पूर्वधातकीखण्ड भरतक्षेत्र वर्तमान तीर्थंकर स्तोत्र
नारेन्द्र छंद
पूर्वधातकी भरतक्षेत्र में, वर्तमान जिनदेवा।
विजयमेरु के दक्षिणदिश में, सुरनरकृत पद सेवा।।
इन चौबीसों तीर्थंकर को, भक्ति भाव से ध्याऊँ।
मन-वच-तन से वंदन करके, निज आतम सुख पाऊँ।।१।।
दोहा
धर्मचक्र के अधिपती, त्रिभुवनपति जिनराज।
मैं नित श्रद्धा भाव से, नमूँ नमूँ नतमाथ।।२।।
रोला छंद
नाथ ‘युगादीदेव’, सब देवन के देवा।
त्रिभुवन के तुम देव, भव्य करें नित सेवा।।
वंदूँ मन-वच-काय, प्रभुपद शीश नमाऊँ।
सर्व मनोरथ त्याग, रत्नत्रय निधि पाऊँ।।१।।
श्री ‘सिद्धांतजिनेन्द्र’, अंतक को चकचूरा।
जो जन वंदें नित्य, पावें सुख भरपूरा।।वंदूँ..।।२।।
‘महा ईश’ के नाथ, कामजयी बलधारी।
तुम पद वंदें नित्य, वे निजपद अधिकारी।।वंदूँ..।।३।।
श्री ‘परमार्थ’ जिनेश, परम पुरुष तुम ध्याते।
भविजन भक्ति समेत, पूजत कर्म नशाते।।वंदूँ..।।४।।
नाथ ‘समुद्धर’ देव, जग उद्धार किया है।
जिनने वंदत आप, सौख्य अपार लिया है।।वंदूँ..।।५।।
‘भूधरनाथ’ जिनेश, सब जीवन हितकारी।
वाणी मधुर पियूष, पीकर हो सुखकारी।।वंदूँ..।।६।।
श्री ‘उद्योत’ जिनेंद्र, केवल सूर्य तुम्हीं हो।
मुनिमन के प्रद्योत, करते नित्य तुम्हीं हो।।वंदूँ..।।७।।
‘आर्जव’ जिनवर आप, ऊध्र्वगती को पाई।
किन्नरगण तुम कीर्ति, गाते हैं सुखदाई।।वंदूँ..।।८।।
‘अभयनाथ’ भगवान, अभयदान दें सबको।
सब जीवन प्रतिपाल, नमूँ-नमूँ चरणन को।।वंदूँ..।।९।।
‘अप्रकंप’ तीर्थेश, जब तुम जन्म लिया है।
इंद्रासन तत्काल, कम्पित होय गया है।।वंदूँ..।।१०।।
‘पद्मनाथ’ भगवान, तुम पद बसती पद्मा।
जो वंदें धर प्रीति, पावें अनुपम सद्मा।।वंदूँ..।।११।।
‘पद्मनंदि’ जिनदेव, तुम पदपद्म नमें जो।
मृत्यु मल्ल को मार, निज शिवसद्म भजें सो।।वंदूँ..।।१२।।
नाथ ‘प्रियंकर’ आप, वाणी प्रियहित करणी।
कर्ण पुटों से भव्य, पीते भव दु:खहरणी।।वंदूँ..।।१३।।
‘सुकृतनाथ’ जिनेंद्र, अतुल पुण्य निधि तुम हो।
जो जन तुम पद भक्त, उनके भ्रम का क्षय हो।।वंदूँ..।।१४।।
‘भद्रनाथ’ जिनदेव, कर्मबली के जेता।
हित उपदेशी आप, विश्वतत्त्व के वेत्ता।।वंदूँ..।।१५।।
मुनीचंद्र’ भगवान, मुनिगण तुम गुण गावें।
निज आतम का ध्यान, करके शिवपुर जावें।।वंदूँ..।।१६।।
‘पंचमुष्टि’ जिनराज, मोह मल्ल को जीता।
पंच परावृत नाश, हुए भविकजन मीता।।वंदूँ..।।१७।।
नाथ ‘त्रिमुष्टि’ जिनेश, जन्मजरा मृति नाशा।
केवल रवि को पाय, लोकालोक प्रकाशा।।वंदूँ..।।१८।।
श्री ‘गांगिक’ जिननाथ, शीतल गंगनदीसम।
जो करते तुम सेव, पावें सौख्य अनूपम।।
वंदूँ मन-वच-काय, प्रभुपद शीश नमाऊँ।
सर्व मनोरथ त्याग, रत्नत्रय निधि पाऊँ।।१९।।
श्री ‘गणनाथ’ प्रधान, गणधर वंदन करते।
कर्म अरी को हान, निजपद मंडन करते।।वंदूँ..।।२०।।
श्री ‘सर्वांग जिनेश’, तुम सम रूप न जग में।
इंद्र सहस्र कर नेत्र, फिर भी तृप्त न मन में।।वंदूँ..।।२१।।
श्री ‘ब्रह्मेन्द्र’ अधीश, आतम गुण में राचें।
ब्रह्मानंद पियूष, पीकर भवदु:ख नाशें।।वंदूँ..।।२२।।
‘इंद्रदत्त’ भगवान, इंद्र करें तुम भक्ती।
जो तुम आश्रय लेय, पावें अनुपम शक्ती।।वंदूँ..।।२३।।
‘श्री नायक’ जिननाथ, करुणािसधु तुम्हीं हो।
करो कृपा मुझ नाथ, भवरुज वैद्य तुम्हीं हो।।वंदूँ..।।२४।।
धर्मतीर्थ के नाथ तुम, धर्मचक्रधर धीर।
नमूँ ज्ञानमति पूर्ण हितु, पाऊँ मैं भवतीर।।२५।।