आगम में जहां दो मत आये हैं वहां टीकाकारों ने दोनों को प्रमाण मानने को कहा है किन्तु एक स्थान पर स्वयं धवला टीकाकार श्री वीरसेनाचार्य ने कहा है कि ‘गोदमो एत्थ पुच्छेयव्वो’’ गौतमस्वामी से पूछना चाहिये चूँकि वे मन:पर्ययज्ञान के धारी, सप्त ऋद्धियों से समन्वित भगवान महावीर स्वामी के प्रथम गणधर थे व साक्षात् प्रभु के समवसरण में ३० वर्ष तक रहे थे। द्वादशांग को अंतर्मुहूर्त में ग्रंथित करने वाले थे। आज वर्तमान में उन्ही की वाणी स्वरूप पाक्षिक, दैवसिक आदि प्रतिक्रमण सूत्रों में परिवर्तन, संशोधन करते हुये देखा जा रहा है तो महान आश्चर्य का विषय है। पूर्वाचार्यों की पापभीरुता ग्रंथों को पढ़ाते समय विद्वान् के मुख से अथवा उपदेश करते समय वक्ता के मुख से पूर्वाचार्यों के प्रति श्रद्धा का निर्झर प्रवाहित हो जाना चाहिए। जैसे कि आचार्य विद्यानंदि, आचार्य वीरसेन और आचार्य वसुनंदि आदि के शब्दों में दिखता है। यथा-
‘‘अब पुष्पदंत भट्टारक अंतिम गुणस्थान के प्रतिपादन हेतु, अर्थरूप से अर्हंत परमेष्ठी के मुख से निकले हुये, गणधर देव के द्वारा गूँथे गये शब्द रचना वाले, प्रवाहरूप से कभी भी नाश को नहीं प्राप्त होेने वाले और सम्पूर्ण दोषों से रहित होने से निर्दोष आगे के सूत्र कहते हैं-’’धवला पु. १, पृ.१९३। यहाँ श्री वीरसेनस्वामी को श्री पुष्पदंत आचार्य के प्रति कितनी श्रद्धा है और उनके वचनों को वे साक्षात् भगवान की वाणीरूप ही मान रहे हैं। यह स्पष्ट दिख रहा है। आगे और देखिये-
‘‘हमारे यहाँ आर्षपरंपरा का विच्छेद भी नहीं है क्योंकि जिसका दोष-आवरण रहित अरहंत देव ने अर्थरूप से व्याख्यान किया है जिसको चार ज्ञानधारी, निर्दोष गणधर देव ने धारण किया है, जो ज्ञान-विज्ञान सम्पन्न गुरु परम्परा से चला आ रहा है, जिसका पहले का वाच्य-वाचक भाव अभी तक नष्ट नहीं हुआ है और जो दोषावरण से तथा निष्प्रतिपक्ष सत्यस्वभाव वाले पुरुष के द्वारा व्याख्यात होने से श्रद्धा के योग्य है ऐेसे आगम की आज भी उपलब्धि हो रही है।’’
शंका – आधुनिक आगम अप्रमाण है क्योंकि अर्वाचीन पुरुषों ने इसका अर्थ किया है ?
समाधान – ऐसा कहना ठीक नहीं, क्योंकि ज्ञान-विज्ञान से सहित होने से प्रमाणता को प्राप्त इस युग के आचार्यों द्वारा इसके अर्थ का व्याख्यान किया गया है इसलिये आधुनिक आगम भी प्रमाण है।
शंका –छद्मस्थ सत्यवादी कैसे हो सकते हैं ?
समाधान – ऐसा नहीं है, क्योंकि श्रुत के अनुसार व्याख्याता आचार्यों को प्रमाण मानने में कोई विरोध नहीं है।
शंका –आगम का यह अर्थ प्रामाणिक गुरु परम्परा के क्रम से आया है यह कैसे निश्चय किया जाये ?
समाधान – ‘‘नहीं, क्योंकि….ज्ञान-विज्ञान से युक्त इस युग के अनेक आचार्यों के उपदेश से उसकी प्रमाणता जाननी चाहिए।……’’३ और भी देखिये- कषाय प्राभृतकार पहले आठ कषाय का क्षय, पीछे सोलह प्रकृति का क्षय मानते हैं किन्तु सत्कर्मप्राभृतकार (षट्खंडागमकार) पहले सोलह का नाश मानकर आठ कषाय का नाश मानते हैं। इस पर चर्चा चली कि दोनों में से कोई एक ही वाक्य सूत्ररूप प्रमाणीक होना चाहिए। इस पर आचार्य वीरसेन दोनों आगम को सूत्र कह रहे हैं। वे कह रहे हैं कि-
‘‘जिनका अर्थरूप से तीर्थंकरों ने प्रतिपादन किया है और गणधरदेव ने जिनकी ग्रंथ रचना की ऐसे द्वादशांग आचार्य परम्परा से निरंतर चले आ रहे हैं। परन्तु काल के प्रभाव से उत्तरोत्तर बुद्धि के क्षीण होने पर और उन अंगों के धारण करने वाले योग्य पात्र के अभाव में वे उत्तरोत्तर क्षीण होते हुए आ रहे हैं। इसलिये जिन आचार्यों ने आगे श्रेष्ठ बुद्धिवाले पुरुषों का अभाव देखा जो अत्यन्त पापभीरु थे और जिन्होने गुरु परम्परा से श्रुतार्थ ग्रहण किया था उन आचार्यों ने तीर्थ विच्छेद के भय से उस समय अवशिष्ट रहे हुए अंग संबंधी अर्थ को पोथियों में लिपिबद्ध किया, अतएव उनमें असूत्रपना नहीं आ सकता।
शंका –यदि ऐसा है तो इन दोनों ही वचनों को द्वादशांग का अवयव होने से सूत्रपना प्राप्त हो जायेगा ?
समाधान – दोनों में कोई एक ही सूत्र हो सकता है, दोनों नहीं, क्योंकि दोनों में परस्पर विरोध है।
शंका – पुन: उत्सूत्र लिखने वाले आचार्य पापभीरु कैसे हो सकते हैं ?
समाधान –यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि दोनों प्रकार के वचनों में से किसी एक ही के वचन संग्रह करने पर पापभीरुता निकल जाती है किन्तु दोनों प्रकार के वचनों का संग्रह करने वाले आचार्यों के पापभीरुता नष्ट नहीं होती है अर्थात् बनी रहती है। पुन: प्रश्न होता है कि-
‘‘दोण्ह वयणाणं मज्झे कं वयणं सच्चमिदि चे ?
केवली सुदकेवली वा जाणादि ण अण्णो तहा णिण्णयाभावादो।
वट्टमाण-कालाइरिएहि वज्जभीरुहि दोण्हं पि संगहो
कायव्वो अण्णहा वज्जभीरुत्त-विणासादो त्ति।
धवला पु. १, पृ. २६४।’’
शंका –दोनों प्रकार के वचनों में से किसी वचन को सत्य माना जाये ?
समाधान –इस बात को केवली या श्रुतकेवली जानते हैं, दूसरा कोई नहीं जानता। क्योंकि, इस समय उसका निर्णय नहीं हो सकता है इसलिये पापभीरु वर्तमान के आचार्यों को दोनों का ही संग्रह करना चाहिये अन्यथा पापभीरुता का विनाश हो जायेगा।’’ ऐसे ही अन्यत्र भी दो मत आ जाने पर प्रश्नोत्तरमाला चलती है। पुन: शिष्य कहता है कि-दोण्हं संगहं करेंतो
शंका –दोनों वचनों का संग्रह करने वाला संशय मिथ्यादृष्टि हो जायेगा ?
समाधान – नहीं, क्योंकि संग्रह करने वाले के ‘यह सूत्र कथित ही है’ इस प्रकार का श्रद्धान पाया जाता है, अतएव उसके संदेह नहीं हो सकता है।’’ आगे शिष्य प्रश्न करता है कि-
उत्तर –जैसे प्रत्यक्ष स्वभावत: प्रमाण है वैसे ही आर्ष भी स्वभावत: प्रमाण है’’। आचार्य वीरसेन स्वामी तो स्पष्ट कहते हैं कि-‘‘आगम केवलज्ञानपूर्वक उत्पन्न हुआ है, अत: आगम में अनुमान का प्रयोग नहीं हो सकता।’’१ जहाँ कहीं भी दो मत के आने पर शंका उठी है वहीं पर धवलाकार ने ऐसा समाधान दिया है। यथा-
‘‘यह सूत्र है, यह सूत्र नहीं है’ ऐसा आगमनिपुणजन कह सकते हैं किन्तु हम यहाँ कहने के लिये समर्थ नहीं हैं, क्योंकि हमें वैसा उपदेश प्राप्त नहीं है।’’२ इससे अधिक और पापभीरुता क्या होगी, कहिये ? जबकि वीरसेन स्वामी धवला, जयधवला टीकाकर्ता भी अपने को ‘आगमनिपुण’ नहीं मानते हैं। आगे और देखिये-
शंका – बादर निगोद जीवों से प्रतिष्ठित-अप्रतिष्ठित जीवों को यहाँ सूत्र में वनस्पति संज्ञा क्यों नहीं दी ?
समाधान – ‘गोदमो एत्थ पुच्छेयव्वो।’ यहाँ गौतमस्वामी से पूछना चाहिए।’’ कषायप्राभृत में भी कहा है कि-
ण च पमाणं पमाणंतरमवेक्खदे, अणवत्थावत्तीदो।
जयधवला पु.१, पृ.३३४।
‘‘प्रमाण के लिये प्रमाण नहीं चाहिये और आगम स्वयं प्रमाण है।४ मूलाचार में देवियों की आयु के बारे में गाथायें आई हैं। उन दोनों में अंतर है। यथा- ‘सौधर्म स्वर्ग में देवियों की उत्कृष्ट आयु ५ पल्य, ईशान में ७, सानत्कुमार में ९, माहेन्द्र में ११, ब्रह्म में १३, ब्रह्मोत्तर में १५, लांतव में १७, कापिष्ठ में १९, शुक्र में २१, महाशुक्र में २३, शतार में २५, सहस्रार में २७, आनत में ३४, प्राणत में ४१, आरण में ४८ और अच्युत में ५५ पल्य है। दूसरी गाथा में कहते हैं-सौधर्म-ईशान में ५ पल्य, सानत्कुमार युगल में १७, ब्रह्मयुगल में २५, लांतवयुगल में ४५, शुक्रयुगल में ४०, शतारयुगल में ४५, आनतयुगल में ५० और आरण अच्युत में ५५ पल्य है। इसकी टीका में श्री वसुनंदि सिद्धांतचक्रवर्ती आचार्य कहते हैं-‘‘……
दोनों ही उपदेश ग्रहण करना चाहिये क्योंकि दोनों ही सूत्र के उपदेश हैं। यद्यपि यह निश्चित है कि दोनों में से कोई एक ही सत्य होना चाहिये। इस विषय में संशयमिथ्यात्व भी नहीं है क्योंकि ‘जो अर्हंतदेव द्वारा प्रणीत है वही सत्य है’ इस प्रकार से संशय का अभाव है क्योंकि छद्मस्थों को यह विवेक करना शक्य नहीं है इसलिये मिथ्यात्व के भय से ही दोनों को ग्रहण करना चाहिये। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में श्री विद्यानंदि महोदय तत्त्वार्थसूत्र को आप्तमूलक सिद्ध कर रहे हैं-
संप्रदाय – परम्परा के व्यवच्छेद का अविरोध होने से यह सूत्र आगम प्रमाण है क्योंकि यह आप्तमूलक सिद्ध है। जैसे-आजकल मनुष्यों के सद्गोत्र (काश्यप आादि) आदि का उपदेश प्रवाहरूप से पाया जाता है। उसी प्रकार से विचार करने से यह सूत्ररूप आगम पूर्णतया प्रमाणभूत ही है। कषायप्राभृत ग्रंथ के प्रति श्रद्धा देखिये- स्वयं जयधवलाकार प्रस्तुत ग्रंथ के गाथा सूत्रों और चूर्णिसूत्रों को किस श्रद्धा और भक्ति से देखते हैं, यह उन्हीं के शब्दों में देखिये। एक स्थान पर शिष्य के द्वारा यह शंका किये जाने पर कि यह कैसे जाना ? इसके उत्तर में श्री वीरसेनाचार्य कहते हैं-
‘‘एदम्हादो विउलगिरिमत्थयत्थवड्ढमाणदिवायरादो
विणिग्गमिय गोदम-लोहज्ज-जंवुसामियादि आइरियपरंपराए
आगंतूण गुणहराइरियं पाविय गाहास-रूवेण परिणमिय
अज्जमंखुणागहत्थीहितो जयिवसहमुहणयिय
चुण्णिसुत्तायारेण परिणददिव्वज्झुणिकिरणादो णव्वदे।
कसायपाहुड़सुत्त प्रस्तावना से पृ.११।(जयध.आ.पत्र ३१३)
‘‘विपुलाचल के शिखर पर विराजमान वर्धमान दिवाकर से प्रगट होकर गौतम, लोहाचार्य और जम्बूस्वामी आदि की आचार्य परम्परा से आकर और गुणधराचार्य को प्राप्त होकर गाथा स्वरूप से परिणत हो पुन: आर्यमंक्षु और नागहस्ती के द्वारा यतिवृषभ को प्राप्त होकर और उनके मुखकमल से चूर्णिसूत्र के आकार से परिणत दिव्यध्वनिरूप किरण से जानते हैं।’’१ इस उद्धरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि कषायप्राभृत ग्रंथ साक्षात् भगवान की दिव्यध्वनि तुल्य है ऐसा टीकाकार का कथन है। दूसरी बात यह है कि आचार्य परम्परा की महत्ता पर पूर्ण प्रकाश दिख रहा है। ‘गुणधराचार्य ने आचार्य परम्परा से ज्ञान पाया और गाथारूप से परिणत किया। पुन: आचार्य परम्परा से ही आर्यमंक्षु और नागहस्ती मुनि को उसका ज्ञान मिला। अनंतर उनके चरण सानिध्य में ज्ञान प्राप्तकर यतिवृषभ ने चूर्णिसूत्रों की रचना की है।जयधवलाकार ने तो इन ‘कसायपाहुड़’ की गाथाओं को ‘अणंतत्थगब्भाओ’ अनंत अर्थ गर्भित कहा है। जहाँ आगम में जो मत आ जाते हैं तो दोनों का भी श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। देखिए गोम्मटसार जीवकाण्ड में-
नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति में उत्पन्न हुए जीव के जन्म लेने के प्रथम समय में क्रम से क्रोध, माया, मान और लोभ कषाय का उदय होता है, इस नियम का कथन कषाय प्राभृत नामक द्वितीय सिद्धान्त ग्रंथ के व्याख्याता आचार्य यतिवृषभ के अभिप्राय को लेकर किया है। अथवा महाकर्म प्रकृति प्राभृत नामक प्रथम सिद्धान्त ग्रंथ के रचयिता आचार्य भूतबली के अभिप्राय से अनियम जानना। अर्थात् पूर्वोक्त नियम के बिना यथायोग्य कषाय का उदय होता है। ‘अपि’ शब्द समुच्च्य के लिए है। इसलिए दोनों ही आचार्यों के अभिप्राय हमारे लिए सन्देहास्पद हैं, दोनों में से किसी एक को मान्य करने की शक्ति हमारे में नहीं है, क्योंकि इस भरतक्षेत्र में केवली, श्रुतकेवली का अभाव है तथा आरातीय आचार्यों में दोनों सिद्धान्तों के रचयिताओं से अधिक ज्ञान नहीं है। यद्यपि विदेह में जाकर तीर्थंकर आदि के निकट में कोई आचार्य समस्त श्रुत के अर्थ के विषय में संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय को दूर करके वस्तु का निर्णय कर सकते हैं, तथापि सिद्धान्तद्वय के कर्ताओं में जो विवाद है, उसके संबंध में ‘यही ठीक है’ ऐसा कौन बुद्धिशील श्रद्धान करेगा। अत: दोनों मतों का कथन किया है।।२८८।। इन प्रकरणों को देखकर ग्रंथों का अर्थ प्रतिपादित करते समय अथवा प्रवचन करते समय इसी प्रकार से पूर्वाचार्यों के प्रति आस्था व्यक्त करते हुए अपने और सुनने वालों के सम्यक्त्व को दृढ़ करना चाहिए।