पूज्य ज्ञानमती माताजी की कृति‘‘जैन भूगोल’’:एकअनुचिंतन
उत्थानिका-आर्यावर्त की सभ्यता के क्षितिज पर अनेक धर्मों, संस्कृतियों तथा दार्शनिक अवधारणाओं के बिम्ब उदित हुए हैं, जिन्होंने सम्पूर्ण मानवीय चेतना को प्रबोधित किया है। इस परम्परा का एक अत्यन्त उदात्त स्वरूप जैनधर्म के मौलिक चिन्तन को अपने युगान्तरकारी स्पन्दन से जन-जन को स्फूर्त करता रहा है।
जैनधर्म का शाश्वत दार्शनिक अवबोध विभिन्न कालखण्डों में उसके साधकों द्वारा आख्यायित हुआ है और वस्तु स्वातन्त्र्य की क्रान्तिकारी अवधारणा के माध्यम से जैन व्याप्ति को असीमित विस्तार देने में सफलता प्राप्त की गई है। साधकों की इस महनीय परम्परा की एक अद्भुत कड़ी परम विदुषी, गणिनीप्रमुख पूज्य साध्वी ज्ञानमती माताजी ने दो सौ से अधिक ग्रंथों के माध्यम से वस्तुनिष्ठ चिन्तन को आख्यायित किया है,
ज्ञानमय आत्मवैभव को रेखांकित किया है और दी है प्रेरणा अपने प्रत्येक वाक्य से/वाच्य से, पर से स्वामित्व के विसर्जन की। परमपूज्या माताजी के रचनाधर्मी संसार का प्रतिपाद्य वह जैनधर्म है, जो मानव तथा सृष्टि के अस्तित्व के बहु-आयामों की तलस्पर्शी खोज करता है और एक तात्त्विक एवं तार्विक उत्तर प्रस्तुत कर आडम्बरों एवं अन्ध विश्वासों से परे आत्म स्वातन्त्र्य की मौलिक आख्या को प्रतिष्ठित करता है।
पूज्या माताजी की कृति जैन भूगोल लोक के शाश्वत स्वरूप को प्रतिष्ठित करते हुए कालचक्र की आरोही एवं अवरोही गतियों की समीक्षा कर लोक-अलोक के विभाग युग परिवर्तनों तथा जीवों की चतुर्गतियों के निरूपक अनुयोगों से जन-जन का करुणानुयोगीय साक्षात्कार कराती है। अधोलोक, मध्यलोक तथा ऊध्र्वलोकों के वर्णन में विदुषी माताजी ने नरक, स्वर्ग, द्वीप, समुद्र, सुमेरु पर्वत, देवलोक आदि से संबंधित भूगोलीय एवं खगोलीय आगमिक कथनों के प्रतिपाद्य का सुबोध कराया है।
लोक परिचय
जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल नामक ६ द्रव्यों से निर्मित लोक अनादि-अनिधन तथा अकृत्रिम है। जिसके तीन रूप हैं-अधोलोक, मध्यलोक एवं ऊध्र्वलोक। दोनों पैरों को फैलाकर, कमर पर हाथ रखे पुरुष सदृश लोक की ऊँचाई, ऊपर-नीचे चौदह राजू है तथा मोटाई सात राजू है। लोक के तल भाग की चौड़ाई सात राजू है जो ऊपर की दिशा में, क्रमश: घटते हुए एक राजू रह जाती है।
लोक के मध्य में एक राजू चौड़ी, एक राजू मोटी और चौदह राजू ऊँचाई वाली त्रसनाली है, जिसमें त्रसजीवों की अवस्थिति होती है। लोक के चारों ओर से तीन प्रकार के वातवलय, घनोदधि, घनवातवलय तथा तनुवातवलय परिवेष्टित करते हैं तथा अपने दबाव के माध्यम से लोक में सन्तुलन स्थापित करते हैं। लोक के तीन प्रकार हैं-
१. अधोलोक-सात राजू की ऊँचाई वाला यह लोक नारकी तथा भवनवासी देवों का निवास होता है। यह लोक का निचला हिस्सा निर्मित करता है।
२. मध्यलोक-एक लाख चालीस योजन की ऊँचाई वाला, असंख्यात द्वीपों तथा समुद्रोें से परिवेष्टित इस मध्य लोक में मनुष्य, तिर्यंच, व्यन्तर तथा ज्योतिष्क देव निवास करते हैं।
३. ऊध्र्वलोक-सात राजू ऊँचा ऊध्र्वलोक, मध्यलोक से ऊपर लोकान्त तक अवस्थित है, जिसमें वैमानिक देवों का वास होता है। इसके शिखर पर मुक्त जीव विराजमान होते हैं।
अधोलोक
वेत्रासन के समान आकार वाले, सात राजू की ऊँचाई वाले अधोलोक में रत्नप्रभा, शर्वराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमप्रभा और महातमप्रभा नामक सात नरकभूमियाँ विद्यमान हैं जो छ: राजू में अवस्थित हैं तथा सातवें और अंतिम राजू में निगोदिया जीवों की अवस्थिति है। अधोलोक के अंतिम एक राजू के क्षेत्र को कलकल पृथ्वी भी कहा जाता है।
घम्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवी और माघवी नामक सात पृथ्वियाँ एक-दूसरे के नीचे क्रमश: घनोदधि-वातवलय, घनवात-वलय, तनुवात वलय और आकाश पर प्रतिष्ठित हैं। सातों नर्क भूमियों में उनचास पटल या प्रस्तार हैं जिनमें नारकी जीव इन्द्रक, श्रेणीबद्ध तथा प्रकीर्णक नर्वबिलों में रहते हुए क्षेत्रजनित, शारीरिक, मानसिक और असुरकृत दु:खों को भोगते हैं। नारकियों के शरीर अत्यन्त विकृत तथा हुण्डक संस्थान वाले होते हैं।
मध्यलोक
मध्यलोक में जम्बूद्वीप, लवण समुद्र सहित असंख्यात द्वीप एवं समुद्र हैं। इसका विस्तार पूर्व-पश्चिम में एक राजू चौड़ा तथा उत्तर-दक्षिण में सात राजू है। इसमें जम्बूद्वीप आदि असंख्यात द्वीप और लवण समुद्र आदि असंख्यात समुद्र हैं। तिर्यव्क-तिरछा फैला होने के कारण इसे तिर्यव्लोक भी कहते हैं।
मध्यलोक के मध्य में थाली की आकृति का जम्बूद्वीप है, जिसका व्यास-विस्तार एक लाख योजन है। दो लाख योजन के व्यास-विस्तार वाला लवण समुद्र जम्बूद्वीप को परिवेष्टित करता है। लवण समुद्र, चार लाख योजन के विस्तार वाले धातकीखण्ड द्वीप से घिरा है। धातकीखण्ड द्वीप को आठ लाख योजन के विस्तार वाला कालोदधि समुद्र परिवेष्टित करता है।
पुष्करवर समुद्र, पुष्करवर द्वीप को परिवेष्टित करता है तथा उसके आगे क्रमश: वारुणीवर, क्षीरवर, घृतवर, सौद्रवर, नन्दीश्वर, वरुणवर, अरुणवर, कुण्डलवर, शंखवर, रुचकवर, भुजंगवर, कुशवर, क्रौंचवर आदि द्वीप क्रमानुगत रूप से एक-दूसरे को घेरते हैं। असंख्यात द्वीपों एवं समुद्रों के अन्त में स्वयंभूरमणद्वीप और स्वयंभूरमण समुद्र अवस्थित है।
सभी द्वीपों एवं समुद्रों का आकार चूड़ी सदृश है। जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र, धातकीखण्ड, कालोदधिसमुद्र और पुष्करवरद्वीप में मनुष्य निवास करते हैं, हालाँकि पुष्करद्वीप के मध्यभाग में वलयाकृति का मानुषोत्तर पर्वत अवस्थित है। जिसे मनुष्य पार नहीं कर सकते एवं यह द्वीप को दो भागों में विभक्त कर देता है।
जम्बूद्वीप
थाली की आकृति वाले जम्बूद्वीप में भरतवर्ष, हैमवतवर्ष, विदेहवर्ष, रम्यकवर्ष, हैरण्यवत वर्ष और ऐरावत वर्ष नामक सात क्षेत्र तथा हिमवान, महाहिमवान, निषध, नील, रुक्मि और शिखरी नामक छ: कुलाचल पर्वत हैं।
इन पर्वतों पर पद्म, महापद्म, तिगिंछ, केशरी, महापुण्डरीक और पुण्डरीक नामक छ: सरोवर हैं, जिनसे गंगा, सिंधु, रोहित, रोहितास्या, हरित, हरिकान्ता, सीता, सीतोदा, नारी, नरकान्ता, सुवर्णकूला, रूप्यकूला और रक्ता, रक्तोदा नाम की चौदह नदियाँ निकलती हैं। इन युगलरूप नदियों में से पूर्व-पूर्व की नदी पूर्व समुद्र और बाद की नदी पश्चिम समुद्र में गिरती हैं।
भरतक्षेत्र
जम्बूद्वीप के दक्षिणभाग में अवस्थित भरतक्षेत्र के उत्तर में हिमवान पर्वत और शेष दिशाओं में लवणसागर है। इस क्षेत्र के मध्य में पूर्व-पश्चिम दिशा में फैला रजतमय विजयाद्र्ध पर्वत है। विजयाद्र्ध एवं हिमवान् पर्वतों से निकलने वाली गंगा और सिंधु नदियों के उद्गम के कारण भरतक्षेत्र छ: खण्डों में विभाजित हो जाता है। विजयाद्र्ध पर्वत के दक्षिणी भाग के तीन खण्डों में मध्य का खण्ड, आर्यखण्ड और शेष खण्ड म्लेच्छ खण्ड कहलाते हैं।
आर्यखण्ड, धर्म तीर्थ के प्रवर्तन का केन्द्र होता है। भरत क्षेत्र से दोगुने विस्तार वाला, उसकी उत्तरोन्मुखी दिशा में अवस्थित हिमवान् पर्वत की पूर्व दिशा में जिन मंदिर है एवं अन्य दिशाओं में व्यन्तर देव तथा देवियों के भवन हैं। इस स्वर्णमय पर्वत के मध्य में पद्म सरोवर है तथा पूर्व एवं पश्चिमी द्वारों से क्रमश: गंगा एवं सिंधु नदी तथा उत्तर द्वार से रोहितास्या नदी उद्गमित होती है। हैमवत क्षेत्र, हिमवान् पर्वत के उत्तर तथा महाहिमवान् पर्वत के दक्षिण भाग में अवस्थित है।
हैमवत क्षेत्र से चौगुने क्षेत्रफल वाला हरिक्षेत्र महाहिमवान् पर्वत के उत्तर और निषध पर्वत के दक्षिण में अवस्थित है। हरिक्षेत्र के उत्तर में तपाये हुए स्वर्ण सदृश एवं महाहिमवान् पर्वत से चार गुना क्षेत्रफल वाला निषधकूट है। जिसमें नौ कूट अवस्थित हैं। इसकी पूर्व दिशा में सिद्धायतन कूट अवस्थित है, जिसमें जिन मंदिर विराजमान है तथा शेष कूटों में व्यन्तर देवों के भवन हैं। पर्वत के मध्य में तिगिंछ सरोवर अवस्थित है।
हरिक्षेत्र में चार गुना क्षेत्रफल लिए हुए, निषध पर्वत के उत्तर और नील पर्वत के दक्षिण में विदेह क्षेत्र विद्यमान है, जो जम्बूद्वीप का मध्यवर्ती क्षेत्र है। विदेह क्षेत्र के मध्य में सुमेरु पर्वत है जिसकी ऊँचाई एक लाख चालीस योजन है। पृथ्वी तल पर प्रारंभ में सुमेरु पर्वत का विस्तार दस हजार योजन है, जो ऊपर क्रमश: घटता गया है। भद्रशाल, नन्दन, सौमनस और पाण्डुक नामक चार वनों से यह आवृत्त है।
सुमेरु पर्वत के चारों वनों की चारों दिशाओं में चार-चार अकृत्रिम जिनालय हैं और पाण्डुक वन की ईशान आदि चारों विदिशाओं में पाण्डुक, पाण्डुकम्बला, रक्ता और रक्तकम्बला नामक चार शिलाएँ हैं। ईशान दिशा स्थित पाण्डुक शिला पर, भरत क्षेत्र में उत्पन्न होने वाले तीर्थंकरों का जन्माभिषेक होता है। पाण्डुकम्बला पर विदेह, रक्ता पर ऐरावत एवं रक्तकम्बला पर पश्चिम विदेह क्षेत्र में उत्पन्न होने वाले तीर्थंकरों का जन्माभिषेक आयोजित होता है।
विदेह क्षेत्र
विदेह क्षेत्र, कुरुक्षेत्र एवं विदेह, दो क्षेत्रों में विभक्त है। सुमेरु पर्वत के दक्षिण और निषध पर्वत के उत्तर में देवकुरु है तथा मेरु पर्वत के उत्तर एवं नील पर्वत के दक्षिण में उत्तर कुरु अवस्थित है। यह उत्तम भोगभूमि है। सुमेरु पर्वत के मूलभाग में चार गजदंत पर्वत हैं जो एक ओर निषध और नील कुलाचलों को संस्पर्शित करते हैं तो दूसरी ओर सुमेरु पर्वत को। इनके नाम क्रमश:, सौमनस, विद्युत्प्रभ, गन्धमादन और माल्यवान हैं।
अन्य पर्वत, सरोवर, वृक्ष आदि
यमकगिरि नामक पर्वत सीतोदा एवं सीता नदी के तट पर अवस्थित है, जिनके मध्य पाँच सरोवर हैं। प्रत्येक तालाब के पूर्व-पश्चिम तटों पर पाँच-पाँच के समूह में दो सौ कनकगिरि विद्यमान हैं। देवकुरु में निषध पर्वत के उत्तर, विद्युत्प्रभ गजदन्त के पूर्व, सीतोदा नदी के पश्चिम और सुमेरु पर्वत की नैऋत्य दिशा में शाल्मली वृक्ष समूह है।
सुमेरु पर्वत की ईशान दिशा में, नील पर्वत के दक्षिण, माल्यवान गजदंत के पश्चिम और सीता नदी के पूर्व में जम्बूवृक्ष की अवस्थिति है। ये दोनों वृक्ष पृथ्वीमय हैं और अपने-अपने परिवार वृक्ष-समूहों के साथ शोभायमान हैं।
विदेह के बत्तीस क्षेत्र
विदेह में कुल बत्तीस खण्ड हैं जो क्षेत्र के नाम से भी अभिहित होते हैं एवं निम्नलिखित हैं-
पूर्व विदेह
कच्छा, सुकच्छा, महाकच्छा, कच्छकावती, आवर्ता, लांग्लावर्ता, पुष्कला एवं पुष्कलावती। ये सीतानदी और कुलाचल के मध्य अवस्थित हैं। सीतानदी एवं निषध पर्वत के मध्य वत्सा, सुवत्सा, महावत्सा, वत्सकावती, रम्या, रम्यका, रमणीया तथा मंगलावती की अवस्थिति है।
पश्चिम विदेह
सीतोदा नदी और निषध पर्वत के मध्य पद्मा, सुपद्मा, महापद्मा, पद्मकावती, शंखा, नलिना, कुमदा और सरिता क्षेत्र अवस्थित हैं। नील पर्वत एवं सीतोदा नदी के मध्य वप्रा, सुवप्रा, महावप्रा, वप्रकावती, गंधा, सुगंधा, गंधिला और गंधमालिनी क्षेत्र अवस्थित हैं। इन बत्तीस विदेह क्षेत्रों में बत्तीस राजधानियाँ, बत्तीस विजयाद्र्ध पर्वत और बत्तीस वृषभगिरि स्थित हैं। प्रत्येक विदेह क्षेत्र में एक-एक आर्यखण्ड अवस्थित है। जहाँ तीर्थंकर एवं शलाका पुरुष उत्पन्न होते रहते हैं।
साथ ही पाँच-पाँच म्लेच्छखण्ड भी पाये जाते हैं। सम्पूर्ण जम्बूद्वीप में सात क्षेत्र, एक मेरु, दो कुरु, जम्बू और शाल्मलि वृक्ष, छ: कुलाचल, छ: महासरोवर, बीस सरोवर, चौदह महानदियाँ, बारह विभंगा नदियाँ, चार नाभि पर्वत, चार यमकगिरि, दो सौ कनकगिरि आठ दिग्गजेन्द्र पर्वत, चौंतीस आर्यखण्ड, चौंतीस विजयार्ध पर्वत एवं चौंतीस वृषभगिरि अवस्थित हैं।
लवण समुद्र
दो लाख योजन का विस्तार लिए हुए चूड़ी के आकार वाले लवण समुद्र के मध्य तल में चारों ओर एक हजार आठ विवर हैं। इसके मध्य भाग की गहराई एक सहस्र योजन है। इस मध्य भाग में जल व वायु की हानि एवं वृद्धि होती रहती है। पातालों के अतिरिक्त इस समुद्र में सूर्यद्वीप, चन्द्रद्वीप, प्रभासद्वीप, मगधद्वीप आदि अनेक द्वीप विद्यमान हैं, जिनमें भवनवासी देवों का आवास रहता है। इसके अतिरिक्त अड़तालीस कुमानुषद्वीप हैं, जिनमें कुभोग भूमियाँ हैं।
धातकीखण्ड
वलयाकार धातकी खण्ड, लवणसमुद्र के बाद अवस्थित है, जिसका विस्तार चार लाख योजन है। इस द्वीप की उत्तर-दक्षिण दिशा में उत्तर दक्षिणलम्बायमान दो इष्वाकार पर्वत हैं जो द्वीप को पूर्व एवं पश्चिम भागों में विभक्त कर देते हैं। ये पर्वत वर्षधर या कुलाचल कहलाते हैं, जिनमें एक-एक जिनालय और शेष कूटों पर व्यन्तर देवों का निवास होता है।
धातकीखण्ड को आठ लाख योजन के विस्तार वाला कालोदधि समुद्र परिवेष्टित करता है, जिसके भीतरी और बाहरी भागों में चौबीस-चौबीस अन्तद्र्वीप हैं, जिनमें कुभोग भूमि के मनुष्य और तिर्यंच निवास करते हैं। पुष्करवर द्वीप, कालोदधि समुद्र के चारों ओर अवस्थित है, जिसका व्यास-विस्तार सोलह लाख योजन है।
इसके मध्य में स्थित कुण्डलाकार मानुषोत्तर पर्वत के द्वारा दो भाग, अभ्यन्तर और बाह्य पहचाने जाते हैं। अभ्यन्तर भाग में मनुष्यों का अवस्थान है और वे अपनी सीमाओं के पार नहीं जा सकते। मनुष्यों के लिए उपलब्ध लोक विस्तार कुल पैंतालीस लाख योजन है।
नन्दीश्वर द्वीप
नन्दीश्वर समुद्र से परिवेष्टित यह आठवाँ द्वीप है,जिसका विस्तार एक सौ तिरेसठ करोड़ चौरासी लाख योजन है। इसके मध्य में इन्द्रनील मणि से निर्मित चौरासी हजार योजन विस्तृत अंजनगिरि पर्वत है। इसके चारों ओर एक लाख योजन की चार-चार वापियाँ हैं। इन वापियों के चारों ओर एक लाख योजन लम्बे और पचास हजार योजन चौड़े चार वन हैं और प्रत्येक वन में वन के नाम से स्थापित चैत्यवृक्ष हैं।
प्रत्येक वापिका के बहु मध्यभाग में दही के समान वर्ण वाले दधिमुख नामक उत्तम पर्वत हैं, जो दस हजार योजन ऊँचे हैं। नन्दीश्वर द्वीप में बावन जिन मंदिर हैं। प्रत्येक जिन मंदिर में एक सौ आठ गर्भगृह हैं और प्रत्येक गर्भगृह में पाँच सौ धनुष ऊँची पद्मासन जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं। इन जिन मंदिरों में देवगण अर्चन का पुण्य लाभ प्राप्त करते हैं।
अष्टान्हिक पर्व में सौधर्म आदि इन्द्र व अन्य देवगण भक्तिभाव से पूजन-अर्चन करते हैं। ग्यारहवाँ द्वीप कुण्डलवर नाम का है, जिसके बहुमध्य भाग में मानुषोत्तरवत् एक कुण्डलाकार पर्वत है। इस पर्वत पर चारों दिशाओं में जिनमंदिर हैं। रुचकवर नामक तेरहवें द्वीप में, बीच में रुचकवर पर्वत है, जिसकी चारों दिशाओं में जिन मंदिर विराजमान हैं।
इस प्रकार मानुषोत्तर पर्वत के बाहर नंदीश्वर द्वीप के बावन एवं कुण्डलवर तथा रुचकवर पर्वत के चार-चार अर्थात् कुल साठ जिनालय हैं। मनुष्यलोक के तीन सौ अट्ठानवे जिन मंदिरों को मिला लें तो अकृत्रिम जिनालयों की कुल संख्या चार सौ अट्ठावन हो जाती है। अंतिम द्वीप स्वयंभूरमण है जिसके मध्य में स्वयंभूरमण पर्वत है। इस पर्वत के अभ्यन्तर भाग में जघन्य भोगभूमि है, जहाँ मात्र एकेन्द्रिय और संज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंच पाये जाते हैं।
ऊध्र्वलोक
ऊध्र्वलोक में भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों तथा सिद्धों का निवास होता है। इस प्रकरण में देवों के निवास, आहार, उच्छ्वास, गमनागमन, रूप-लावण्य और शरीर-स्वभाव, प्रवीचार, आयु, देवियों का उल्लेखन, विक्रिया सामथ्र्य, शारीरिक अवगाहना, अवधि क्षेत्र, गुणस्थान, लेश्या विचार, गति-अगति, अणिमादि गुणों आदि की विवेचना की गई है। सिद्ध लोक का व्यास-विस्तार पैंतालीस लाख योजन है जो ईषत्प्राग्भार नामक आठवीं पृथ्वी के मध्य में अवस्थित है।
इस रजतवर्ण छत्राकार सिद्धक्षेत्र के उपरिम तनुवातवलय में सम्यक्त्व आदि आठ गुणों से युक्त एवं अनन्त सुख से तृप्त सिद्ध भगवान विराजते हैं। पूज्या माताजी की पुस्तक जैन भूगोल एक संबोधि है, जिसमें संलब्ध है पूरी मानवता को दिया गया जैन आचार्यों की भौगोलिक शोध के विचार-नवनीत का प्रतिबोध।
भूगोल की गणितीय अवधारणाओं की चर्चा में भी विदुषी लेखिका आत्मा को चैतन्य की जगमगाहट से दीप्त करने के मिशन में कहीं भी शिथिल नहीं होती और भक्ति के अनुगुुंजन के महत्व को, अतीन्द्रिय चेतना के स्तर पर सहज, स्थायी, शाश्वत और निरपेक्ष सुख की संप्राप्ति हेतु रेखांकित करना नहीं भूलतीं। एतदर्थ मैं उनके प्रति नतमस्तक होता हुआ उनके साहित्यिक अवदान को भारतीय संस्कृति की बहुमूल्य निधि मानता हूँ।