श्री भरत प्रभु निज आत्म संपति, गुण सुगंधि बिखेरते।
अनुपम अखंडित ज्ञान रवि से, साधु मन तम भेदते।।
मन वचन तनु से शुद्ध हो, मैं करूँ प्रभु की अर्चना।
जल गंध आदिक अर्घ्य अर्पूं, करूँ यम की भर्त्सना।।१।।
ॐ ह्रीं अष्टोत्तरशतगुणसमन्वित-श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य —ॐ ह्रीं श्री चक्रवर्तिभरतसिद्धपरमेष्ठिने नम:।
(९ बार या १०८ बार लवंग या पीले तंदुल से जाप्य करना)