अलिकडे काही वर्षात दिगंबर जैन समाजात एक वाद चांगलाच फोफावू लागला आहे. ‘अंकलीकर आदिसागर मुनींना आचार्यपद होते का आणि ते आचार्यश्री शांतिसागर महाराजांचे मुनीदीक्षेचे गुरू आहेत का?’ या विषयावर खोटा प्रचार अपुया माहितीआधारे करुन समाजाची दिशाभूल केली जात आहे. या विषयावर अधिकृतपणे बोलण्याचा अधिकार फक्त त्याच व्यक्तींना आहे-जे शांतिसागर महाराजांचे समकालीन आहेत, त्यावेळी असणान्या (पूर्वाश्रमीचे गाव-नाव वेगळेपणासहित) अनेक आदिसागर मुनींनाही ओळखतात. त्यापैकी एक प.पू. अम्मा. त्यासंदर्भात त्यांच्या सूचनेवरून हस्तिनापूरला लिहिलेले पत्र येथे देत आहे. त्यामुळे समाजाला सत्य माहीत पडेल आणि खोट्या प्रचाराला कोणीही बळी पडणार नाही. आचार्य महावीर कीर्ती आणि एक माताजी याखेरीज अंकलीकर आदिसागरनी कोणालाही दीक्षा दिलेली नाही. त्यांना आचार्यपद फक्त दोन दीक्षेत मिळाले कसे? दिले कोणी? ज्यांच्याजवळ चतुर्विध संघ नाही ते आचार्य कसे? त्यांना चारित्रचक्रवर्ती, समाधिसम्राट, मुनिकुंजरनाथ वगैरे कोणतीही पदवी नव्हती. आता देणे किंवा आहे म्हणणे, म्हणजे असत्याची पूजा करणे होय.।
श्री
वी.नि.सं. २५१७
माघ शुक्ला पौर्णिमा
पूज्य अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी, जिनधर्मप्रभाविका, बुद्धवार,
आर्यिका १०५ श्री ज्ञानमती माताजी, तारीख-३०-१-९१
तथा संघस्थ सर्व आर्यिकाओं के प्रति, बारामती
परमपूज्य आचार्यरत्न, चारित्रचूड़ामणी
१०८ श्री बाहुबली महाराज तथा परम पूज्य मुनि १०८ श्री अर्हद्बली महाराज का समाधिरस्तु आशीर्वाद। अत्रस्थ सर्व आर्यिकाओं का आप सभी आर्यिकाओं को वंदामि।
क्षपकोत्तमा पूज्य विदुषी रत्न चारित्रचंद्रिका १०५ श्री अजितमती माताजी की वंदना।
अत्र सर्वमपि क्षेममस्ति, तत्राप्यस्तु।
पूज्य माताजी का शक्तिपात दिन-दिन बढ़ता जा रहा है। डेढ़ कटोरी उड़द का पानक और आधी कटोरी दूध मात्र आहार चल रहा है। इसमें भी घटाने की उनकी तीव्र भावना है। कल तो चौदस का उपवास था। रात में थोड़ा ठंडापन मालूम पड़ता है लेकिन दिनभर कड़ी धूप-तीव्र गरमी लगती है। फिर भी माताजी क्षुधा, तृषा उष्णपरीषहविजयी होकर निरलस निष्प्रमाद रूप से अपने महाव्रत पालन में अतीव दक्ष हैं। त्रिकाल सामायिक स्वाध्यायादि क्रियाएँ अभी भी बैठकर ही करती हैं। शरीर में वायुप्रकोप की वेदनाएँ हैं।आपके द्वारा भेजी गई वैâसेट सुनते समय माताजी को बहुत आनन्द आया। इतनी दूर होते हुए भी आपने ज्ञानामृत भोजन परोसा। क्षपक ने भी ज्ञानानन्द विभोर होकर सुन लिया। यहाँ द्रव्य, क्षेत्र काल, भाव की अनुकूलता पूरी पूरी है। संघस्थ सभी आर्यिकाएँ वैयावृत्य में तत्पर हैं। निर्यापकाचार्य का वात्सल्य और सावधानता प्रशंसनीय है। सब क्रियाएँ शास्त्रोक्त विधिवत चल रही हैं। यह सब देखने का सौभाग्य हमें प्राप्त है अत: और गुरुसेवा करने का मौका मिलने के कारण श्रीमती जिनमती कोठडिया, ब्र. कु. स्मिताजी और मैं हम तीनों भी बड़भागी ही हैं। हमें ऐसा बनने का सुअवसर कब मिल जाय?
परसों चर्चा निकली थी, आचार्यश्री शांतिसागर महाराज के समय कौन-कौन अन्य मुनि थे जो कि दीक्षित नाम के साथ-साथ गृहस्थावस्था के नाम से भी लोकव्यवहार में परिचित थे।
एक अंकलीकर आदिसागर जो शिवगोंडा स्वामी नाम से प्रसिद्ध थे। उदगांव में उनकी समाधि हुई। प्राय: वास्तव्य भी वहाँ ही होता था। एक आहार, एक उपवास का उनका नियम था।
एक आदिसागर जो बोरगांवकर, जिन्नाप्पा स्वामी नाम से परिचित थे। वे सात दिन के बाद आहार लेते थे। बोरगांव में ही प्राय: आपका वास्तव्य रहता था। इन्हें ही अपने कंधे पर बिठाकर गृहस्थावस्था में शांतिसागर महाराज दूधगंगा और वेदगंगा नदियाँ पार कराते थे।एक आदिसागर भोसे नाम के देहात के थे, भोसगी स्वामी नाम से प्रसिद्ध थे।एक भोजवाले आदिसागर भी थे जो रत्नाप्पा स्वामी नाम से परिचित थे।शांतिसागर महाराज सातगौंडा स्वामी नाम से प्रसिद्ध थे। अंकलीकर आदिसागर या अन्य किसी भी आदिसागर को आचार्यपद नहीं था। तत्कालीन एकमेव आचार्य श्री शांतिसागर महाराज थे जिन्हें कि समडोली ग्राम से चतुर्विध संघ ने आचार्यपद दिया था।उदगांव में अंकलीकर आदिसागर की समाधि यमसल्लेखना के तेरहवें दिन हुई, उस समय उनसे ही एक माह के दीक्षित श्री महावीरकीर्ति वहाँ थे लेकिन नूतन आगत होने से महावीरकीर्ति को या उनका (महावीरकीर्ति का) अभिनंदन ग्रंथ निकालने वालों को सब सच्चाई मालूम ही नहीं होगी। इसलिए अभिनंदन ग्रंथ में अंकलीकर आदिसागर जी के बारे में जो कुछ लिखा हुआ है, वह अंकलीकर और बोरगांवकर दोनों का मिश्र परिचय एक के नाम पर लगाया है अत: गलत है।
अंकलीकर आदिसागर की समाधि के समय पर शांतिसागर महाराज उपस्थित थे और अजितमती माताजी भी थीं। क्षपक आदिसागर की लाश जल रही थी, उसी दिन, उसी समय बोरगांवकर आदिसागर वहाँ आये थे। उनके बदन पर अत्यधिक उष्णता के कारण फोले आये थे और उनमें पानी गलता था। तीसरे दिन ही उनकी समाधि हुई।अजितमती माताजी ने कहा है, ‘‘हम वहाँ विद्यमान थे। अंकलीकर आदिसागर एक दिन बाद आहार करते थे और उन्हें आचार्यपद नहीं था। न वे शांतिसागर के मुनिदीक्षा के गुरु हैं। पंचकल्याणक के समय नांद्रे गांव के यल्लाप्पा शास्त्री शांतिसागर महाराज को ‘सिरि भूवलय’ ग्रंथ दिखलाने आये थे। उस समय उन्होंने महाराज को कहा था, ‘एक सौ पाँच बरस की उम्र में आप के दीक्षागुरु श्री देवेन्द्रकीर्ति की समाधि हुई। उस समय अंकलीकर आदिसागर तो विद्यमान थे अर्थात् यह वार्ता देवेन्द्रकीर्ति संबंधी थी। यह वार्तालाप भी मेरे समक्ष ही हुआ है। आदिसागर को एक दिन बाद/एक दिन बाद आहार देने वाले सांगली के लक्ष्मण आरवाडे सांगली से उदगाँव जाकर आहार देते थे। उनकी भाभी सरस्वतीबाई आरवाडे अभी जीवित है। तीसरा व्यक्ति संघस्थ क्षु. सरस्वती माताजी ८२ उमर वाली है और चौथे यरनाल के पाटील जो कि बाहुबली में रहते हैं। उनका नाम सन्नाप्पा है।
अर्थात् यह सब आँखों देखा हाल कहने वाले हम चार व्यक्ति जीवित हैं।’’
शेष सब कुशल।
हम तीनों का आपके चरणारविन्द में बार-बार वंदामि विदित हो।
नम्र,
ब्र. कु. रेवती दोशी