पूर्वधातकीखंड द्वीप में, सुरगिरि दक्षिण जानो।
भरतक्षेत्र के भाविकाल में, चौबिस जिनवर मानो।।
पंचकल्याणकपति भविजन के, सब कल्याण करे हैं।
भक्तिभाव से मैं नित वंदूँ, कल्मष सर्व हरे हैं।।१।।
घात घातिया कर्म को, किया ज्ञान को पूर्ण।
नमूँ-नमू नित आपको, करो हमें सुखपूर्ण।।२।।
सोरठा
श्री ‘सिद्धार्थ’ जिनेश, सब सिद्धी के हेतु तुम।
वंदूँ शीश नमाय, मनवांछित सिद्धी वरूँ।।१।।
श्री ‘सम्यग्गुण’ देव, मुक्तिरमा के कांत तुम।
क्षायिक सम्यव् हेतु, शीश झुकाकर मैं नमूँ।।२।।
नाथ ‘जिनेन्द्रसुदेव’, कर्म शत्रु विजयी तुम्हीं।
मोहमल्ल जय हेतु, वंदूँ शीश नमाय के।।३।।
श्री ‘संपन्न’ जिनेश, भावी तीर्थंकर कहे।
संप्रति मेरे क्लेश, हरिये मैं वंदूँ सदा।।४।।
‘सर्वस्वामि’ भगवान, सर्वकरम क्षय हेतु तुम।
सबके स्वामी आप, मैं नित वंदूँ भक्ति से।।५।।
श्री ‘मुनिनाथ’ जिनेन्द्र, गणधर मुनिगण तुम भजें।
वंदूँ भक्ति समेत, मेरे स्वामी आप ही।।६।।
श्री ‘विशिष्ट’ जिनदेव, सर्व गुणों से पूर्ण तुम।
मैं वंदूँ मन लाय, मेरी भव बाधा हरो।।७।।
‘अमरनाथ’ जिनदेव, तुम सम नहिं इस लोक में।
मैं वंदूँ मन लाय, अद्वितीय फल के लिये।।८।।
‘ब्रह्मशांति’ जिननाथ, परमानंद स्वरूप तुम।
परम ब्रह्मपद हेतु, मैं वंदूँ नित भाव से।।९।।
‘पर्वनाथ’ भगवान, परम अपूरब भाव धर।
पूर्ण करो मम आश, मैं नित श्रद्धा से नमूँ।।१०।।
नाथ ‘अकामुकदेव’ कामदेव विजयी तुम्हीं।
भवदुखनाशन हेतु, वंदूँ शीश नमाय के।।११।।
‘ध्याननाथ’ भगवान, तुमको जो नित ध्यावते।
पावें मोक्ष महान, मैं भी नित प्रति ही नमूँ।।१२।।
‘कल्पनाथ’ जिनदेव देव, कल्पवृक्ष सम आप हैं।
वंदूँ शीश नमाय, ईप्सित फल के हेतु मैं।।१३।।
‘संवरनाथ’ महान, मोक्ष तत्त्व ज्ञाता तुम्हीं।
मैं वंदूँ धर ध्यान, विघ्नकरम मम चूरिये।।१४।।
‘स्वास्थ्यनाथ’ भगवान, मोहपक्ष खंडन किया।
मोक्ष महासुख हेतु, मैं वंदूँ रुचि लायके।।१५।।
श्री ‘आनंद’ जिनेश, सहजानंद स्वरूप तुम।
परमानंद पद हेतु, मैं तुम पद भक्ती करूँ।।१६।।
‘रविप्रभनाथ’ जिनेश, त्रिभुवन परकाशें सदा।
वंदूँ भक्ति समेत, मृत्यु मल्ल मर्दन करें।।१७।।
श्री ‘चंद्रप्रभ’ देव, मुनिमन आल्हादन करें।
वंदूँ मनवचकाय, विकसित हो मम मनकुमुद।।१८।।
सब जन आनंद हेतु, नाथ ‘सुनंद’ सदा भले।
हर्षित मन से वंद, मैं न रुलूँ भवकीच में।।१९।।
श्री ‘सुकर्ण’ जिनदेव, अनुपम निधि दातार हैं।
नित वंदूँ सुखदाय, जन्मजरामृति नाथ हित।।२०।।
श्री ‘सुकर्म’ जिनदेव, कर्मशुभाशुभ नाशकृत।
वंदूँ भक्ति समेत, रत्नत्रय निधि हेतु नित।।२१।।
‘अममनाथ’ तीर्थेश, निर्मम हैं यमराज प्रति।
शीश नमाऊँ नित्य, मोहकर्म अरि चूरने।।२२।।
‘पाश्र्वनाथ’ जिनराज, भवदधितारक हो तुम्हीं।
मैं वंदूँ नत शीश, रागद्वेष मुझ क्षय करो।।२३।।
जिनवर ‘शाश्वतनाथ’, आदि-अंत से शून्य हैं।
परमभाव के हेतु, मैं तुम पद वंदूँ सदा।।२४।।
भावी जिनेश्वर आप मुक्ती, जायेंगे जब जायेंगे।
पर भक्त उनके प्रथम भी, शिव संपदा को पायेंगे।।
नित भक्ति श्रद्धा भाव से, मैं नाथ पद वंदन करूँ।
निज ज्ञानमति कैवल्यकर, के मुक्तिकन्या वश करूँ।।२५।।