्ण आभालंकार।
बालयोगिनी शिखर विराजित, चतुरनुयोग ज्ञान भंडार।।
तीन शतक ग्रंथों की लेखक, उत्तम वक्ता, प्रवचनकार।
नूतन तीर्थ बनाए माँ ने, किए पुरातन जीर्णोद्धार।।१६८५।।
जल को जीवन कहा गया है, प्रगति रही जीवन पहचान।
साधक कभी न रुकते पथ में, करते प्रगति रहें गतिमान।।
वैसे माता ज्ञानमती भी, बढ़ें साधना ज्यों आदित्य।
स्वर्ण लेखिनी चलती रहती, होता प्रकट अमर साहित्य।।१६८६।।
द्वीप-समुद्र असंख्य परस्पर, मध्यलोक में वलयाकार।
उनमें जम्बूद्वीप प्रथम है, स्वयंभूरमण अंत विस्तार।।
प्रारंभिक तेरहद्वीपों का, ध्यान में आया दिव्य प्रकाश।
उसे उतारा हस्तिनागपुर, तेरहद्वीप जिनालय खास।।१६८७।।