‘प्रतिकमण’ का शब्दार्थ है- लौटना। अपने स्वभाव में लौटने का अर्थ ‘प्रतिकमण’ है। अपने स्वभाव को साधना ‘आराधना’ है और अपने स्वभाव से हटने का नाम विराधना है। आचार्य कुन्दकुन्द (समयसार, गा. ३०४) कहते हैं कि ‘जो निज शुद्धात्मा की आराधना से रहित है, वह अपराधी है।’ अपराधी का फल संसार की जेल है। अपराधी आत्मा निरन्तर अनन्त पुद्गल-परमाणु रूप कर्मों से बँधता है। आचार्य अमृतचन्द्र के शब्दों में-
अर्थ-जो अपराधी है, वह निरन्त अनन्त कार्मण-वर्गणाओं से बँधता रहता है; किन्तु जो निरपराधी है, वह कर्म -परमाणुओं का स्पर्श नहीं करता। जो अपराधी आत्मा है, वह नियम से अपने आप को अशुद्ध सेवन करता है और निरपराधी या साधु शुद्धात्मा का सेवन करता है। यहाँ पर व्यवहारनय का पक्ष लेने वाला तर्क करता है कि ‘‘शुद्धात्मा की उपासना करने का प्रयास क्यों किया जाए? क्योंकि प्रतिक्रमण आदि से ही आत्मा निरपराधी होता है।’’ व्यवहार का कथन करने वाले आचारसूत्र में भी कहा गया है-
‘पडिकमणं पडिसरणं परिहारो धारणा णियत्ती य । णिंदा गरहा सोही अट्ठविहो अमयकुम्भो दु ।।२।।
अर्थ-प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, परिहार, धारणा, निवृत्ति, निन्दा, गर्हा और शुद्धि- यह आठ प्रकार का अमृृतकुम्भ है। आचार्य कुन्दकुन्द निश्चयनय की प्रधानता से उक्त तर्क का समाधान करते हुए कहते हैं- अनेक प्रकार के विस्तार वाले पूर्वकृत शुभ -अशुभ कर्मों से जो अपनी आत्मा को निवृत्त करता है वह आत्मा प्रतिक्रमण है। जैसे कि :-
‘कम्मं जं पुव्वकयं सुहासुहमणेयवित्थरविसेसं । तत्तो णियत्तदे अप्पयं तु जो सो पडिक्कमणं ।। -समयसार गा.३८३
अर्थ-जिन भावों से पूर्व में कर्म बँध चुके हैं और जिनसे आगामी कर्म बँध रहे है; जब तक उनसे ममत्व भाव न छूटे, तब तक प्रत्याख्यान और प्रतिक्रमण कैसे हो सकता है ? प्रश्न यह है कि प्रतिक्रमण को किसी अपेक्षा से ‘विषकुम्भ’ कहा है और द्रव्य-प्रतिक्रमण को ‘अमृतकुभ’ कहा है- ये दोनों बाते कैसे सम्भव हैं ? आचार्य समझाते हुए उत्तर देते हैं- जो द्रव्य प्रतिक्रमणादि हैं, वे दोषों के मिटाने वाले कहे गए हैं; लेकिन शुद्धात्मस्वरूप प्रतिक्रमणादि के आलम्बन् से रहित द्रव्यप्रतिक्रमणादि दोषस्वरूप ही हैं। क्योंकि जिनवाणी में मोक्षमार्ग में निश्चयसापेक्ष व्यवहारनय ही प्रयोजनवान है। इसलिये निश्चय से रहित केवल व्यवहार का पक्ष बन्ध का मार्ग है। यथार्थ में प्रतिक्रमणरूप आत्मदर्शन का विचार तीन भूमिकाओं को ध्यान में रख कर किया गया है। आचार्य अमृतचन्द्र में शब्दों में-
‘‘यस्तावदज्ञानिजनसाधारणोऽप्रतिक्रमणादि: स शुद्धात्मसिद्धयभावस्वभावत्वेन
अर्थ- प्रथम तो साधारण अज्ञानीजन प्रतिक्रमण न समझते हैं और न करते हैं, इसलिये अप्रतिक्रमण वाले होने से उनके तो किसी भी प्रकार से आत्मा की सिद्धि नहीं हो सकती है ओर स्वयं अपराधरूप होने से विषकुम्भ ही है। द्वितीय भूमि में ‘‘यस्तु द्रव्यरूप: प्रतिक्रमणादि:, स सर्वापराध विषदोषापकर्षणसमर्थत्वेनामृतकुम्भोऽपि प्रतिक्रमणाप्रतिक्रमणादिविलक्षणा प्रतिक्रमणादिरूपां तार्तीयकीं भूमिमपश्यत: स्वकार्यकरणासमर्थत्वेन विपक्षकार्यकारित्वाद् विषकुम्भ एव स्यात्।’’
अर्थ-और जो द्रव्यरूप प्रतिक्रमणादि हैं, वे सब अपराधरूपी विष का दोष दूर करने में समर्थ होने से ‘अमृतकुम्भ’ हैं- ऐसा व्यवहार आचारशास्त्र में कहा है। परन्तु प्रतिक्रमण-अप्रतिक्रमण से विलक्षण एक ऐसी तृतीय भूमिका भी है, जिसको न देखने वाले पुरूष के लिए द्रव्यप्रतिक्रमणादि अपना कार्य करने में असमर्थ होने से तथा बन्ध का कार्य करने से विषकुम्भ ही हैं। तृतीय भूमिका में ‘‘अप्रतिक्रमणादिरूपा तृतीया भूमिस्तु स्वयं शुद्धात्मसिद्धिरूपत्वेन सर्वापराधविषदोषाणां सर्वंकषत्वात् साक्षात्स्वयममृतकुम्भो भवतीति व्यवहारेण द्रव्यप्रतिक्रमणादेरपि अमृतकुम्भत्वं साधयति। तयैव च निरपराधो भवति।’’
(समयसार, गा. ३०६, आत्मख्याति)
अर्थ-जो अप्रतिक्रमणादिरूप है, वह स्वयं शुद्धात्मा की सिद्धिरूप होने से सभी अपराधरूपी विष के दोषों को सर्वथा नष्ट करने वाला होने से साक्षात् स्वयं ‘अमृतकुम्भ’ है। इसकी ही यह विशेषता है कि द्रव्यप्रतिक्रमणादि व्यवहार को भी वह अमृतकुम्भरूप से साधता है। जो लोग यह सुनकर कि प्रतिक्रमणादिक ‘विषकुम्भ’ है, अत: प्रमादी होते हैं; तो उनसे आचार्य कहते हैं- ये लोग नीचे ही नीचे क्यों गिरते हैं ? तृतीय भूति में ऊपर ही ऊपर क्यों नहीं चढ़ते हैं? आचार्य जयसेन ‘प्रतिक्रमण’ को ‘अमृतकुम्भ’ कहते हुए किसी अपेक्षा से ‘विषकुम्भ’ भी कहते हैं। उनका कथन है- ‘‘पडिकमणं कृतदोषनिराकरणं ………यद्यपि मिथ्यात्व विषयकषाय परिणतिरूपा शुभोपयोगापेक्षया सविकल्पसरागचारित्रावस्थायाममृतकुम्भो भवति, तथापि रागद्वेषमोहख्यातिपूजालाभद्रष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षारूप निदानबन्धादि समस्त-परद्रव्यालम्बन विभावपरिणामशून्या चिदानन्दैकस्वभावशुद्धात्मावलम्बनभरितावस्था निर्विकल्पशुद्धोपयोगलक्षणा….. ज्ञानिजनाश्रितनिश्चयाप्रतिक्रमणादिरूपा तु तृतीय भूमिस्तदपेक्षाया वीतरागचारित्रस्थितानां पुरुषाणां विषकुम्भ एवेत्यर्थ:।’’
(गा. टीका ३२९ समयसार-तात्पर्यवृत्ति)
अर्थ-किए हुए दोषों का निराकरण करना ‘प्रतिकमण’ है। यद्यपि मिथ्यादृष्टि विषय-कषायी लोगों के शुभोपयोग की अपेक्षा सविकल्प, सरागचारित्र अवस्था वालों का प्रतिक्रमण ‘अमृतकुम्भ’ कहा जाता है, तथापि राग-द्वेष, मोह, ख्याति-पूजा-लाभ, देखे-सुने-अनुभूत भोगों तथा आकांक्षाओं के निदान-बन्ध एवं सभी परद्रव्यों के आलम्बनरूप विभाव परिणामों से शून्य एक चिदानन्दस्वभावी शुद्धात्मा के अलम्बनयुक्त निर्विकल्प शुद्धोपयोग लक्षण वाले ज्ञानीजनों के आश्रित निश्चय अप्रतिक्रमणादिरूप तृतीय भूति की अपेक्षा वीतरागचारित्र में स्थित योगियों की अपेक्षा ‘विषकुम्भ’ ही है। इस प्रकार यद्यपि विकल्प अवस्था में प्रतिक्रमणादि आठ विकल्परूप शुभोपयोग ‘अमृतकुम्भ’ है, तथापि समतालक्षण वीतराग चारित्र की अपेक्षा ‘विषकुम्भ’ है। कहा गया है। कुछ लोग उपर्युक्त कथन को बराबर न समझने के कारण प्रतिक्रमणादि का निषेध करते हैं, स्वयं नहीं करते हैं और करने वानों का उपहास करते है; जो आगम के अनुसार उचित नहीं है। क्योंकि ‘‘आचारसार’ आदि चरणानुयोग के ग्रन्थों में श्रावक तथा मुनियों के लिए भी प्रतिक्रमणादि पाठ करने का विधान मिलता है। ‘‘मूलाचार’’ में तो यहाँ तक कहा गया है कि ‘‘यह आवश्यक नहीं है कि प्रतिक्रमणादि दण्डकों में जो पाठ करते हों, उस सबका अतिचार पूर्वक आचरण किया गया हो; फिर भी अतिचार निवारण हेतु उनका पाठ करना आवश्यक है।’’ कहा भी है-
अर्थ-ईर्यासमिति, गोचरी और स्वप्न आदि में अतिचारपूर्वक आचरण किया गया हो या अतिचार न भी लगा हो; किन्तु यह नियम है कि प्रथम तीर्थंकर तथा अन्तिम तीर्थंकर के सभी शिष्य ‘प्रतिक्रमण’ करते हैं। अत: प्रतिक्रमण करने योग्य है। वास्तव में प्रतिक्रमण दोषों से बचाने वाला है, विषय-कषायों से रोकने वाला है। इसलिए उसकी उपयोगिता निर्विवाद है। *समस्त श्रमणसंघ ही यह परम्परा रही है कि दीक्षित होने वाले शिष्य को प्रतिक्रमण में निपुण होना अनिवार्य है। अत: प्राम्भ में ही दीक्षाचार्य नवागन्तुक से उसके नाम, कुल, गुरु, दीक्षामान, वर्षावास, आगमन की दिशा, शिक्षा और प्रतिक्रमण आदि के विषय में प्रश्न पूछते हैं। जैसा कि कहा है-
अर्थ-नाम, कुल, गुरु, दीक्षामान, वर्षावास, आगमन की दिशा, शिक्षा ओर प्रतिक्रमण आदि के विषय में आगन्तुक अनगार (साधु) से प्रश्न पूछते रहते हैं। यथार्थ में जिसको प्रतिक्रमण नहीं आता है, वह दीक्षा लेने योग्य नहीं है।
मुनि श्री कनकोज्जवलनन्दि जी प्राकृत विद्या जुलाई-सितम्बर १९९५ अंक २