वर पूर्वधातकि द्वीप में, शुभ क्षेत्र ऐरावत कहा।
तीर्थेश संप्रति काल के, मैं भी नमूँ नितप्रति यहाँ।।
समता रसिक योगीश गण, नित वंदना उनकी करें।
मन वचन तन से ही सतत, हम संस्तवन उनका करें।।१।।
ज्ञान दरश सुखवीर्यमय, गुण अनंत विलसंत।
भक्तिभाव से मैं नमूँ, हरूँ सकल जगफद।।२।।
नाथ! ‘अपश्चिम’ आपको, जो वंदे धर प्रीत।
परमानंद स्वरूप को, लहें बने शिवमीत।।१।।
‘पुष्पदंत’ जिनराज का, अद्भुत रूप प्रसिद्ध।
इंद्र सहस दृग कर निरख, तृप्ति न पावे नित्त।।२।।
‘अर्ह’ जिनेश्वर आपने, मोह अरी का अंत।
पहुँचे झट शिवधाम में, मैं वंदूँ भगवंत।।३।।
रत्नत्रय को पूर्ण कर, ‘श्रीचरित्र’ जिनराज।
मुक्तिरमा के पति हुये, नमत लहूँ शिवराज।।४।।
‘सिद्धानंद’ जिनेन्द्र को, वंदे त्रिभुवन भव्य।
नमूँ सिद्धि के हेतु मैं, पूरें मुझ कत्र्तव्य।।५।।
सप्त परमस्थान को, पाया ‘नंदगदेव’।
परमानंद प्रकाश हित, करूँ आप पद सेव।।६।।
‘पद्मकूप’ जिनदेव हैं, पद्मालिंगित देह।
जो जन वंदें भक्ति से, होते शीघ्र विदेह।।७।।
‘उदयनाभि’ जिनराज ने, जीव समास समस्त।
बतलाकर रक्षा करी, वंदूँ उन्हें प्रशस्त।।८।।
‘रूक्मेंदु’ जिनराज हैं, षट् पर्याप्ति विहीन।
चिन्मूरति विनमूर्ति को, नमूँ करें दुख क्षीण।।९।।
श्री ‘कृपाल’ तीर्थेश का, तीर्थ तीर्थ उनहार।
जो नितप्रति वंदन करें, उतरें भवदधि पार।।१०।।
श्री प्रौष्ठिल जिनदेव ने, प्रबल कर्म अरिघात।
भविजन को संबोधिया, नमत भरूँ सुख सात।।११।।
श्री ‘सिद्धेश्वर’ भव्यजन, सिद्धी में सुनिमित्त।
शीश नमाकर मैं नमूँ, लहूँ स्वात्मसुख नित्त।।१२।।
‘अमृतेंदु’ जिन आपके, वचनामृत सुखकार।
परमौषधि हैं जन्मरुज, हरें नमूँ पद सार।।१३।।
‘स्वामिनाथ’ तीर्थेश की, भक्ति कल्पतरु सिद्ध।
मैं वंदूँ नित भाव से, पाऊँ सौख्य समृद्ध।।१४।।
‘भुवनलिंग’ जिनवर तुम्हें, वंदे त्रिभुवन भव्य।
त्रिभुवनमस्तक पर पहुँच, हो जाते कृतकृत्य।।१५।।
तीर्थंकर श्री ‘सर्वरथ’, परमारथ सुखदेत।
श्रद्धा से मैं नित नमूँ, सर्वसिद्ध सुखहेत।।१६।।
‘मेघनंद’ जिनराज हैं, परमामृत के मेघ।
मैं वंदूँ नित चाव से, अजर अमर पद हेत।।१७।।
नंदिकेश आनंदघन, गणधर गण सुख हेत।
मैं वंदूँ आनंद से, अनुपम आनंद हेत।।१८।।
तीर्थंकर ‘हरिनाथ’ के, गुण अनंत श्रुतमान्य।
वंदूँ मैं निज सौख्य हित, सकल विश्व सन्मान्य।।१९।।
श्री ‘अधिष्ठ’ जिनराज का, केवलज्ञान महान।
दर्पणवत् उसमें सतत, झलके सकल जहान।।२०।।
‘शांतिकदेव’ जिनेन्द्र ने, किये स्वदोष प्रशांत।
पूर्णशांति के हेतु मैं, नमूँ मुक्ति के कांत।।२१।।
‘नंदीस्वामिन’! जो तुम्हें, नित वंदें धर प्रीत।
अनुपम निज आनंदमय, पावें धाम पुनीत।।२२।।
‘कुंदपाश्र्व’ जिनदेव ने, पूर्ण सुयश विस्तार।
भविजन को शिवपथ कहा, नमूँ सार में सार।।२३।।
नाथ ‘विरोचन’ विश्व में, पूजित परम जिनेश।
मैं वंदूँ शुद्धात्म हित, त्रिकरणशुद्धि समेत।।२४।।
सप्तपरमस्थान प्रद, चौबीसों जिनराज।
ज्ञानमती वैवल्य हो, नमत पूर्ण साम्राज।।२५।।